कविताएँ ::
मधु बी. जोशी
पहाड़-यात्रा
एक
रोपणी
ऊँची सड़क से
फूलों-सी दिखती
बहनों-बेटियों,
ऐसी ही फलो-फूलो
ऐसे ही गाती रहो
गीत सुख के, दुख के
बहन का मान रखने वाले गबरू
और मनमौजी अँछरियों के।
बनी रहे तुम्हारे हाथों की जीवनी
जमें रहें तुम्हारे पाँव घरती पर
हरे रहें तुम्हारे खेत।
दो
हहराती चली आई
कितनी बिसरी वनस्पति गंधें
दौड़े चले आए
कितने वृक्ष,
लताएँ, क्षुप
जैसे साथी स्कूली दिनों के।
कुछ दिख जाते रहे कभी
किसी भीड़ में,
उनके चेहरे याद थे
बात नहीं हुई थी उनसे
स्कूल में भी कभी।
कुछ याद तक नहीं थे।
उनके बिना भी
चलता रहा था जीवन
निर्बाध।
इतने समय बाद दिखे
वे जाने-बिसरे चेहरे
भरा-पूरा हो गया
मेरा जगत।
छोटे शहर की कहानियाँ
कथाकार जयशंकर के लिए
एक जीवन में,
कितने जीवन।
एक कहानी में,
कितनी कहानियाँ।
एक मानुस में,
कितने-कितने मानुस।
गरुड़
गुरुत्वाकर्षण के बंधनों से परे
ऊर्जा की धाराओं को साधता
तिरता है गरुड़
शून्य में
तुच्छ दिखता संसार
ओछे कार्यव्यापार
पवन धाराएँ
साधे हैं देह-भार
भारमुक्त, नियमातीत
शून्य में निलंबित
गरुड़
कॉफ़ी हाउस में बच्चा आया!
कॉ़फ़ी हाउस में बच्चा आया,
ठुमक-ठुमक चल बच्चा आया
माँ के पीछे बच्चा आया
मेज़ पर आसन जमाया
कॉफ़ी हाउस में बच्चा आया
बच्चा देख बैरा घबराया
मैनेजर गुर-गुर गुर्राया
महफ़िल में सन्नाटा छाया
बैरे ने साज़ो-सामान हटाया
बच्चा लपका काँटा उठाया
मेज़ को मादल बनाया
कॉफ़ी हाउस में बच्चा आया
कॉफ़ी चखकर मुँह बिचकाया
साम्बर थूका, पानी गिराया
इडली को फीका बताया
कॉफ़ी हाउस में बच्चा आया
बैरे को दाँतों पसीना आया
मैनेजर थर-थर थर्राया
बच्चे ने मादल बजाया
‘‘हल्बा लाओ!’’ हँस फ़रमाया
बैरा ग़रीब सकपकाया
मैनेजर का मुँह रह गया बाया
महफ़िल में ठहाका फूटा
उस पर मादल का सुर छाया
कॉफ़ी हाउस में बच्चा आया
गीतससंभव
किसी दिन अचानक
जानेंगे हमारे बच्चे कि
वे संभव हुए
उस गीत से
जो गीत-सा नहीं लगता था
लेकिन था गीत ही
अपनी ही क़िस्म का
अनूठा
एकाकी
गीत
और तब
गीत की पहचान से लैस
हमारे बच्चे
पहचानेंगे अनंत गीत
अपनी ही क़िस्म के
और कौतुक और आश्चर्य से भर
रचेंगे गीत
एकदम अपने
करुणा से भरे वे
कर पाएँगे क्षमा
सृष्टि के पापियों को
जो गीत को नहीं पहचानते
शोकगीत
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल1बच्चों का खेल/आसान काम नहीं थी
एक बाज़ार थी दुनिया
वे ख़रीददार थे
हर शै पर लेबल चिपकाते
हर चीज़ के दाम लगाते
उनके खीसों में सदा रहीं
भाँति-भाँति की मुद्राएँ
उनके नाम थे
तमाम प्रतिक्रियाओं के पेटेंट
कई क्रियाओं के कॉपीराइट
दाम-पेटेंट-कॉपीराइट दिशाएँ थे
और वे थे ध्रुव
जीवन चलता था डग्गामार बस की तरह
एक सच के लिए
कमाती हूँ शब्द
जीवन से
जैसे कमाता है
चमड़ा चमार
गूँथती हूँ शब्द
अर्थ के उतरने के लिए
जैसे जूता गाँठता है
मोची
जीवन मथता है
मुझे अहर्निश
और संभव करता है
एक सच
हवा
हवा
खिलाती है
फूल
बिखराती है
पराग
सहलाती है
पानी की चादर को
गीत ढालती है
वेणुवन में
तराशती है
चट्टानें
हरिद्वार
पिता के साथ
आता था हरिद्वार
लाख के सुंदर गिट्टों में
सुगढ़ गंगाजलियों में
लकड़ी के लुभावने खिलौनों
शंख की सुंदर मालाओं में
प्रसाद भी लाते थे पिता
मीठे इलायचीदाने
फीके मुरमुरे
तुलसीदल और फूल
प्रसाद बड़े लोगों की चीज़ था
वे श्रद्धा से उसे माथे लगाते
फिर मुँह में डालते
हम तो यूँ ही चबा जाते
इलायचीदाने और मुरमुरे
रोज़ बेचता था मालीराम
तुलसीदल और फूल
हमारी बाड़ी में बहुत थे
बड़े हुए तो जाना
हरिद्वार एक व्यावसायिक क़स्बा है
मंदिर हैं वहाँ,
मठ भी
महंत और दुकानदार भी
मीठे इलायचीदाने
फीके मुरमुरे
तुलसीदल और फूल
सभी तीर्थनगरों की साझी सौग़ात हैं
आज भी आता है तीर्थ
लाख के सुंदर गिट्टों,
सुगढ़ गंगाजलियों
लकड़ी के लुभावने खिलौनों
शंख की सुंदर मालाओं के साथ
तीर्थ के साथ आते हैं पिता
अँधेरा
इतना भी अँधेरा नहीं था
अँधेरा
उस में रंग फड़कते थे
चमकीले नीले, रहस्यमय बैंगनी
लपलपाते लाल, कच्च हरे
उजला सफेद तक कौंध जाता
बीच-बीच में
अँधेरा हम से खेलते
रंगों का
धनीभूत पिंड था
दुर्दिन में
चुनते हैं एक झूठ
और बुनते हैं जाल
उसके सापेक्ष
मोती की तासीर
जाने सीपी
आँसू की तासीर
आँख
—सुगढ़ पत्थर
तराशा है
पानी ने
—भंगुर जगत में
स्मृति रचती है
एक संसार
—सपना मरा
जीवन हुआ
एक स्थायी
अशुचि पर्व
मधु. बी. जोशी (जन्म : 1956) समादृत लेखिका और अनुवादक हैं। उनकी कविताओं की एक किताब ‘अकेली औरतों के घर’ (2005) शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी है। उनसे madhubalajoshi@yahoo.co.in पर बात की जा सकती है।