कविताएँ ::
प्रदीप अवस्थी

प्रदीप अवस्थी

ऐसा करने में असमर्थ

वह सफलता
जो विनम्र बना देती है लोगों को
और थोड़ा आसान भी
वह आई ही नहीं कभी जीवन में

कटु होना स्वभाव के विपरीत रहा हमेशा

मैं उन्हें गालियाँ देना चाहता था
लेकिन ऐसा करने में असमर्थ
क्या करता
मैंने लोगों से मिलना ही छोड़ दिया

यूँ ही
सहने लायक़ बना जीवन

हथेली में काँच है

अपनी ठंडी हथेलियाँ मेरे माथे पर मल दो
मेरी दिशाहीनता को उम्र भर लंबी सुंदर सड़क मिले

इस अँगीठी से बाहर निकालो मेरे सिर को
उन्हें सिखाओ कुछ तो तौर-तरीक़े

इतने साल लगे, एक-एक सरिया निकाला दिमाग़ से
उनका पूरा गट्ठर फिर लेकर क्यों दौड़ पड़े हो मेरे पीछे

वे बच्चे मर गए जिनकी मैंने कल्पना की थी
आज भी दुखती है मेरी कोख
तुम्हें इस पर लाठियाँ बरसाने में क्या मज़ा आता है

कितने प्यारे लोग हैं वे सब
मेरी सूखी हुई नसों को क्यों बजाते हैं फिर

युद्ध क्यों नहीं होने चाहिए, मैं इस पर कविताएँ लिखना चाहता था
तुम एक लड़की को उसके स्वप्न में घुसकर दुःख देने लगे लेकिन

जो फूल हम मिलकर लगाना चाहते हैं अपने बाग़ीचे में
तुम एक बाघिन बनकर उन्हें कुचलने चली आईं

भला क्यों बनाना चाहते हो मुझे जानवर
जब मैं भूल जाना चाहता हूँ

हथेली में काँच है और मैं मुट्ठी भींचना चाहता हूँ
और यह भी कि दर्द न हो

किसी को न दे इतना प्यार

इतना कच्चा था मेरा घर
इतनी झीनी थी मेरी संवेदनाओं की सरहदें
इतनी कोमल और लहूलुहान
कि चोटिल होती रहती थीं मेरे भीतर बैठे सज्जनों से

कोई क्यों रखता उनका ख़याल
जब अख़बार पटे पड़े हैं हिंसा से
जब भविष्य की संभावनाओं में कोई ख़ुशी हो सकती थी छुपी हुई
जब वे सब ढूँढ़ रहे थे सहारा
जब अपने अच्छा इंसान होने के दंभ में मैं टूट रहा था भीतर
जब मेरे सामने वे थे संभोगरत
और मैं चाक़ू का इस्तेमाल करना चाहता था

अरे इतने अच्छे लोग!
हे ईश्वर,
किसी को न दे
किसी को न दे इतना प्यार

संभव है

संभव है
किसी एक क्षण में चुभने वाली
गहरी व्यथा का स्रोत मैं जान न पाऊँ
अपने अंदर छिपी मक्कारी को झुठलाने का कोई बहाना मुझे न मिले

एक पश्चाताप में कई वर्ष गँवा देने के बाद लगे
मैं सच्चा ही था
बस
ख़ुद को झुठला कर मिलती थी थोड़ी सांत्वना

संभव है
जब मैं तुम्हारा हाथ थामूँ तो उँगलियाँ किसी और की हों

सवालों के जवाब नहीं होते

उत्सवों ने मुझे और उदास किया
इसलिए मैं उत्सवों से दूर रहा

उन्हें अनिश्चितताओं से नफ़रत है
मैं अनिश्चितताओं में सिर डालकर उनसे लड़ने वाला सहमा सिपाही

सवालों के जवाब नहीं होते
उन्हें यही समझाना चाहता था मैं

माँ ने कितनी बार आवाज लगाई
लेकिन एक साल से ज़्यादा हुआ
उसका चेहरा नहीं देखा मैंने
और इस बात का कोई दु:ख भी नहीं हुआ मुझे

दुख तो वह होता है जो जीने न दे
लेकिन जीता ही रहा मैं

क्या सबसे बड़ी हार तब है
जब दुःख साथ छोड़कर चला जाता है
नहीं! नहीं!
जब दुःख का महसूस होना
साथ छोड़कर चला जाता है

ओ सखी !

मैं पीठ उतारता हूँ
और तुम्हारे होंठों के पास रख आता हूँ

तुम अपने दाहिने पैर का अँगूठा छोड़ जाओ
और अपनी हँसी भी

रह-रह कर घिरता चला आता है एक मौन
उसे ही तोड़ने
ओ सखी !
मैं जीभ पर लिपटा विष झाड़ता हूँ
उलीचता हूँ मन में जमा अहं

आओ!

इतना ही

मैंने अपशब्दों को बचाकर रखा
घुलते जाने दिया उन्हें अपनी नसों में

उन्हें नाराज़गी रहती थी मुझसे
कि गर्मजोशी से नहीं मिलता

भरसक प्रयत्न के बाद भी
मैं हँस ही नहीं पाता था

उनका शोर झेल लेता था मैं
वे मेरी चुप्पी सहन नहीं कर पाते थे

मुझे पुराना कुछ याद नहीं
जो कुछ याद भी है
तो उसका कुछ असर नहीं
नया कुछ आगे दिखता नहीं
दूर-दूर तक

जहाँ मुझे डटकर खड़े रहना था
वहाँ मैं ढह गया
जैसे आरी चलाई हो किसी ने पैरों में

सामाजिक प्राणी होने की कोई भी इच्छा मेरे अंदर नहीं बची

मैं बस इस घड़ी बीतते समय में जीवित हूँ
इतना ही है विस्तार मेरा


प्रदीप अवस्थी की कविताएँ गए कुछ वर्षों में कुछ प्रतिष्ठित प्रकाशन माध्यमों पर देखी गई हैं। वह मुंबई में रहते हैं और सिनेमा से संबद्ध हैं। उनसे awasthi.onlyme@gmail.com पर बात की जा सकती है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 19वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *