नज़्में ::
मुमताज़ इक़बाल

मुमताज़ इक़बाल

पूरी रात में लिखी गई एक अधूरी नज़्म

रात
हाँ-हाँ वही काली औरत
वो बला की औरत
दौड़ती जाती थी जब नंगे बदन
बेतरह सीना हिलाती हुई
चिल्लाती हुई
वो ख़ामोश मिज़ाज
हाँ वो बरहना औरत

उसे जाना था बहुत दूर—
मगर
मक़सद-ए-ज़ाती से नहीं…
ग़ालिबन
बीतते वक़्त के पुर-शोर समुंदर के पार
प कहाँ?
बाद में शाइर प खुले ये असरार

मुझसे टकराई वो उस ज़ोर के साथ
हम धुआँ बन गए जूँ एक गुज़रते पल में
जैसे टकराए थे सदियों पहले
ठोस धुएँ के बादल
फिर तो वो ज़ोरों की बारिश हुई सदियों-सदियों
जिससे तख़लीक़ हुई दुनिया की

मुझसे टकराई वो और यूँ मुझे महसूस हुआ
ख़ौफ़ के फूलों की दीवार से टकरा गया मैं
ज़ोरआवर थी वो इस दर्जा कि झन्ना गया मैं
ऐसी ख़ुश्बू कि मिरी नाक उधड़ कर रह गई
कुल बदन उड़ गया रफ़्तार के तूफ़ान के साथ
शुक्र इतना कि ज़बाँ, कान कि बीनाई ही बाक़ी रह गई
आन की आन में देखा मैंने
पेट फूला हुआ उसका किसी ग़ुब्बारे-सा
जिसमें भरा हो पानी!

मैंने औसान सँभाले तो सुनी इक आवाज़—
‘‘इधर आ पास मिरे बिल्कुल पास
साँस लेते हैं मिरे सामने तेरे एहसास
दर्द से यूँ मैं परेशाँ हूँ बहुत आज उदास
मौत से क़ब्ल कि जिस तरह उखड़ता है साँस
दर्द की सत्ह…
कि जूँ हुक्म-ए-ख़ुदा पर जिब्रील
बस्तियों के निशाँ नाबूद किया करता है
बस कोई दर्द मेरे पेट पे यूँ धरता है

मैं भी मुजरिम हूँ तिरे साथ में बद-फ़ेलियाँ की हैं मैंने
लुत्फ़-ओ-लज़्ज़त में नहाए हुए मंज़र कर याद
शाम के साथ तू जब मुझमें उतर जाता था
मेरा बिस्तर कि मिरे ख़ून से भर जाता था
हाय वो वक़्त!
कि जब दर्द का एहसास ही मर जाता था!
आद और लूत के वक़्तों में ज़रा झाँक के देख
जब ख़ुदा तैश में आ जाता था
ज़रा-ज़र्रा कि ग़ज़बनाक सज़ा पाता था
और मुझे देख
मरी जाती हूँ मैं

सुन ज़रा मेरे तपकते हुए इस पेट को चाट
मैंने पहले भी कई मर्तबा महसूस किया
तेरी ज़बाँ में वो फ़ुसूँ
दर्द कम हो कि न हो पर मुझे नींद आती है
प्याला-ए-नाफ़ की जिल्द आज फटी जाती है
चाट और चाटता जा नाफ़ कि इससे पहले—
होश से मावरा हो जाए मिरी हिस्सीयत

अच्छा सुन
मुझसे सुख़न कर
ढूँढ़ कर ला कोई लफ़्ज़ों का मुजर्रद नुस्ख़ा
नज़्म सुना
और मिरे दर्द का दरमाँ कर दे
मैंने फिर नज़्म पढ़ी
‘नज़्मज़ाद’ ऐसी कोई नज़्म
उसको मुख़ातिब करके—

‘‘ये शब-ओ-रोज़ की वहशत
ये अज़ीयत
ज़िल्लत
और उस पर जिए जाने की बला की फ़ुर्सत
हम तो जीते जी किसी मौत के हत्थे चढ़ गए
इश्क़ के पल्ले पड़ गए

और उस पर ये हक़ीक़त कि पस-ओ-पेश-ओ-हक़ीक़त यूँ है—
कहीं रुस्वा न सर-ए-आम हुए
एक भी शख़्स ने तंज़न न कहा—
‘अहल-ए-हिक्मत ने कहा था कि मोहब्बत कीजे?’
इश्क़
उफ़्फ़!
हाए ये इश्क़ का बोझ
तुम से उठाया ही नहीं जाएगा
यूँ करो
बार-ए-अना पहले उतारो हज़रत
पहले सर ख़ाली करो
कई गट्ठर
नहीं रखते सिर पर
इश्क़ दस्तार की तरह से पहनते हैं मियाँ
बाँध लेते हैं बदन भर प अबा की सूरत
तब कहीं जा के उठा पाते हैं हम
इश्क़ का बोझ!
तब कहीं सीने पे खाते हैं किसी शोख़ के बख़्शे हुए ज़ख़्म
तब कहीं सुनते हैं हँस-हँस के किसी हुस्न की ख़ंजर बातें
हम उठाते ही नहीं बार-ए-हलफ़
अहद-ओ-पैमाँ ही नहीं बाँधते
और
बस निभाते चले जाते हैं हमेशा किरदार
ऐसे किरदार जो लहजों कि रवय्यों के तफ़र्के में तो पड़ते ही नहीं
बात छोटी कि बड़ी हो, प झगड़ते ही नहीं
मान जाते हैं किसी बात प अड़ते ही नहीं
आजिज़ी ही में बड़े ख़ुश नज़र आते हैं ये लोग
और दुनिया का ये कहना है बुरे हैं ये लोग!’’

मगर इतने में कहा रात ने बस कर
थम जा
देख अब पेट से निकलेगी मिरे पर्तव-ए-ख़ुर
और तुझे पैदा करूँगी मैं बहुत शोर के साथ
मैं कि चीख़ूँगी तो फट जाएगी पौ
नीले आकाश पे आएगा सफ़ेदी का शिगाफ़

तू कि हर शब की सहर है यूँ कर
मेरे सीने में चिमट जा कि तिरे होंठों पर
वो सफ़ेदी मैं चढ़ा दूँ जो तुझे ज़िंदगी दे
तुझे ज़िंदा कर दे
तेरे होंठों के कटोरे भर दे
इतनी हो जाए फ़रावानी-ए-शीर
तेरे होंठों से छलक जाए कहानी बन कर
नज़्म-ए-मुब्हम के हमाजेहत मआनी बन कर
सूरत-ए-शीर, लहू रंग, कि पानी बन कर
मेरे पिस्तान भंभोड़
देर न कर
मुझसे चिमट
चूस ले छाती मेरी
ख़ुद को मुकम्मल कर ले
और दानाई की इक बात न भूल
मैं तिरी माँ हूँ मिरी कोख से पैदा है तू
तेरे हाथों से मिरा क़त्ल हुआ करता है
अलमिया ये है
तेरी दुनिया का हर इक शख़्स बड़ा ज़ालिम है
रोज़ ये वाक़िआ होने की दुआ करता है

फूलोंवाली की याद में
दो मंज़र

पहला मंज़र

फूलोंवाली!
हमने तेरे इश्क़ में जाने कैसे-कैसे मंज़र देखे
तेरी भीगी आँखें देखीं
दरियाओं के लश्कर देखे
तेरी महकते साँस में खोकर
क़ुरबत के सौ-सौ दर-दर देखे
हमने तेरे एक बदन में
सैकड़ों जिस्म मुनव्वर देखे
और परियों से बेहतर देखे
तेरे वस्ल के जादू देखे
तेरे तड़पते बाज़ू देखे
लेकिन हमने सारे करिश्मे
तेरे जिस्म को छू कर देखे

दूसरा मंज़र

और छुआ जिस्म तिरा
फूल हुआ जिस्म तिरा
डोल गया
बोल गया
किसी झरने की तरह फूट पड़ा
और बहता रहा
बहता रहा
बहता ही रहा
कहता रहा
बस बस बस!
बाँध इक टूट पड़ा जैसे ज़मीनों की सम्त
ख़ुश्क से ख़ुश्क इलाक़ों को किया यूँ सैराब
बहुत अंदर कहीं जैसे हो नमी बैठ गई
किसी नुक़सान की मुम्किन-सी ख़बर से बेफ़िक्र
ख़ुश्बुओं का कोई रेला कोई बेला जैसे
और ख़ुदा की तरह दुनिया से अकेला जैसे
मेरे हाथों से फिसल कर ये गया जी वो गया
मछलियों की तरह इक सम्त उछलता हुआ
मोम की तरह पिघलता हुआ
और बालाई से पस्ती की तरफ़ चलता हुआ
आतिश-ए-तेज़-ए-हवसनाक में जलता हुआ
और ढलता हुआ
और मिरी सख़्त पकड़ की हद-ए-फा़ज़िल से निकलता हुआ
छलता हुआ मेरी ख़्वाहिश!

सोज़-ए-दरूँ

ख़ूबसूरत ज़िंदगी पुख़्ता तअल्लुक़ घर बड़े
फ़ुर्सतों के रोज़-ओ-शब दिल नर्म पाकीज़ा नज़र
लोग भी इक-दूसरे के दर्द में हमदर्द थे
रश्क आता है मुझे गुज़रा ज़माना देख कर

हाए वो दिल वो नज़र वो घर कहाँ इस दौर में
लुट गए आँगन दर-ओ-दीवार तन्हा हो गए
रात लंबी है चराग़ों से कहो जलते रहें
सुब्ह होगी तो नज़र आ जाएँगे रस्ते नए

ख़ैर मुद्दत बाद तुम मिल ही गए ये कम नहीं
मैं मुक़द्दर का धनी तुम हासिल-ए-दोनों जहाँ
हाँ तुम्हारे बाद कुछ दुश्वारियाँ आती रहीं
इश्क़ का ये मोजिज़ा था बन गईं आराम-ए-जाँ

तुम ये कहते हो जहाँ शोला था मिस्ल-ए-ख़ार था
अजनबी पैकर ब-शक्ल-ए-गुफ़्तगू आए तो यूँ
जैसे हर इक लफ़्ज़-ओ-मानी में ख़ला हो प्यार का
कर्ब का इक साज़-ए-ग़म था बन गया सोज़-ए-दरूँ

दर्द सौ इक दिल के हिस्से में हमेशा ही रहे
पूछ लो जा कर क़लंदर से किसी अब्दाल से
तुम तो इक मुझ से जुदा होकर परेशाँ हो गए
इश्क़ तो वाबस्ता-ए-ग़म है हज़ारों साल से

वक़्त की मौत

तुम आई हो
गर्मी की शिद्दत से जिस्म पिघल जाना था
जल जाना था
बह जाना था
ये लोहा भी गल जाना था
तुम बरवक़्त चली आई हो
यूँ तुम मिस्ल-ए-पुरवाई हो
दानाई की ज़ेबाई हो

तुम आई हो
साथ में फ़स्ल-ए-गुल लाई हो
तुम जो हमेशा ही से मेरी तन्हाई थीं
अब तुम रद्द-ए-तन्हाई हो
दुनिया में जितने भी क़साइद हुस्न की मद्ह में लिक्खे गए हैं
जिनके मफ़हूम-ओ-मानी कम-कम खुलते हैं
नज़्में जो इब्हाम-ज़दा हैं
लफ़्ज़ जो ज़ू-मानी सहरा में सरगरदाँ हैं
गोया उन सारे लफ़्ज़ों की सन्नाई हो

कितने ऊँचे-ऊँचे पर्बत
जिन पर चढ़ने में कुछ माह गुज़र जाते हैं
कुछ सय्याह कि चढ़ते-चढ़ते मर जाते हैं
पर्बत पर सब्ज़ाज़ारों के
हद्द-ए-नज़र तक सैकड़ों मंज़र
तुम उन सबकी पहनाई हो

तुम झरनों की रानाई हो
तुम हँस दो तो जैसे दरिया
चश्मा-ए-लब से फूट पड़ेंगे
चल निकलेंगे
दुनिया भर की ख़ुश्क ज़मीं को तर कर देंगे

तुम आई हो
यानी मेरी ख़ाली दुनिया का ख़ालीपन भर जाएगा
अब मैं तुमसे बातों में मसरूफ़ रहूँगा
वक़्त हज़ारों सालों से जो मह्व-ए-सफ़र है
आज थका-हारा बेचारा
नींद के हाथों मर जाएगा

परवीन शाकिर के एक शे’र से मुतअस्सिर होकर

अजब ज़िद है कि रग-रग में उतरता भी नज़र आऊँ
कि जू-ए-रूह में खो कर मोहब्बत इंतिहाई दूँ
मैं जब दस्त-ए-हिना थामूँ नफ़स में भी उतर आऊँ
लबों से फूटती लर्ज़ां सदाओं में सुनाई दूँ

मैं उसके इन ख़यालों से कभी बदज़न नहीं होता
वो मुझ में जज़्ब होना चाहता है तो बुरा क्या है
ग़रज़ कि शिद्दत-ए-जज़्बात का मस्कन नहीं होता
वो फिर भी इश्क़ की मेराज की धुन में भटकता है

मैं क़ुर्बत की हक़ीक़त भी समझता हूँ बदन की भी
हज़ारों फा़सले क़ुर्बत की शिद्दत से निकलते हैं
बदन के हर तक़ाज़े के कई मक़सद हैं मा’नी भी
तक़ाज़े बोझ बन जाएँ तो फिर शाने बदलते हैं

मैं डरता हूँ यही परवीन शाकिर की तमन्ना थी
वो अपनी ज़ात में इक अंजुमन थी फिर भी तन्हा थी

लफ़्ज़ तिरी तस्वीरें हैं

किताबें
और
बहुत सारी किताबें
किताबों में तिरी ताज़ा शबीहें
वो सब अल्फ़ाज़ जिनमें बन रही हैं तेरी आँखें
मैं पीता हूँ मआ’नी में छुपी हूई शराबें
अता होती हैं मुझको इल्म-ओ-फ़न की कुल नवीदें
दरख़्त-ए-फ़हम फैलाता मेरी सम्त अपनी सब्ज़ शाख़ें

मैं शाइर हूँ मगर फ़िक्शन का दीवाना
मैं नस्री इस्तिआ’रों में तिरी पायाबी के इम्कान ढूँढ़ूँ
कभी बहर-ए-मआ’नी में उतर कर तह खंगालूँ
कभी इब्हाम में गुम प्लॉट की और थीम की बुनियाद छू लूँ
तिरी मौजूदगी लफ़्ज़ों को ज़ू-मा’नी बनाती है
इम्कानी बनाती है
मैं कोई लफ़्ज़ जब छू कर तुझे महसूस करता हूँ
तिरा चेहरा दमक उठता है मेरे खु़श्क हाथों में
उबल पड़ता है कोई नूर का चश्मा घनी तारीक रातों में

मैं बेक़ाबू तिरी रौशन जबीं को चूमता हूँ
ये कैफ़ीयत तिरे मुजरिम को रूहानी बनाती है
मैं जल उठता हूँ शहवत की परागंदा ग़रज़ सय्याल आतिश में
तिरी पाकीज़गी हर आग को पानी बनाती है
हमारे इश्क़ को शब भर ये इरफ़ानी बनाती है

एक इश्तिहा अफ़ज़ा ख़्वाब

चंद हफ़्तों से अजब ख़्वाब मुझे आते हैं
शहर-ए-लंदन में कहीं टेम्ज़ किनारे हम-तुम
रात के वक़्त महकते हुए हर साँस में गुम
डूब जाते हैं किसी आन उभर आते हैं

गिरहें खुल जाती हैं सब शर्म की ज़ंजीरों की
सुर्ख़ जिस्मों की तपिश ही से पिघल जाती हैं
वस्ल की आग में जलते हैं बदन रूहें भी
ख़ाक होकर नए क़ालिब में भी ढल जाती हैं

मेरे शाने प फिसलते लब-ए-शीरीं तेरे
लम्स से जिनके तमन्नाओं के बन भीगते हैं
जब कि यूँ बर्क़ गिरे टूट के पानी बरसे
क़ुर्ब की लौ से पिघलते हुए तन भीगते हैं

होश रहता ही नहीं इश्क़ में दीवानों को
चूम लेते हैं मिरे लब तिरे पिस्तानों को

जन्नत का दरवाज़ा

कमसिन भोली-भाली लड़की!

बूढ़े बाबा के सिरहाने कुर्सी पर गुमसुम बैठी है
बाबा के मुरझाए चेहरे में जाने क्या ढूँढ़ रही है
किस बारे में सोच रही है

ख़्वाब सँजोने वाली आँखें
कितने दिन कितनी रातों से जाग रही हैं
और उमीदें उल्टे पाँव भाग रही हैं

बाबा जानी-दुश्मन एक मरज़ से कब से जूझ रहे हैं
साँस की उलझी एक पहेली बूझ रहे हैं
लड़की ने बूढ़े बाबा की ख़िदमत की है
बाबा की प्यारी बेटी है

देर से बाबा के पाँव को देख रही है
हॉस्पिटल के नीम अँधेरे कमरे में इक ख़ामोशी है
उसने दोनों हाथों से बाबा के पाँव थाम लिए हैं
नाज़ुक-नाज़ुक हाथों में जलते-बुझते दो ख़ुश्क दीये हैं
लेकिन लड़की को इतना तो अंदाज़ा है
उसके हाथों में जन्नत का दरवाज़ा है

बन्नेर शरीफ़ की ज़ियारत

मज़ार-ए-बन्नेर की ज़ियारत को जाएँगे हम
दुआओं का एहतिमाम करने से क़ल्ब में रौशनी बढ़ेगी
हमारे मासूम रिश्ता-ए-दिल की फ़स्ल की ज़िंदगी बढ़ेगी
यक़ीं बढ़ेगा
मोहब्बतों के लिबास पर इक दबीज़ रंग-ए-वफ़ा चढ़ेगा

सुब्हान अल्लाह कि सुब्ह किस क़द्र सुरमई है
कोई ख़याल-ए-सहर नहीं है
कि वाक़ई है
कि लग रहा है ये उम्र जैसे नई-नई है
तुम्हारे हाथों में हाथ मेरा
ये ज़िंदगी है
कि इश्क़ भी है
तुम्हारी क़ुर्बत में साँस लेना
ये ख़ुशनसीबी की इन्तिहा है

हम ऑटो रिक्शा से सरख़ुशी में उतर रहे हैं
हमारी आँखों में इक तजस्सुस से दीद के रंग भर रहे हैं
हज़ारों जज़्बे उभर रहे हैं
तुम्हारे चेहरे पे रौशनी फैलने लगी है
तुम्हारे हाथों में एक शम्अ’-ए-दुआ सलीक़े से जल रही है
तुम्हारी आवाज़ सुन रहा हूँ—

‘‘चलो वहाँ पर नियाज़ दी जा रही है आओ नियाज़ दें हम!
कि इस मज़ार-ए-वली-ए-कामिल के ज़ेर-ए-साया दुआएँ माँगें’’

फ़ितरत तुम्हारे होंठों के एक इशारे पर रुकी है

ख़्वाब देखा
ख़्वाब में हम पर्बतों के पार
चलते जा रहे हैं
कितनी सुब्हें, शामें और उजली दोपहरें
वक़्त के साँचे में ढलते जा रहे हैं
फूल खिलते जा रहे हैं

हर तरफ़ जंगल ही जंगल
इन पहाड़ों में दो-एक आबाद हैं जो बस्तियाँ
जिनके मर्द-ओ-ज़न लुटाते फिर रहे हैं मस्तियाँ
लोग
हाय ख़ूबसूरत लोग!
देख कर हमको हुए जाते हैं जैसे महव-ए-हैरत लोग
एक बच्ची ने तुम्हारे नर्म-ओ-नाज़ुक
और मेहंदी से रचे हाथों पे यूँ बोसा लिया
जैसे अपनी ख़्वाब-आसा आरज़ू को पा लिया
‘‘आप कितनी ख़ूबसूरत हैं’’
और तुम बस मुस्कुरा कर उसके इज़हार-ए-दिली पर
आहिस्ता से कहती हो—
‘‘शुक्रिया’’

आँख खुल जाती है मेरी
और मुझे उस ख़्वाब की ताबीर का मा’नी समझ में आ गया है
तुम्हारी मुस्कुराहट
जंगलों में
पर्बतों में
ढल चुकी है
और फ़ितरत अपना कुल सरमाया-ए-हुस्न-ओ-जमाल-ओ-रंग-ओ-बू लेकर
तुम्हारे सुर्ख़-ओ-शीरीं होंठों के बस इक इशारे पर रुकी है

हँसना

एक गली थी
दो साये थे
रात बहुत रूमानी थी
और गली में तारीकी थी
सायों को सीने से लग कर हँसने की आसानी थी
रक्स हुआ फिर
इश्क़ मुसाफ़िर
अपनी-अपनी मंज़िल की जानिब चल निकले
और उस रात अधूरे ख़्वाब मुकम्मल निकले
अब इक साया बाक़ी है
और गली उस पर हँसती है


मुमताज़ इक़बाल उर्दू की नई पीढ़ी के अत्यंत योग्य कवि-लेखक और अनुवादक हैं। उनकी तैयारियाँ बड़ी और बेचैनियाँ गहरी हैं। उनकी पढ़ाई, भाषा और दृष्टि अपनी उम्र से बहुत आगे की है। यह सब कुछ ही उन्हें अपने दौर के पढ़े-लिखे व्यक्तियों में शुमार करने के लिए काफ़ी है। ‘सदानीरा’ पर उनकी नज़्मों के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है, लेकिन ‘सदानीरा’ से बतौर अनुवादक उनका संबंध अब कुछ प्राचीन हो चला है। इस विषय में और परिचय के लिए यहाँ देखें : मुमताज़ इक़बाल

प्रस्तुत नज़्में पढ़ते हुए मुश्किल लग रहे शब्दों के अर्थ जानने के लिए यहाँ देखें : शब्दकोश

1 Comments

  1. सुमित त्रिपाठी जुलाई 18, 2023 at 8:52 पूर्वाह्न

    उम्मीद जगाती हुई नज़्में। पढ़ कर अच्छा लगा। शाइर साहेब और सदानीरा को बधाई।

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