कविताएँ ::
शचीन्द्र आर्य

शचीन्द्र आर्य

नहीं का सही इस्तेमाल

नहीं भी सही
जगह इस्तेमाल हो,
तो बच जाती हैं
घटित होने से
कई त्रासदियाँ

जैसे कविता लिखने की बात
को ही मना कर देता अपने मन में

मैं नहीं कर पाया

तुम कर दो,
बच जाओगे
मन में ही रोज़-रोज़
एक ख़याल को जीते-जीते

कभी तो लगेगा,
यही जीवन है

दरअस्ल, यही होगी मृत्यु

अकारण, असमय
किसी देश-काल में
घटित होने से बहुत पहले।

जीवन-दिन

वह सब
जो कभी नहीं चाहा,
वह प्यास बनकर आया

घृणा, अवसाद, अड़ियलपन,
ज़िद, बिछुड़ना, पागलपन,
चोट, ठोकर, खरोंच, पीछे छूट जाना,
न लिख पाना, न पढ़ पाना,
बस का छूट जाना
मन न होने पर भी गाँव से चल पड़ना
थोड़ा पूरे से कुछ कम प्रेम
और न जाने क्या-क्या

अधूरा जीवन, मृत्यु, इच्छाएँ
दिन और रात बनकर
शाम की तरह रहे अधूरे जीवन में

यह सब
वैसे आते
जैसे
पानी आता है
जीवन बनकर
तब क्या करता
नहीं सोच पाया हूँ

शायद घड़े में भर कर रख लेता
पर अब तक
पहिये और चाक का आविष्कार
नहीं हुआ है,
मेरे जीवन में
यह बात मुझे पता चली।

गिनती

जितनी नींदें
या सपने
पूरे नहीं हुए
उनका हिसाब
लगा लेता

नहीं लगा पाया
कि भूल गया गिनती

याद नहीं कर पाया फिर कुछ भी

एक बार
पूछकर कोई मुझसे देखे
गिनती क्या होती है

मुझे नहीं पता,
तीन के बाद दो आता है या पाँच

अगर
तुम्हें गिनती आती है
तो बताओ,
तीन के बाद
क्या पाँच नहीं आता गिनती में?

अख़बार

अख़बार में कभी
चुटकुले छपते थे

अब
अख़बार का
छपना भी एक
चुटकुला
बन गया है

ऐसा
अख़बार वाले
थोड़े सोचते होंगे।

शहर की धुन

हर बैंड-पार्टी ने
हर शादी में
अपने फेफड़ों में
हवा भरते हुए
हर बरात में
हर दूल्हे को
अपना यार बताया

कोई दूल्हा
नहीं समझ पाया
इन धुनों को

वह तब भी
फूँकते रहे
उस पीतल या
किसी धातु की बनी
पतली सी नली में हवा
और हमारे कान सुनते रहे—
‘आज मेरे यार की शादी है’

वह क्यों बजाते रहे यह धुन
कोई नहीं समझ पाया आज तक

शायद वह अपना
कोई खो गया
दोस्त ढूँढ़ रहे हैं
जो खो गया,
इस शहर की धुन में

गाली

कविता लिखने वाली
स्त्रियों को भी
‘कवि’ कहकर
जीती गई लड़ाई में
गालियाँ औरतों के
जननांगों पर ही दी गईं

प्रहसन

वह अपनी बातों में अपनी बातों को दोहराते रहे
और उन दोहराए गए वाक्यों में सब कुछ दोहराता गया

इस दोहराव में उनकी दोहराई गई बातों को दोहरा कर पढ़ने वाले भी कई मर्तबा उन्हें दोहराते रहे

दोहराना उनमें कैसे किसी ऊब को नहीं दोहरा पाया,
यह सवाल कई बार तो मेरे मन में ख़ुद को दोहराता रहा
तब मैंने तय किया, इस दोहराने में दोहराने के अलावा और कोई दोहराव नहीं है

दरअस्ल, यह दोहराना उनका दोहराव ही था,
जिसे दोहराव कहे बिना वह बार-बार दोहराते गए
इस दोहराव में उनके दोहराव का प्रकटन, उनके दोहराने की सीमा का प्रकटन था

वह इस सरल और सहज प्रक्रिया को अभ्यास का स्वाभाविक दोहराव कहते
तथा इस दोहराव का अभ्यास उसे दोहराते हुए ही दोहराया जा सकता था

यह दोहराव उनके अलावा अगर कोई करता दिख जाता तो वह कहते,
वह अमुक अपने आप को दोहरा रहे हैं
दूसरों का ऐसा दोहराना उन्हें दोहराना ही लगता

वह दोहराव को बताने वाले उपरोक्त वाक्य को अपनी साँस फूलने के बाद भी कई बार दोहराते
यह दोहराव को दोहराते हुए उसे दोहराना ही था
इसे बिना दोहराए वह कुछ भी दोहरा नहीं सकते थे

फिर मुझे लगता,
इस बात को इस बात की तरह कहना ही उसे कोई बात बनाता है
इस बात के दोहराव को शायद दोहराए बिना ऐसे ही कहा जाना चाहिए।


शचीन्द्र आर्य से परिचय के लिए यहाँ देखिए : आवाज़ें अपनी उपस्थिति का संसार ख़ुद बनाती हैं

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