कविताएँ ::
राही डूमरचीर

राही डूमरचीर

सरई पेड़ की छाँव हो तुम

एक

बहुत इत्मीनान से
ऊँचे-नीचे पहाड़ी रास्तों पर
चलने वाले, अनुभवी पैरों की तरह
तुम दाख़िल हुईं ज़िंदगी में

चट्टानों के भीतर बहता है
जो दूर तक बिना दिखे
उस पहाड़ी सोते की तरह फूटीं तुम
इत्मीनान से पझराता है जो
हमारी प्यास को सींचने

बरसो-बरस से
गाए जाने वाले गीतों की तरह
जिनमें कोई हड़बड़ी नहीं होती
तुम शामिल हुईं मेरे होने में

तिरियो*1बाँसुरी की लहरियों की तरह
पहुँचीं तुम
जिन्हें पहाड़ों से टकराकर
वापस लौटने की कोई हड़बड़ी नहीं होती
सुरों से सराबोर
वे फैलती हैं
पत्तों के पोर-पोर में
देर तक झूमते हैं पत्ते
हौले-हौले
देर तक झूमता रहा था
मैं भी

दो

हम अपनी-अपनी नदी के किनारे
अपने पहाड़ों को देखते हुए बड़े हुए थे
हम अपनी नदी और
अपने पहाड़ों से
ख़ूब बाते किया करते थे,
पेड़ों के तने से कान लगाकर
पंछियों का सोना सुनते थे हम
उनकी नींद में ख़लल न पड़े
इसलिए कभी-कभी बादलों को डाँटा करते थे

हमारे पहाड़ों की इच्छा से हम मिले हैं—
तुम कहतीं और उस पल
मुस्कुराने लगती थी हमारी नदी
थोड़ा झूमकर बहती,
पहाड़ों से आने वाली हवा भी

तीन

क्या पाओगे मेरे साथ रहकर
पूछ रही थी
आँखों में झाँकते हुए

आँखों में झाँकते हुए ही कहा मैंने—
गाँव मिल जाएगा दरख़्तों से घिरा
चिड़ियों की चहचहाटों से भरा
ख़ूब छायादार पेड़ मिलेगा
जिससे बिछड़ गया था पहाड़ों में
वह नदी मिल जाएगी

तुम साथ रहोगी
तो उन स्मृतियों को पा लूँगा
जिन्होंने वापस नहीं लौटने का
मन बना लिया था

चार

छाँव के लिए जैसे
अकेला सरई पेड़ नहीं होता पर्याप्त
मिलकर ही दे पाते हैं
वे घनी छाँव
वैसे ही अलग-अलग
हम भी नहीं हैं पर्याप्त

चलना होगा साथ-साथ
ताकि जीवन में बचा रहे बहाव
रहना होगा साथ
ताकि सफ़र को मिलती रहे छाँव
हमारे लोगों के वापस लौट आने की
पहाड़ों में बनी रहे आस

गुज़रे कोई भी पास से
उसे मिले भरोसे का इत्मीनान
ढेर सारा नेह
और सफ़र भर की छाँव

पाँच

जाते हुए तुमसे पूछा था—
प्यार करती हो
पर पाना नहीं चाहती मुझे?

नहीं! दावा नहीं करना चाहती
नदी की हरियाली
इस बात की गवाह है
नदी को पहाड़ से ज़्यादा कोई नहीं चाहता
जंगल से ज़्यादा कहाँ ख़ुश दिखती है वह?
मैदानों में मार दी जाती है
या माँ हो जाती है नदी
पर पहाड़ नदी को बाँधता नहीं
जंगल भी दावा नहीं करता कभी

छह

सरई पेड़ों की
छाँव हो तुम
साथ हो तुम

एक-दूसरे के पास नहीं हैं
फिर भी क़रीब हैं हम
लोगों का एक-एक कर
छूटते जाना यहाँ से
जान पा रहे हैं अब

सात

तुम्हें सोचते हुए
जंगल की गोद में लहलहाता
हमारा गाँव याद आने लगता है

तुम्हारे चले जाने के बाद
सब छोड़ते गए साथ
जोगेन के साथ गाँव की पहाड़ी चली गई
सालखन के साथ जंगल
सोनामुनी हाँसदा के साथ नदी
और तुम्हारे साथ चली गई पगडंडियाँ
जब भी कोई गया गाँव से
चला गया साथ में कोई न कोई पेड़

कुछ करंज के पेड़ों के अलावा
अब कोई नहीं पहचानता मुझे यहाँ
एक झरिया बची है सूनी-सी
जो तुमसे मिलने के लिए
साथ में छटपटाती है

आठ

यक़ीन करो कुछ नहीं था मेरे पास
तुम्हारे सिवाय खोने को
तुम्हें खोकर जाना
कितना जानलेवा होता है
गीतों का अकेले होते जाना

नौ

तुमने सिखाया
प्यार करना
साथ ही सिखाया
अफ़सोस नहीं करना भी

तुमने सिखाया था
कड़वा नहीं होना
तुम्हारे जाने के बाद
कड़वा नहीं होना सीख रहा हूँ

पीपल के पत्तों-सा
बिन हवा के डोल रहा हूँ**2‘पीपर पात सरिस मनु डोला’—तुलसीदास

दस

सूखने के बाद भी
नदियाँ नहीं भूलतीं बहना
धरती भी नहीं भूलती
अपने नदियों को सूखने भर से

बहने के लिए, मुड़ जाना
दूसरी दिशा में
बिछड़ना नहीं होता

ग्यारह

तुम बसती हो मुझमें
जैसे पेड़ों के अंदर बसते हैं गीत
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
नदियों के साथ मिलकर
पहाड़ों ने पैदा किया संगीत और
उसे महफ़ूज़ रखा पेड़ों के भीतर
मांदर की ताल
तिरियो की लहरी
नाच का उत्साह
पहाड़ों के प्यार का सांगीतिक अनुवाद है

पेड़ हमें ज़रूरी पोषण ही नहीं देते,
देते हैं गीत और उसे बरतने का
लय-ताल से भरा हुनर भी
जहाँ से पैदा होते हैं
पेड़ों के दिल में गीत
वहीं से पैदा होती है हवा भी,
अनेक सुरों में गाती हुई

बारह

कितनी शिद्दत से
रंग सहेजते हैं हरे पत्ते
तब खिलते हैं
विभिन्न रंगी फूल उनकी डालियों पर

बहार आने से पहले
पगती है
पेड़ और पत्तों की रगों में
घुलते-बनते हैं रंग
असीम धीरज और प्यार से
पहले उनके मन में
कौन जानता है
लाल होने से पहले
वह गुज़रा होगा कितने रंगों के बीच से
कि बैंगनी होने से ठीक पहले
वह कत्थई था या गेरुआ?

प्यार का रंग क्या होता है
हरा या लाल?
पल-पल में आकाशी होते जज़्बात
कितनी पहाड़ियों-नदियों से
पाते हैं नमी, जिनसे वे
ज़िंदगी के फ़लक को
रँगते हैं इंद्रधनुषी रंगों में

हरे पत्तों को देखते हुए
रंगों के बारे में सोचना
प्यार के बारे में सोचना है

तेरह

आख़िर में उसके ख़त का आख़िरी हिस्सा

पेड़ों के ख़िलाफ़ होते जा रहे
हमारे यहाँ के हालातों में, चाहते हुए भी
तुम कोई पेड़ नहीं लगा पाओ शायद
पर जब कोई पेड़ कटे
रो लेना बच रहे पेड़ों के साथ मिलकर
दुःख बाँटना सीखना मेरे बाद
जैसे संग-संग ख़ुशियाँ बाँटी हमने

हर छोटी बात बताने
तुम दौड़ जाते थे बाँसलोई की तरफ़
उसे पहले से ख़बर होती थी
पर तुम्हें उसे बताना ही होता था
कि इस बार केंदू मीठा है या कस्सा
तुम्हारी थोड़ी-सी उपेक्षा पर
पेड़ों की शिकायत कर आते थे उससे
आज तड़पती हुई बहती,
उसी बाँसलोई से
सीखना प्यार करते रहने का तरीक़ा

याद है, पुल की नींव में
बच्चों की मुंडी काटकर डालने की कहानी
भर बचपन डराती रही थी हमें
मनगढ़ंत बात पर ख़ुद का डरना सोचकर
ख़ूब हँसते-चिढ़ाते थे एक दूसरे को बाद में
पर आज हमारी आँखों के सामने
उसी कहानी को सच होते देख रहे हैं
पुल हमारे ही इलाक़े में बनाए जा रहे हैं
हमारी ही नदियों पर बनाए जा रहे हैं
और मुंडी हमारी ही काटी जा रही है
जो पुल पर चढ़कर हमारे पहाड़ों-जंगलों में
तबाही मचाने आ रहे हैं
वे इसे विकास कह रहे हैं

ये जंगल का सीना खोदने वाले
पहाड़ों को पहले बाँहों
फिर पसलियों से खाने वाले
प्यार और गीतों को सबसे पहले चबाएँगे,
हमारे लोगों को
फ़ायदे की नज़रों से देखने का हुनर सिखाएँगे,
जैसे वे देखते हैं लड़कियों-औरतों को
उनके सस्ते गीतों की चमक में खो मत जाना
तुम भी मत सीख जाना प्यार में छातियाँ देखना
तुम्हारे लिए गीत गातीं, तुम पर निहाल होती
मेरी आँखों को भूल मत जाना
चुनना उसी लगन से साथी,
जैसे तुमने मुझे चुना था
तुम पर निहाल होतीं
उन आँखों के रास्ते, मैं
आती रहूँगी तुमसे मिलने
इन रास्तों का पता भूल मत जाना संगी

___

संदर्भ :

सरई पेड़ : साल का पेड़
*तिरियो : बाँसुरी
**’पीपर पात सरिस मनु डोला’—तुलसीदास


राही डूमरचीर नई पीढ़ी के सुपरिचित कवि-लेखक-अनुवादक हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : बिखरी हुई चीज़ों के साथयूँ ही नहीं गँवाया शहरों ने आँखों का पानीप्यार जाता नहीं अर्थ बदलकर फिर आ जाता है

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