कविताएँ ::
प्रदीप अवस्थी

प्रदीप अवस्थी

सुनना

किसी को सुनना
उसे अपने जीवन में शामिल करना है

बस बोलते जाना
दूसरों को अपने जीवन में शामिल करने की
इच्छा रखना है
बिना उनके जीवन में शामिल हुए।

शोर

कोई सो रहा हो
तो उसके आस-पास से दबे पाँव निकलो
नहीं करो ज़रा-सा भी शोर
क्या पता
जो जीवन वह जी रहा है
उसके कारण
कौन-सी यातना
वह अपनी नींद में भोग रहा हो।

हम रोते थोड़ी हैं पागल

हमारे हिस्से आईं जो उदासियाँ
गले तक भर आए जो दुख के घड़े
जला गया आँखों को जो गरम पानी
और जो कहानियाँ बनाईं अपने दिमाग़ में
जिनमें हम सबसे उत्पीड़ित किरदार
तुम्हें बाँहों में भरते ही गलेगा सब

हम रोते थोड़ी हैं पागल
ये तो बस तस्वीरें अय्यारी करती हैं।

एक दुश्मन है मेरा जो मुझमें बैठा है

घर से निकलना चाहिए दिन में
एक बार तो कम से कम कहते सब
जाना कहाँ चाहिए कोई नहीं बताता
किसके साथ

फटी जेब को सिलने का
कोई नुस्ख़ा काम नहीं आता

अकेले कमरे में इंतज़ार करता है वह जो है
लेकिन उसकी उपस्थिति के बारे में
बात नहीं की जा सकती
बताने चलो किसी को तो समझाना पड़ता
समझाने चलो तो क्या?
सब तो सही है

एक दुश्मन है मेरा जो मुझमें बैठा है

मैं जो कह रहा हूँ
आपको वही समझना चाहिए
जबकि यह शुरुआत है
मेरे झूठ बोलने की

किसी दवा या डॉक्टर के बस की बात नहीं
इस सिर के दुखने का इलाज
अंदर बैठकर
नसों को तोड़ता-मरोड़ता रहता है कोई
कभी-कभी ही छुट्टी लेता है कमबख़्त

अब तक मैंने किसी स्त्री के बारे में बात नहीं की
क्योंकि उजाले से जोड़ा जाना चाहिए उन्हें

कुछ रहस्य हमें बचाकर रखने चाहिए
वे हमें दो हिस्सों में चीरें रोज़
थोड़ा-थोड़ा भले ही

हम बिना तकलीफ़ के रोएँ
जैसे बिना किसी बात के ख़ुश रहते हैं लोग

समय बीत जाने के बाद खोलेगा
अपने राज़ स्वयं।

जब मुझे असभ्य हो जाना चाहिए था

ऐसा कहा जाता था
कि बर्दाश्त की भी हद होती है
मैंने इस विचार को कई बार शिकस्त दी

मैंने प्यार किया इतना
कि आत्महत्या शीर्षक से
एक कहानी लिखकर रखी अपने पास
जब भी ज़्यादा दुखी दिमाग़ की एक नस
उस कहानी में जाकर साँसें लीं

जब धैर्य इतना कम था मुझमें
कि ठीक से सेंक नहीं पाता था दो ब्रेड
कि करारी हो जाएँ
जला देता था
ऐसे में रोक दिया गया मुझे
प्यार करने से

कुछ क़रीबी लोगों से
मैं बोल-बोलकर थक गया
कि कुछ चीज़ें हैं
जिनसे मुझे तकलीफ़ होती है
और जिन्हें करते रहने से
उन्हें भी कोई लाभ नहीं
लेकिन उन्होंने तवज्जोह नहीं दी

बहुत सारे ऐसे मौक़े आए
जब मुझे असभ्य हो जाना चाहिए था
बोलने के सारे सभ्य तरीक़े
मेरे पास ख़त्म हो चुके थे
इसलिए मैंने चुप्पी साध ली
फिर यह चुप्पी भी साली मुझे सालने लगी

शालीन लोगों की यह शालीन दुनिया
अश्लील नियमों से चलती थी

मैं ही जानता था
कितनी तड़प थी मेरे अंदर
शालीनताओं के इस खेल से बाहर आने की
और कितनी थी सहानुभूति हत्यारों के प्रति।

वह पीड़ा अस्वीकार की

जहाँ स्वागत नहीं
वहाँ क्यों जाते हो बार-बार
वह पीड़ा अस्वीकार की
और उसका विष!

नियति ने खींची हैं जो रेखाएँ
उनके इस पार ही है तुम्हारा संसार
पृथ्वी बँट गई है दो हिस्सों में
और दरारों को लाँघना
उनके बीच पिसते रहना है

तुम नहीं पहचानते
अनिश्चितताओं में खोना याददाश्त
सुख में होना जैसे भ्रम
दुख में उबलना।

छुओगे तो पछताओगे

तुम दरअसल जहाँ-जहाँ
अपनी ख़ुशी ढूँढ़ने निकलते हो
वहाँ से होकर लौटा हूँ कई दफ़े
चुन लाया हूँ दुख के कोहिनूर

एक व्यक्ति कैसे चुप होता चला जाता है
यह शोध का विषय है
इस शोध में लेकिन किसी की दिलचस्पी नहीं

अब यह अर्थहीन उदासी के जानलेवा पंजे
गुम दिनों और नाउम्मीदियों के शिकंजे
मेरी उपलब्धियाँ हैं

अपनी इस छिन्न-भिन्न याददाश्त के साथ
मैं आत्मसमर्पण करता हूँ
मैं फँस गया हूँ
मुझे निकाल लो यहाँ से

ऊपर से भीगी राख के
बहुत अंदर कहीं छूट गया हो जैसे
दबा हुआ एक अनदेखा अंगारा
बुझे हुए ढेर में
अपने जलने को बचाता हुआ

तुम कभी आओ और देखो
छुओ नहीं
मैं दर्द का पुलिंदा हूँ
छुओगे तो पछताओगे।

अतिक्रमण

कहीं हम
अतिक्रमण न कर दें
ऐसी किसी सीमा का
जो किसी ने बनाई हो
हमारे लिए
अपने मन में

कि देखो
हमसे इतनी दूरी पर
यह रेखा है
इसे पार मत करना
इस जगह प्रवेश मत करना

हमारे डरों से उपजती थीं
हमारी चुप्पियाँ।

टालने से ठीक नहीं होती बीमारियाँ

बीमारी से कैसे मरते हैं लोग
यह जाना बीते कुछ वर्षों में
टालता रहा जब अपना इलाज
छुपाता रहा घर से कि
नहीं! नहीं! सब ठीक है
ख़ुद को देता रहा दिलासा कि हाँ
जाऊँगा अब अस्पताल ही डॉक्टर को दिखाने

टालने से ठीक नहीं होती बीमारियाँ
बड़ी होकर सामने आती हैं
यूँ भी मरते हैं दुनिया भर में लोग

कौन जाने क्यों ही कोई इंतज़ार करता है
कि एक दिन आएगा
जब वह सब ठीक कर लेगा
उसके बस में होगा सब
वह सुबह समय से उठेगा
और ठीक समय पर सोएगा रात में
एक दिन वह ठीक से समझ जाएगा—
‘ठीक’ की परिभाषा

आलसी मत कह दो किसी को यूँ ही
यदि वह जुटा नहीं पा रहा ताक़त
बिस्तर से उठ भर पाने की
उसके शरीर में यक़ीनन कहीं कोई विकलांगता नहीं
आप दिमाग़ का नहीं सोचते लेकिन

उदास को अकेले छोड़ना ही पड़ेगा
पर उसे कोई दो ऐसा
जो मिलता रहे कभी-कभी
चिड़चिड़े को मत कह दो चिड़चिड़ा
किसी के सामने मत करो
उसकी कमज़ोरियों का ज़िक्र
हर दुख को निकलते रहने दो आँखों से

जो रोना चाहे वह रो पाए चोट लगने पर
यह नेमत न छीनी जाए किसी से

तीन वक़्त का खाना
और शांत सुंदर नींद रोज़
इससे बड़ी कोई ज़रूरत नहीं
इनसान के ठीक-ठाक जीने के लिए
खाने में रोटी
और तरह-तरह की सब्ज़ियाँ
और दालें ज़रूर हों
यह बात अनुभव से कहता हूँ

दुख में भले कोई साथ न हो
सुख में हो।

एक भरम अच्छा जिया

मेरे होंठों को छीलकर
उन्होंने बनाई अपनी हँसी
चूमकर चूरा-चूरा किया हर बार
मोहब्बत को

मैं हँसता था जब उनके साथ
मेरे कितने हिस्से थे जो रोते थे
ठीक उसी समय
उनके ही सामने

इतने क़रीबी लोगों में
नहीं होनी चाहिए थीं इतनी दूरियाँ
कि एक आसमान की ओर देखकर
उड़ने की बात करे
और दूसरा कुदाल ढूँढ़ रहा हो
कि गड्ढा करे एक गहरा
उसमें जाकर लेट जाए
और मिट्टी डालने लगे अपने ऊपर
पूरी शर्मिंदगी से

ग़लतफ़हमियों का काम है
कि वे क़त्ल करती रहें रोज़
वर्षों तक

भविष्य के अँधेरों से अनजान
वे सब जो प्यार में थे उन्होंने
एक भरम अच्छा जिया।

और कोई रास्ता सुझाएँ

अचानक ख़याल आया
मैं बाहर था जब कहीं
वे मुझे समझा रहे थे
कि यह मौक़ा है,
पैसे अच्छे मिलेंगे
कुछ नहीं सूझा,
मैं दौड़ता हुआ घर आया और
अलमारी से निकालकर तोड़ दिया
तीन साल से सँभालकर रखा फ़ोटो-फ़्रेम
कोई दुख नहीं हुआ,
न कोई शांति मिली

बात प्रेम, प्रतिशोध या नफ़रत की नहीं थी
बस उस चीज़ के
वहाँ रहने का महत्त्व ख़त्म हो गया था

हमारी उदासी इतनी लंबी चली
कि कई घरों में बच्चे पैदा होकर
हँसना और बोलना सीख गए
और हम कोशिश में रहे कि
खिलखिलाएँगे एक दिन

मुस्कुराना सिर्फ़ फ़ेसबुक और व्हाट्सएप की
स्माइली तक सीमित रह गया था

कितना कुछ छुपाकर जीना था उनसे
जिन्हें सब कुछ बताना था
रोज़ उन तक जाना
और चुपचाप लौट आना था
दीपिका पादुकोण की माँ समझदार है,
पर वे कितनों को बचा पाए
कोई आता था,
रसोई से रोटियाँ चुरा ले जाता था
माँ बनाती थी जब
माँ को लगता था

मैंने खिड़की से छुपकर जोड़े हाथ
माँ को देखते हुए कि चुप कर माँ
देख कितने लोग हैं आस-पास
लेकिन वह एक बीमारी की गिरफ़्त में थी
और हमें तब कहाँ पता था कुछ

मैंने सड़कों पर गिराए उसके लिए आँसू
लेकिन अनिच्छा और पछतावों के पार जाकर
कोई अपने कंधों पर लदा बोझ उतार रहा था

मैंने ख़ुद से कहा कितनी बार
कि मेरे बस का नहीं

अब एक थका हुआ दिमाग़ है
इसलिए मैं बात करते-करते
कहीं भटक गया हूँ,
क्षमा करें!

दुःख बाँटना मुझे असहाय बनाता है
और कोई रास्ता सुझाएँ।

फिर सब ख़ुश हैं

चुप रहो
बोलने से दिल दुखते हैं

लिखो मत
लिखने से सवाल उठते हैं

घुटते रहो
फिर सब ख़ुश हैं

उनकी व्यस्तता में छुपा है
हमारा अकेलापन

उनके अकेलेपन में
उनकी खीझ

भटक लो जितना चाहे
लौटना पड़ेगा ही

सँभालो
सँभालने के अलावा और कोई रास्ता नहीं।

विलासिता

यह भावुक होने का समय नहीं
जब भावुकता भी विलासिता है

दो पत्थर उठाने हैं
और रगड़ते रहना है
जब तक
पैदा न हो आग।

सच

और उन आख़िरी दिनों की याद में

मैंने कहा लड़ो
सच के लिए
हारो नहीं

वह लड़ी
सच के लिए
हारी नहीं

मैं उसका सच नहीं था।

यह उस रात की कहानी है

एक

सारे रास्ते मेरे दरवाज़े पर आकर
बंद होते थे
मेरे दरवाज़े से कोई रास्ता
बाहर नहीं निकलता था
मतिभ्रमों का मायाजाल था
और
मैं था

दो

इतना आराम है यहाँ
कहीं पहुँचने की कोई होड़ नहीं
जी लिया जैसा भी जिया

मैंने जीवन नहीं
जीवन का स्थगन जिया

तीन

एक बार रात बारह बजे के आस-पास
मैं अपने एक दोस्त के घर से
दूसरे दोस्त के घर तक
जाने वाली सड़क के चक्कर काटता रहा
असहाय क्षणों में सड़कें ही मेरा सहारा बनीं

चार

इतनी शुभकामनाएँ भेजी लोगों ने
माँ ने दिया आशीर्वाद
ख़ुश रहने का हर बार
असर नहीं किसी का

पाँच

मैं जीतता तो वे दयनीय
मैं हारता तो वे दुश्मन
मुझे चैन चाहिए।

छह

यह एक समर्थ जीवन हो सकता था
नहीं हुआ
मुझे हम सबसे सहानुभूति है
और प्यार की कोई इच्छा नहीं

सात

हम कितने खेतों में आग लगाएँ
कितने सपनों की फ़सल जलाएँ
कितना काला धुआँ फैलाएँ
इश्क़ के आसमान में
अब मैं ख़ुद को तैयार करता हूँ
एक नए शाप के लिए

आठ

अनंत और अचिह्नित दरारों से भरा हुआ
अदृश्य दीवारों से टकराकर लौटते हुए
ख़ुद को चोटिल करता
हज़ारों किलो लोहे का भार ढोए
दर्द में अंदर-अंदर भिंचता, सिकुड़ता
और लगातार हारता
भयावह डरों का इलाज ढूँढ़ता
पृथ्वी के सबसे गहरे समुंदर के
तल में जाकर बैठ गया
मेरा दिमाग़

करोड़ों तार भीतर उलझ गए हों
इतनी उलझन थी

नौ

लेकिन मैं कूदा नहीं
खिड़की के बजाय दरवाज़ा चुना
एक बार फिर

यह उस रात की कहानी है
जब मैं चौथी मंज़िल की बालकनी पर
टहलता रहा बहुत देर
और यह सच था
कि मुझे उकसाया गया था बहुत

दस

सुबह वे लोग आए
पूछते रहे कैसे हो

मैं चुप मुस्कुराता रहा

ग्यारह

डर बचे रहे
हर संभावित त्रासदी के
संभावना बची रही
सुंदरताओं के फैलने की
जीवन बचा रहा
जब तक जिस्म में फँसे
मशीनों की तरह चलते उपकरण
साँस लेते रहे।

इनसोम्निया

एक

किसी-किसी रात बारूद फटता था मेरे गले में
और कोई चारा नहीं होता था मेरे पास
गुज़र जाने देना होता था बस
जैसे गुज़र जाने देना होता है कितना कुछ
जो बस में नहीं होता

दो

एक ट्रक कानों के परदे
रौंदता हुआ निकलता था
ओपेरा गाती थी एक लड़की
और छाती में ख़ून को
सुचारू रूप से चलाने वाले पम्प को
तेज़ी से चलाने लगती थी

आवाज़ों की दुनिया थी
मरकर ही उनसे बचा जा सकता था

तीन

रात को रात कहना
अँधेरे को कहना अँधेरा
दिमाग़ को
दिन के सबसे व्यस्त समय का चौराहा
दिल को
चींटी के रेंगने की आहट से
धम-धम बजता दरवाज़ा

कोई विकार नहीं यहाँ
ख़ालिस यातना है

चार

रात भर अँधेरे को
चूरा-चूरा पीसकर
आँखों में घोलता हूँ
अलस्सुबह फैलता उजाला
आँखों में उतरकर
पलकों को सिल देता है

यह भविष्य में उतरने की तैयारी है

पाँच

रात माथे से ख़ून बहा
और सपने की शक्ल में आया
काश किसी ने चूमा होता
सोने से पहले

छह

यह कोई पहली रात तो नहीं ऐसी
जब बीत चुकी सड़क पर
उल्टा चलने लगता हूँ
करवटों के साथ उगता है उजाला
संपूर्ण धँसा जिस्म
और एक हथेली नज़र आती बस
मदद माँगती

लेकिन क्यों लगता जैसे
यह आख़िरी है!

सात

गले में जलती थी नींद
भीषण आग लगी रहती थी रातों में
पलकों पे पत्थर बँधते थे
खिड़की से गुज़रती आवाज़ें
इन पत्थरों को कुचला करतीं।

समय

हम सबके पास
कीचड़ बहुत था उछालने के लिए
और किसी का
बहता ख़ून पोंछने के लिए
रूमाल तक नहीं।

याद

रात भर एक अजगर की तरह
कोई कसता रहा
गर्दन की हड्डियाँ
उठा सुबह
तो याद थी तुम्हारी।

हम उजाले चुनेंगे

शब्दों की अनुपस्थिति से बने हुए पुल
जितनी जल्दी टूट पाएँ अच्छा वरना
कायरता होगी रास्ते जुदा कर लेना

एक ग़ुस्सैल परजीवी
दिमाग़ में रेंगता हुआ चबाता जाएगा नसें
और हम ढूँढ़ते रह जाएँगे
साल तीन-चार गुज़रे हुए

मुमकिन होगा जब संवाद
जब होंगे एक-दूसरे के
बचा होगा जब सब
हम बनाएँगे बातों का एक घर
रोककर रखेंगे ग़लतफ़हमियों के सैलाब को

खारा किनारों पर छोड़ देंगे सारा
जब छुएँगे तो महसूस भी करेंगे

हम उजाले चुनेंगे।

यह बहुत दुखदायी होगा

उनको थोड़ी-सी देर तक
थोड़ा-सा और
हँस लेने दो न
थोड़ा-सा तो उड़ लेने दो साथ
कि फिर तो गिरना ही है
यह बहुत दुखदायी होगा
कि बच्चों से छीनी जाएगी माँ
बच्चियों से छीने जाएँगे पिता

मैंने ऐसे ही देखा है
ऐसे ही देख पाया हूँ
प्रेमियों को।


प्रदीप अवस्थी (जन्म : 1986) नई पीढ़ी के कवि-उपन्यासकार हैं। ‘मृत्यु और हँसी’ शीर्षक से उनका एक उपन्यास गत वर्ष राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। यहाँ प्रस्तुत उनकी कविताएँ एक प्रदीर्घ प्रतीक्षा का प्रतिफल हैं। वह ‘सदानीरा’ के शुरुआती साथी-रचनाकार रहे हैं और उन्हें देखने का अभ्यास यहाँ एक विचित्र बात कहने के लिए विवश कर रहा है—वह यह कि प्रदीप अवस्थी को एक कवि के रूप में हिंदी साहित्य का सीमित संसार भूल जाए; इसके पर्याप्त प्रयत्न उन्होंने किए हैं, पर इस बीच ही उन्होंने एक बहुत संजीदा और संवेदनयुक्त कवि के रूप में ख़ुद को तैयार किया है; यहाँ प्रस्तुत कविताएँ इसे प्रमाणित करती हैं और इसे भी कि एक कवि की धातु और उसकी वास्तविकता क्या है। कवि से awasthi.onlyme@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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