कविताएँ ::
शिवदीप

शिवदीप

मैं अक्षवाट जलाना चाहता हूँ

क्या मुझे धीरे-धीरे
पागल हो जाना चाहिए
धीरे-धीरे पत्ता हरे से पीला, भुरभुरा और फिर ग़ायब हो जाता है

धीरे-धीरे एक भूरा प्रेत खा जाता है लोहे को
कितनी जगह चलता है यह लोहा
मेरे दिल से पूछना
जिसमें उतरता है एक बारीक चाक़ू धीरे-धीरे
इसी धरती पर जनम लेकर
एक छोटा-सा बाल
बड़ा होकर आदमी बनता, बनता पत्थर, पत्थर से ईश्वर
अपनी पत्नी का
किसी की प्रेमिका का
कितने सारे मंतर मोहरे बदले जाते, धीरे-धीरे…
एक छोटी-सी लड़की बन जाती आसमान
काग़ज़ के थैले में
एक छोटे छेद से देखती रहती दुनिया, चोरी-चोरी
बाप की जेब में पड़ी चौसर से
आग अपनी राह पर निकल जाती
इस आग में पड़ी है—
द्रौपदी की पुरानी लाश
नई साडी
बासा कृष्ण
मैं अक्षवाट जलाना चाहता हूँ
पर क्या-क्या जलाया जा सकता है एक सिगेरट से?
धीमी चलती ज़िंदगी में
मरने के बारे में भी सोचता हूँ
पर बिजली गिर जाती है
मौत के ऊपर मँडराते कौए पर
बस ऐसे ही गुज़र जाती है ज़िंदगी
धीरे-धीरे इसी जीने की आदत से भर जाता है आदमी
और ऐसे ही ख़त्म हो जाता है
फिर जनम ले लेता है मरने के लिए
मुझे याद है
सुनते ही वह बोली थी :
‘आपको सचमुच पागल हो जाना चाहिए’
हाय! कितने प्यार से बोलती है वह
आदमी पागल भी नहीं हो सकता…
इस धरती पर सब होता है
धीरे-धीरे, चोरी-चोरी
फिर तुम्हें बिछड़ने की क्या जल्दी थी?

बिल्ली-कथा

देर रात एक बिल्ली
मुझ पर छलाँग लगाती है
मैं अपना शरीर झटकता हूँ
और वह मेरे नमक से डर कर दूर जा गिरती है
हल्का-हल्का चलती,
अपने घेरे को मार्क करती
शातिर लगती बिल्ली
मुझे हमेशा लगा है कि मेरी ‘चुप्पी’
उसकी आँखों में चमकते पीलेपन से बनी है
उसकी ‘म्याऊँ’ मेरे चारों तरफ़ रस्सी की तरह बँध जाती
उसके नाख़ून मेरे ख़याल में गहरे चुभ जाते
क्या मेरा ख़याल मोम से बना है?
रस्सी एक पिघलती लार है
जो एक रात के ऊपर लिखी रह गई थी
मुझे परेशान करती है और जकड़ती है

यह बिल्ली कौन है
जो मेरे विचार के ऊपर छलाँग लगाती
उसमे फँसे प्यार की गर्दन पर
पंजा रख देती है
मैं श्रापित आत्मा के साथ
अपने ख़याल में उतर रहा हूँ,
बिल्ली की काली फर पहनकर
इससे पहले के प्यार मेरे हाथों मारा जाए
मुझे अपना रास्ता काटना है
तुम नहीं जानतीं
यह काली बिल्ली मैं ही हूँ!

अनावृत आकाश

क्या मानसून में मौत
गीले पाँव घर लौटती है?
पता नहीं
लेकिन किसी भी मौसम में
मरने के बजाय, मौत के बारे में सोचना
ज्यादा भयंकर होता है
जैसे कि प्रेम करना,
प्रेम के विचार से बिल्कुल विपरीत है
कभी-कभी लगता है
कि आकाश भी अनावृत मूर्ति है
जिसके स्तनो में दूध पानी हो रहा हो
और
बादल उसके गीले फटे वस्त्र हैं
जैसे पृथ्वी उसके बारे में सोचती है
मैं भी सोचता हूँ
कि वह पृथ्वी को देखते हुए क्या सोचता है
हरा? लाल? या फिर नीला ही
क्या हम तीनों एक दूसरे के बारे में सोचते भी हैं
अगर हाँ, तो क्यों
अगर नहीं, तो क्यों नहीं
मैं घंटों आसमान की तरफ़ मुँह उठा कर बैठा रहता हूँ
उसका घाव देखता हूँ
घाव के ऊपर भिनभिनाती मक्खियाँ भी
और महसूस करता हूँ कि
नीला हो जाने से ज़्यादा दुखदायी है
नीले के बारे में सोचना।

प्रेम एक लक्कड़ खाने वाला कीड़ा है

उसने कहा :
अगर और कुछ नहीं
तो भी
प्रेम एक लक्कड़ खाने वाला कीड़ा तो है ही
आओ
इसे अपनी देह में जगह दें।

उस दिन मैंने जाना
कि कभी-कभी दो देहों में
कुछ भी देह नहीं होता
इस कीड़े के किए सुराख़ में प्रकाश इतना तेज़ था
कि प्रेम करना तो दूर,
मैं ‘प्रेम’ बोल भी नहीं पाया।

शिवदीप पंजाबी और हिंदी में कविताएँ लिखते हैं। उनकी कविताएँ इस प्रस्तुति से पूर्व भी ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित हो चुकी हैं : सुख सिर्फ़ अनलिखे में होता है

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *