कविताएँ ::
निशांत कौशिक

एक
जवाब नहीं मिला
भरोसा जाता रहा
कहने की शक्ति पर
चुप्पियाँ रह गईं
कोई मौक़ा
उनके लिए
माक़ूल न हो सका
हसरतें बुझती रहीं
भंग हुए तिलिस्म
जाते देखना तुम्हें
जैसे स्वप्न में उठती है
ज़ोरदार चीख़
पर नींद की जिल्द
तोड़ नहीं पाती।
दो
आपने जो कहा
उसमें हिंदी बहुत है
कविता कम
विचार में बहुत धार है
धुरी नहीं
जब बोले आप
तब भी प्रासंगिक थी चुप्पी
तीन
होश में कुछ फ़ीसद ठीक हो मामला
तो नशे में अधिक फ़ीसद ठीक होगी बात
नशे में ही संकल्प हो सकते हैं
नशा छोड़ने के
नशा छोड़ने के लिए
होश में आना मना है
चार
रूई का निपट सफ़ेद
दरिया पर बादल का भार
अँधेरा कुतरती चुम्बन की आवाज़
जैसे
एक ही बदन में
टकरा नहीं जातीं
आती-जाती साँस
साँझ में उच्छवास
पाँच
इस ग़ैर-मौसमी बारिश में
धुल निकल आया है
आकाश का कोना
पुतली में फैल रही दिशाएँ
धूप है आँगनों के जल पर
बूँदें टिकी हैं—सूखे नलों पर
रूमाल तह करता हूँ
कुर्ता उतारता हूँ अलगनी से
अभी साँस में
एक सफ़ेद टुकड़ा आसमान है
छह
सुख—जेब में कंघी की तरह
पीड़ाएँ सभी
छूट जाने के सभी दुःख
ज़िंदगी का मलमली सत्व
सानते रहो
जानते रहो
प्राचीन से नवीनतम
संदर्भों से छितरा हुआ सब
रोज़मर्रा की तुच्छताओं पर
मलते रहो
करते रहो
औरों से सुकरात की बातें
गुस्ताव युंग का शैडो
दुहराओ फ्रायड
मार्कस ऑरेलियस
फिर ओडीसियस
सारे सूत्र, सभी मिथक, सब उद्धरण
चीनी, ईरानी, यूनानी फ़लसफ़े
ख़र्च करो बेतकल्लुफ़
गलते हुए आत्म पर
मलो जैसे टिंचर
निरंतर
जहाँ भय है
वहाँ जाओ
माफ़ी माँगो हर एक छींक पर
मायूस होओ
ऊब जाओ
व्यवस्था से छिटको
इसमें ही वापिस आओ
बलराज मेनरा के लिए
रात
जगहों का अर्थ बदल देती है
झड़ता दिखा था
कनेर का फूल
अब
रंगहीनता के अनंत में है
किसी ने करवट ली है
बल्ब बुझा है
अँधेरा पसरता है
बजते हुए
दीवारों पर लिखा
मायने पा लेता है
ऊबते राहगीर के लिए
भय में रात रिसती है
न मैं
न मेरी रोशनी
ख़ौफ़ मेरे
रात के ख़िलाफ़ नहीं हैं
आँखें कुछ नहीं करतीं
पैर ढूँढ़ते हैं
टकरा सकने के लिए
इस्तेमालशुदा कोई चीज़
एक जेब में
रात है
दूसरी में सिगरेट
निशांत कौशिक हिंदी की नई पीढ़ी के सुयोग्य कवि-लेखक-अनुवादक हैं। उनकी कविताओं के प्रकाशन का ‘सदानीरा’ पर यह तीसरा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : क्रांतिकारी होने की हर छलाँग का एक पैर रजाई के अंदर है