कविताएँ ::
प्रदीप अवस्थी

महत्त्वपूर्ण
उसके होने मात्र से
बहुत से ख़तरे थे
इसलिए नहीं था
वह महत्त्वपूर्ण
जब वह गया
अपने साथ
अपने होने के
सारे ख़तरे ले गया
अब वह महत्त्वपूर्ण है।
और कितने दिन यूँ ही बीत जाएँगे
आज जाने क्यों मन भरा-भरा-सा है
कमबख़्त रुलाई ही फूट पड़े
यह जो यातनाओं का भार लिए फिर रहा हूँ
यहाँ-वहाँ ठोकरें खाकर गिर रहा हूँ
कोई तो जतन हो कि यह रिसे
पिता का चेहरा बहुत ध्यान करने पर
बादलों में से छँटता है
पर उनकी उँगलियों की छवि का
कोई दृश्य
आँखों में नहीं बनता
माँ की याद में भी वह तीव्रता नहीं
कि दौड़ पडूँ और घर पहुँचकर लिपट जाऊँ
हिम्मत नहीं होती हर छह महीने बाद घर लौटने पर
थोड़े और बूढ़े हो चुके चेहरे की झुर्रियाँ पढ़ूँ
और चार दिन बाद गर्दन पीछे कर टाटा करता हुआ
उसी बीस साल पुरानी चौखट पर उसे खड़ा छोड़ आऊँ
कोई भी तो कारण नहीं
अवसाद के दिन भी गुज़र चुके
और पहले प्रेम के भी
कुछ बात भी नहीं ऐसी
जो किसी से बाँटकर मन हल्का किया जाए
शाम की ताज़ी हवा में भी कोई उपचार नहीं
न ही पार्क में खेलते नन्हे बच्चों की मुस्कुराहट में
क्या एक और दिन यूँ ही बीत जाएगा
और कितने दिन यूँ ही बीत जाएँगे
मैं रात में कब ठीक समय पर सो पाऊँगा!
हमारी स्त्रियाँ हमें लौटा दो
हमने घर बनाए
उनकी चौखटों से बाँध दिया स्त्रियों को
घर की नींव में गाड़ दिया
उनकी खनक को गहरे
बुनियाद उतनी पक्की
जितनी भीषण उनकी चुप्पी
उनके लिए पैदा किए बच्चे
हवादार रोशनदान वाली रसोइयाँ
कर दीं उनके नाम
घर आबाद रहे इसके लिए
साँसें बचाए रख
बाक़ी सब मार दिया उनका
पीढ़ियाँ यूँ बीतीं
आटे में कब घुला आँसुओं का नमक
गले का पानी कब सूख गया
बच्चे कहते इतनी चिड़चिड़ी क्यों है माँ!
ख़त लिखते थे पिता
लिखते रहे
माँ ने छोड़ा लिखना
ख़त आख़िरकार
जब स्त्रियाँ छोड़ देती हैं
लिखना ख़त
तब लौट आते पुरुष
कि ध्यान नहीं दे पाया
ध्यान जबकि वे दे ही रहे थे
कि भूख का और कोई इलाज नहीं
और जैसे वे कहते हैं
घर के आँगन में अंकुरित नहीं होंगे रुपए
अमरूद की तरह तोड़कर नहीं खाए जा सकेंगे सिक्के
पर हाय! स्त्री का पत्थर हो जाना
जो जा सकती है चली जाती है कहीं और
जो नहीं जा सकती वह पागल हो जाती है
बच्चे कराते इलाज
तोड़ क्यों नहीं देते इन घरों को
ये दुश्मन हैं हमारी स्त्रियों के
हमारे पेट की भूख हमें वापस दे दो
और निकाल लो हमारी आँखों से सपने
हाथ डालकर
हमारी स्त्रियाँ हमें लौटा दो।
लेट्स फ़क
मेरे सिर में लोहे के तार
तारों में करंट
तुम कौन?
मेरे दोस्त?
कितना जानते हो मेरे बारे में?
माफ़ करना मैं भी तो नहीं जानता
सब सबको जानते हैं
कोई किसी को नहीं जानता
उसके होंठों में मेरे होंठ
मेरे होंठों में किसी और के होंठ
उसके होंठों में किसी और के होंठ
सबके जूठे होंठ
सबके झूठे होंठ
लिसड़ते-घिसड़ते होंठ
तुम्हारी लिपस्टिक में ज़हर
मेरी नीयत में ज़हर
मेरा सिर तुम्हारे स्तनों में
मेरा सिर उसके स्तनों में
उसके स्तनों में अब किसका सिर
मेरी आँख तुम्हारा शरीर
तुम्हें घिन आती मुझसे
मेरी आँखें उसका शरीर
वह इठलाती लजाती अदाएँ दिखाती
वह कितनी आसान
कौन किसकी बाँहों में
कब तक क्या पता
चलो अब थक गए
दिमाग़ थक गए
शरीर थक गए
मज़ा नहीं आ रहा
बदल लें अब?
लेकिन पीड़ा सारी असली है
जीतो
हारो
वासना खींच रही है
कपड़े उतारो
मैं तो अलग शहर में
फिर शरीर के लिए कैसे
तुम्हारी टाँगें मेरी टाँगों में
मेरे मन में प्यार
मेरे मन में संशय
तुम्हारे मन में संशय
वह तो सबसे प्यारी बच्ची
वह भी बड़ी हो जाएगी अब
मेरे उदास चेहरे की चमड़ी में गुँथा तुम्हारा नाम
मेरे शरीर की हड्डियों में घुसी हुई नफ़रत तुम्हारे लिए
तुम्हारा सीना मेरी पनाहगाह
मैं तुम्हारा बच्चा
तुम मेरी माँ
घर से निकाल दिया घर बनाकर
लाइन लगी है
किसकी बारी है
ओह!
तुम्हें दिलचस्पी है मुझमें
लेट्स फ़क
प्यार?
हाँ प्यार…
हम्म प्यार…
प्यार ही तो…
हाँ हाँ करता हूँ ना…
तुम भी करना।
अद्भुत, वाह सर, क्या बात है, मज़ा आ गया
एक दिन मैंने माँ से कहा
अब चिंता मत कर
मैं जल्द ही बड़े लोगों से दोस्ती करूँगा
उनके बीच दिखूँगा बार-बार लगातार
शराब पीते हुए दो चार अश्लील ठुमके भी लगाऊँगा
जहाँ महफ़िलों में ख़ूब बरसती होंगी माँ-बहन की गालियाँ
वहाँ भी जाऊँगा
परहेज़ नहीं करूँगा वहाँ बैठे रहने से
थोड़ी जी-हुज़ूरी और
“अद्भुत, वाह सर, क्या बात है, मज़ा आ गया”
करने से ऐसा भी क्या छिल जाएगा मेरे भीतर
एक-दो गालियाँ भी दे ही दूँगा बड़े और चर्चित लोगों को
घटियापन की अथाह गहराइयों में उतरती हुई
रोज़ एक नई सनसनी फैलाऊँगा
प्यार सिर्फ़ करने के लिए नहीं
दिखाने के लिए भी करूँगा दो-चार बार
यही ईंधन है
जो मुझे डालना होगा जीवन की रेलगाड़ी में
एक भीड़ से बचकर भागने पर
दूसरी भीड़ से टकराना
अब लौटना नहीं भिड़ जाना
ज़्यादा नहीं बस
किसी एक गुट का हिस्सा हो जाना
माँ ख़ुश हुई
मैं नहीं कर पाई जो जीवन भर
मेरा बेटा करेगा
चालाक बनेगा
एक-दो को छलेगा
पिता बचे नहीं थे ख़ुश होने के लिए
और किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता था समूचे संसार में।
अनुपस्थिति
यदि मेरी अनुपस्थिति
तुम्हें नहीं खली
तो ठीक ही हुआ
मैं अनुपस्थित रहा तुम्हारे जीवन में
यदि उस अनुपस्थिति की टीस में
इतना ज़ोर नहीं
कि मुझ तक पहुँच सकने वाली
आवाज़ लगा ली जाती
तो इन कमज़ोर आवाज़ों और स्पष्ट भटकावों के साथ
भविष्य पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश बेमानी थी
मान लिया
किसी भट्टी-सा तपता था तुम्हारा मन
दुविधाएँ खेल खेलती थीं मस्तिष्क में
एक वेदना थी भीतर जो चीख़ने को मुँह खोलती थी
झुलस जाती थी ज़बान
और सच कहना असंभव होता जा रहा था
मान लिया कुछ भी नहीं बचा था
सिवा क्रोध और खीझ के
ऐसे में अब मैं
सहानुभूति और हताशा और अलविदा जैसे शब्दों पर
ज़िम्मेदारी डालकर कहीं छुप जाना चाहता हूँ
धुंध में डूबे इस शहर में
मोह मुझे नहीं खींचता अब
उपेक्षा एक आदत में बदल चुकी है
और मैं कुचला जा चुका हूँ।
और मुझे लगता रहा कि
वे लगातार खोज रहे हैं नए-नए शब्द
दुनिया भर के शब्दकोशों से
बड़ी मेहनत से रच रहे हैं
नित नए और मुश्किल वाक्य
वे जन्म दे रहे हैं नए मुहावरों को
दिनोंदिन होती जा रही हैं
उनकी कविताएँ और जटिल
वे जटिलता बचाने
और सबसे महान् कवि कहलाने की
होड़ में हैं शायद
और मुझे लगता रहा कि
इंसानियत भी बचाई जा सकती है
कविताएँ लिखकर
एक बार एक बड़े कवि ने मुझसे कहा
कि जो बातें हम किसी से कहना चाहते हैं
और कह नहीं पाते
वे बातें करने का ज़रिया है कविता
और इस तरह मैंने अपने क़रीबियों से कीं
बहुत सारी बातें
शब्दों और वाक्यों को रचने की
अय्यारी भर कविता बची है बस
उनकी एक बात दिल तक नहीं पहुँचती
कहीं कोई टीस नहीं उठती
उनके लिखे से कहीं कोई ज़ख़्म फिर नहीं दुखता
और वे इस समय के लोकप्रिय कवि हैं।
क़र्ज़
उन दिनों के बाद
आँसुओं ने छोड़ दिया होगा
तुम्हारा साथ
मैं ले आया था सारे
सब मेरे होने से थे
तुम्हारे पास
क़िस्तों में चुकाता हूँ क़र्ज़!
अवसाद
मैं सच कहता हूँ। मैं थक गया था। शर्मिंदगी का अश्लील होते जाना इतना घटा कि मैं ग़ायब हो जाना चाहता था, पर ऐसा तो कितने लोगों ने चाहा होगा कितनी बार। मैं जितनी बार भी भागा जिस भी जगह से, दूर भागने के लिए, फिर उसी की शरण में पहुँचा। जैसे यहाँ लौटा। यहाँ की कोई परिभाषा नहीं। थकते और ऊबते चले जाने के बाद क्या रास्ता बचता है! यही बस कि अब यूँ ही चलना है। पागलपन की भी हद होती तो होगी कोई। अकेलेपन की भी। इस हद के लेकिन जितनी पास पहुँचना चाहो कि महसूस किया जा सके इसे, यह सरक कर और दूर छिटक जाती है। इतना वक़्त हुआ एक बार अपनी आवाज़ सुने, सिर्फ़ इसलिए बोलता रहा लगातार ताकि सुन सकूँ ख़ुद को। जैसे दूसरों को पहचानते हैं हम आवाज़ से, क्या ख़ुद को अपनी आवाज़ से पहचान पाएँगे? इसमें शर्म क्या लेकिन? हम कहीं नहीं जा पाएँगे। जाने को कहीं होता ही नहीं। आँखों में कुछ नहीं बचा था। वे सिर्फ़ धुँधली होती जाती थीं। मैं दौड़-दौड़कर उनमें रोशनी भरना चाहता था। उत्साह नाम का भाव मैंने पिछले कई वर्षों से महसूस नहीं किया। कमरे घर नहीं होते, मस्तिष्क घर होता है। उदासियों के ये अंधड़ जो बिना दरवाज़ा खटखटाए घुसे चले आते हैं, यही दोस्त हैं। हमें आसमान छूना है, पर जो छू चुके उनसे पूछो। वे हँसेंगे। क्या तमाशा है—जब आपको कुछ हासिल भी करना होता है और ऐसा करते हुए ख़ुद पर हँसना भी होता है। मैं अपने दिमाग़ को निकालकर बाहर एक प्रदर्शनी में रखना चाहता हूँ। जिसका इसमें जो हिस्सा हो, आकर ले जाए। झंझट ख़त्म हो। यह रोज़-रोज़ का लेन-देन ख़त्म हो। हासिल क्या? जब आग ख़त्म हो जाए तो राख से सेंको हाथ। हमें दुश्मन की ज़रूरत नहीं। मैं जिस दीवार के सहारे खड़ा होता हूँ, वह दीवार मुझ पर गिर जाती है। भविष्य देखते-देखते अतीत में बदल जाता है। चाँदनी रात अब कम चाँदनी थी, अमावस्या अधिक अमावस्या।
प्रदीप अवस्थी की कविताओं के प्रकाशन का ‘सदानीरा’ पर यह तीसरा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : जब मुझे असभ्य हो जाना चाहिए था | यूँ ही सहने लायक़ बना जीवन