कविताएँ ::
शचीन्द्र आर्य

शचीन्द्र आर्य

घर : कुछ दृश्य
‘चुप घर’ शृंखला की कविताएँ

घर और बाहर

जब भी पलंग पर लेटे-लेटे छत को देखता हूँ
लगता है, वह तिरछी है
झुक गई है, पिछली गली की तरफ़
धँस गई है जैसे मेरी रातें

अकबका कर उठता हूँ,
तब लौट पाता हूँ
सीधी रेखाओं के जंजाल में

वह दिखाई देती हैं
इधर से उधर
उधर से इधर
आती-जाती
जैसे सुबह और दुपहर में
आता-जाता हूँ,
कमरे से बाहर और कमरे के अंदर
सिर्फ़ सोने और जागने के बीच की
एक छोटी-सी किश्त के लिए

छुओ

एक चिड़िया है
जो अभी अँधेरा होने पर
सामने दरवाज़े के बाहर दिखाई देते
आसमान में उड़ रही है

गोल-गोल चक्कर काटती
यह चिड़िया
कभी मुझे चिड़िया नहीं लगती

क्यों?
इसकी एक छोटी-सी वजह है
एक बार,
एक सुबह, यह छोटी चिड़िया
इस अँधेरे कमरे में आ गई,
तब मेरे पास से गुज़रते हुए
इसने मुझे छूना चाहा

मनमर्ज़ियाँ

सीढ़ियों पर बारिश होने के बाद
पानी की टपकती बूँदों को देखकर
हम मिलकर उस ठेकेदार को कोसते
जिसने कहने पर भी ‘लेंटर’ नहीं डाला

उसने अपनी मर्ज़ी से
लाल पत्थर और लोहे के ‘गर्डर’ से बना दी छत
जो थोड़ी-सी बारिश में छन्नी बन जाती है

जो अपनी मर्ज़ी करता है,
कुछ बताता नहीं है,
उसकी छतें
ऐसे ही टपक पड़ती हैं,
चाहे बारिश हो या न हो।

सब किताबें

कुर्सी में धँसा हुआ सोचता हूँ
ऐसे ही बैठा रहूँ,
देखता रहूँ, किताबों से अटी हुई छोटी-सी मेज़

ऐसे ही किसी किताब को अनमने उठाकर
बेतरतीब पढ़ते हुए कभी
नहीं लगा कि कुछ देर हुई

हमेशा लगता, अभी वक़्त बहुत है,
ख़त्म कर सकता हूँ कई किताबें
एक ही बैठक में

बावजूद नहीं करता
कि ख़त्म हो जाएँगी
सब किताबें एक दिन

इस ख़याल
और बाक़ी ख़यालों में
यही सब तारी रहता है

इसी सब में डूबते,
हर रात वक़्त हो जाता है,
सोने और सुबह साढ़े चार बजे उठने का

छोड़ देता हूँ किताब,
किसी काग़ज़ की कतरन के साथ
कि लौटकर उठाऊँगा, तब देखेंगे

सोचता हूँ, अभी सो लेता हूँ
सोकर जाने पर मिलेगी तनख़्वाह
नहीं जाऊँगा तो कट जाएगी छुट्टी।

सुबह का अँधेरा

यह अक्सर तब होता है,
जब कमरे की रौशनी को एक ‘स्विच’ से
बंद कर देता हूँ

अँधेरा सुबह-सुबह
खिड़की के काँच से अंदर दाख़िल होता हुआ
मुझे खींच लेता है, उस दृश्य में
जबकि कहीं जा नहीं रहा होऊँगा
ख़ाली कमरे में बैठा,
उस आती हुई रौशनी को देखता रहूँगा।

हर बार पल्ला ओड़घाते हुए यही सोचता हूँ
किसी सुबह तो ऐसा ज़रूर होगा,
जब इस आपाधापी में एक-एक मिनट का
कोई हिसाब नहीं देना होगा
छूट जाए मेट्रो, नहीं जाऊँगा उस दिन कहीं।

इस पर
इतना और इतनी बार सोचते हुए भी
कभी ऐसा नहीं हुआ, जब छुट्टी हो
मैं सुबह पाँच बजे नहाकर
बैठ गया होऊँ इस कमरे में
इस कमरे के अँधेरे के साथ।

सोता रह जाता हूँ, उन सुबहों को
जब कहीं जाना नहीं होता
अँधेरा आता है और उजाला बनकर
खिड़की के औरमपार छा जाता है
मैं सोने के सिवा कुछ नहीं कर पाता।

गन पाउडर

इस शहर और
घर की इस अधूरी मंज़िल पर
रह रहे कबूतर
क्यों रह रहे हैं
कभी-कभी समझ नहीं आता।

वे क्यों हैं?—
का कोई जवाब मेरे पास नहीं है।
शायद जैसे मैं हूँ,
वे भी मेरे बारे में ऐसा सोचा करते होंगे।

उनकी ‘बीट’ से फ़र्श पटा पड़ा है
और धूल में उनके बिखरे पंखों से
हवा भारी होती गई है।

सोचता हूँ, कैसा होता कि
लंदन में अभी भी वहाँ की सरकार
बंदूक़ों के लिए कबूतरों की बीट को
सुखाकर बनाए गए चूरे को अपने क़ब्ज़े में ले लेती।

मेरी गुज़ारिश है,
उस ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ की
किसी भी कामचलाऊ शाखा से,
वह अपने किसी कामचोर नुमाइंदे को
तार की गति से भिजवा कर
यह सारी ‘बीट’ इकट्ठा कर करवा ले।

बिना देर किए, उसे झट से
अपने साथ ले जानी चाहिए
फ़र्श पर बिखरी हुई सारी ‘बीट’
ताकि जब झाड़ू के बाद पोंछा लगाऊँ
तो वह चमके, गंधाए नहीं।

अपच

दो साल लग गए
यह समझने में कि
घड़े में फिटकरी डालने का कोई फ़ायदा नहीं।

घड़ा उसे सोखता नहीं है,
फिटकरी उसके तल में बेजान पड़ी रहती है।

इस समझने में
सब उलझ गया
कभी तो लगता है,
घर घड़ा बन जाता है
और मैं फिटकरी।

दीवार में आसमान

खिड़की ही आसमान की तरह
बर्ताव करने लगे
तब क्या करना चाहिए
इस प्रश्न का
मेरे पास
कोई एक उत्तर भी नहीं है

बैठे हुए या लेटे हुए
जब जाली के पार चाँद दिखाई देता है
तब लगता है,
आसमान कहीं आस-पास मौजूद है

इस चहारदीवारी में रहते-रहते
बहुत कुछ छूट गया
कल्पना जैसा

जैसे छूट गई क़लम
जैसे छूट गई डायरी

जैसे मन भी
छूट गया हो कहीं
छूट गई रेलगाड़ी की तरह

क़ैद भी शायद
सबसे पहले
आसमान छीनती है
आसमान के बाद
कुछ भी छीनने के लिए नहीं बचता

ग़नीमत है,
इतने पर भी
खिड़की ने
अभी तक
आसमान और चाँद
मेरे लिए छोड़ा हुआ है

रात साढ़े बारह बजे के आस-पास, 28 अगस्त 2023

तैरना

यहाँ आकर
पता चला,
छत पर जाने के लिए
सीढ़ियों को नदी की तरह
पार करना पड़ता है

यह भी
तय हो गया
तैरना और चलना
लगभग एक जैसी क्रिया है
मन न होने पर दोनों को
आसानी से भूला जा सकता है

भूला यह भी जा सकता है
कि छत जैसी कोई समतल चीज
मैदान न भी हो,
तब भी मैदान से कम नहीं होती

मेरा छत पर न आना
तैराकी न आने की वजह से है

मेरा मन है,
तैराकी सीखने के साथ
पतंग उड़ाने का

लेटने की याद

जिस बिस्तर पर लेटता हूँ,
उस गद्दे को
हमें बेचने वाले ने कहा था,
यह नारियल के बालों से बना हुआ है,
दसियों साल टस से मस नहीं होगा

इधर इस पर
दो साल लेटने के बाद
दस साल पहले ख़रीदे इस गद्दे ने
जैसे मेरी देह की पहचान कर ली है
जिस करवट लेटता हूँ,
वही आकृति यह याद रखता है

कभी-कभी तो ऐसा लगता है,
जैसे-जैसे समय व्यतीत होता जायेगा
यह मुझे निचली मंज़िल से होता हुआ
नरम मिट्टी तक ले जाएगा,
जहाँ सोते हुए ओस मुझे छू लेगी
जिससे मेरा सपना टूट जाएगा
तब मैं आँख मलता हुआ उठ जाऊँगा
और टूट गया सपना याद करने लगूँगा

कविता-संग्रह

अशोक विहार के सिंधी मंदिर में
बैठने वाले एक वैद्य ने कभी मुझे कहा था,
दिल्ली में तो हर व्यक्ति दिन में दो बार शौच जाता है

वह मुझे सांत्वना दे रहे थे,
तुम जाते हो,
इसमें कोई नई बात नहीं
सारी दिल्ली बैठती है, दिन में दो बार

उनकी यह बात
कभी-कभी ‘कमोड’ पर
बैठे-बैठे याद आ जाती थी,
अब नहीं आती

अब याद आता है,
वहाँ बैठे-बैठे ख़त्म किए
कितने सारे कविता-संग्रह,
जो कभी किसी कमरे में बैठे
ऐसे ख़त्म भी न हो पाते

जब वर्धा गया था,
दो हज़ार सोलह के मार्च में
वहाँ से यह
डेढ़ पसली के आदमी से सीखकर आया

वह शौचालय में बैठे-बैठे
अपना अख़बार छपने से पहले वहीं देखते थे
यही सोच, मैंने सोचा
तब क्या मैं वहाँ कोई
किताब भी नहीं पढ़ सकता?

समय को इसी तरह
बदला जा सकता है
वह अपने आप कभी नहीं बदलेगा
ख़ासकर तब,
जबकि उस वक़्त में,
करने को कुछ ख़ास न हो

इच्छा

शुरू-शुरू में
हम दोनों चाहते रहे,
कोई हमारे घर आए

हम किसी को नहीं बुलाते
बस इंतज़ार करते
उस इंतज़ार में घर को वैसा बनाए रखते
जैसा कोई भी किसी के
घर आने पर उसे पाना चाहता

थोड़ा वक़्त बीता,
जब बिना बुलाए
कोई नहीं आया,
तब बुलाने लगे

बुलाने पर भी थोड़ी-बहुत
पहचान वाले भी नहीं आए,
तब एक वक़्त के बाद
हम दोनों में यह इच्छा मर गई

हम दोनों को समझ आ गया,
कोई किसी के घर आना-जाना नहीं चाहता
सब एक-दूसरे को अपने घर बुलाना चाहते हैं

बुलाने वाले को पता है,
कोई अपना घर नहीं छोड़ेगा
पर उन्हें यह नहीं पता,
यह बात अब हमें भी पता है।

दीवार घड़ी

अगर कोई हमारे घर आए
तब उसे पहली नहीं तो
दूसरी या तीसरी नज़र में
दिख जाएगा,
जिस कमरे में बैठकर
बड़ी देर से घर की बातें किए जा रहा हूँ,
वहाँ दीवार पर दीवार घड़ी आने से पहले
दीवार पर चिपकने वाला टेलीविज़न आया

ऐसा इसलिए नहीं होगा कि
हम दीवार पर कील ठोंकते गए
और उन कीलों पर उन सामानों को टाँगते हुए
उन पर गिनती लिखी पर्चियाँ चिपकाते गए

नहीं, बिल्कुल नहीं
हुआ कुछ यूँ है,
हमारी दीवार घड़ी,
दीवार के बीचोबीच न होकर
थोड़ी दाईं ओर खिसक कर
खिड़की के इतनी पास है,
जहाँ से वह सिर्फ़ खिड़की के बाहर
झाँक ही नहीं सकती
बल्कि उस खिड़की से आए
किसी हवा के झोंके के साथ
हिचकोले खाकर नीचे भी आ सकती है

आप आ जाते तो
उसी कमरे में घड़ी के नीचे बिठा देते
गिरती तो आप संभाल लेते।

दिल रूई

यहाँ आए हुए बहुत दिन नहीं बीते थे,
उन शुरू के दिनों में ऐसा नहीं हुआ कि
किसी ने हमारे यहाँ रात
रुकने की इच्छा प्रकट की हो

उन दिनों हमारे पास
पलंग थे नहीं, दीवान ख़रीदे नहीं थे,
‘मास्टर बेडरूम’ कहलाने वाली कोई जगह नहीं थी
तब किसे कहता, ‘रुक जाओ, रात को बातें करेंगे’

जो रुके, उनके लिए गद्दे ज़मीन पर बिछा दिए
मच्छरों से बचने के लिए चादर दे दी,
कछुआ छाप अगरबत्ती जलाकर कमरे में रख छोड़ी

अब देखता हूँ,
वही इस जीवन के सहयात्री बने,
जो उन गद्दों के ज़मीन पर
बिछाए जाने पर नाराज़ नहीं हुए
लेटे पड़े रहे, मच्छरों को मारते हुए,
रातें करवटों में बिता गए

वह दिल्ली की ठंड में भी आए
तो चटाई पर बिछे गद्दे पर
बिना मुँह बनाए लेट गए।

उन्हें एक पतली रजाई पर
तीन-तीन कंबल ओढ़ाकर,
खिड़की दरवाज़े बंद करके
जब बिस्तर पर वापस लौटता
तब आधा घंटा यही सोचता,
कहीं ठंडी तो नहीं लग रही होगी,
जो वह मुझे बता नहीं रहे

उनका दिल रूई का बना हुआ था,
वह मुझसे कहीं ज़्यादा मनुष्य थे,
जो अगली सुबह पूछने पर
बस इतना कह गए—
‘नींद नहीं आई पर ठंड नहीं लगी…’

सुनो

आवाज़ें अपनी उपस्थिति का संसार ख़ुद बनाती हैं

उस कबाड़ी की आवाज़ के पीछे
उसी कबाड़ी की आवाज़ के लहजे में
नक़ल उतारते हुए
एक दुनिया मैंने भी बनानी चाही थी

यह कबाड़ी, कभी फल बेचने आता,
कभी फ़िनायल, कभी प्लास्टिक की कुर्सी
या मेज़ बेचता हुआ बीत जाता

मेरा इतवार
इस कमरे में
इस आवाज़ के इंतज़ार में
बैठे-बैठे गुज़रता रहा

देखता हूँ,
खिड़की-दरवाज़ा खुला होने के बावजूद
उसकी आवाज़ अब बहुत धीमे से आती है
वह जान गया है, उसकी आवाज़ के पीछे
एक और आवाज़ आती है,
जो उसकी दुनिया की नहीं है

मैदानों वाला शहर

बहुत दिनों तक सोचता रहा,
जहाँ रह रहा हूँ,
वह भी दिल्ली है

नहीं पता था,
इस वाली दिल्ली में गाय और साँड़ भी
सड़क पर गलियों में उतने ही मौजूद हैं,
जितनी बसें और इंसान

सड़कें ही इनकी चरागाह बन गए थे
मोहल्ले की गलियाँ बुग्याल
कूड़े के ढेर उनके सानी-पानी के नाद थे
घर के दरवाज़े उनके मुँह का निवाला

बग़ल का पड़ोसी पंद्रह दिनों से आलू सड़ा रहा है,
उसकी महक ऐसी है,
जैसे कोई इंसान किसी उघड़े गड्ढे में पड़ा हो,
उसकी खाल गल रही हो
जैसे किसी मरे हुए जानवर का मांस सड़ता है
इस पर भी वह साँड़
उन सड़े हुए आलू के बोरों में
भूख के मारे अपना मुँह दे देता है

वह जुगाली करते हुए
इन आलुओं को खाते-खाते
क्या अपनी माँ को याद करता होगा
मुझे अम्मा की याद
शाम की चाय पीते हुए आती है
उन्हें फ़ोन कर देता हूँ
साँड़ क्या अपनी मर्मांतक आवाज़ में
उन्हें याद करता होगा,
जिनके साथ उसने अपना जीवन व्यतीत किया?

मेरे लिए इस कमरे में तुम्हारे बग़ल बैठकर
न लिखने का विकल्प चुनने के अतिरिक्त
और कोई विकल्प नहीं था

यह शहर, जिसे दिल्ली मानकर
यहाँ चला आया था,
इस तरह पहली बार
मेरे भीतर तब दाख़िल हुआ।

मेज़ का सपना

यहाँ किसी कमरे में कोई मेज़ नहीं है

रोज़ सोचता हूँ,
एक मेज़ होती तो कैसा होता

कोई ऐसा कमरा यहाँ नहीं बचा है,
जहाँ मैंने मेज़ को अपने मन में रखकर देखा न हो
कुल तीन ही तो कमरे हैं
ज़्यादा वक़्त नहीं लगा

हर कमरे में उसके लिए जगह है
वह हर कमरे में आ सकती है

उसे अपने लिए बस एक कोना चाहिए
वह सारी उम्र एक कोने में रह सकती है

मेज़ मनुष्य नहीं है
पर किसी आदमी या औरत की तरह,
उसके कोने में पड़े रहने की कल्पना भी
मन को कसैला कर सकती है,
यह पिछली पंक्ति पढ़कर भी
कभी-कभी समझना बहुत मुश्किल हो जाता है

वह रहेगी तो कमरे के किसी कोने में ही

इस मेज़ के असल में कहीं न होने से
मेरा लिखना भी अब कहीं बचता हुआ दिखाई नहीं देता है

यहाँ सब ले आया,
काग़ज़, डायरी, स्याही की पाँच बोतल, तीन क़लम
बस यह मेज़ मेरे सपनों की रेलगाड़ी से उतरने में कहीं रह गई
ख़ुद से पूछ रहा हूँ,
कैसे नहीं उतार पाया इसे,
कहाँ छूट गई मेज़

बीच बहस में

इस घर में कब, कहाँ, किस कमरे में
हम दोनों पाए जाएँगे, तब बिल्कुल तय है।

तय हम दोनों ने मिलकर किया।

जो कमरे हमारे न होने से
चुपचाप बिखरे पड़े रहते हैं,
हमारे होने पर भी उतने ही शांत दिखाई देते हैं
बहुत ज़्यादा आवाज़ें यहाँ खिड़की,
दरवाज़े, नीचे या छत की तरफ़ से आ नहीं पाती हैं

जैसे किसी-किसी घड़ी की टिक-टिक भी सुनाई नहीं देती हो
बिल्कुल वैसे ही हम दोनों कुर्सी पर पीठ टिकाए बैठे रहते हैं

ऐसा नहीं है, हम बातें नहीं करते हैं,
करते हैं, पर अक्सर या तो किसी फ़िल्म को देख रहे होते हैं
या साथ मिलकर कुछ खा रहे होते हैं
इन दोनों कामों में हम दोनों का बोलना
कुछ मायने नहीं रखता

शाम को दिन की इकलौती चाय पीते वक़्त
मूँग दाल की नमकीन न होने पर
कुछ कहता भी हूँ
तो झटपट कटोरी में नमकीन आ जाती है

इससे ज़्यादा क्या
बात की जा सकती है,
कभी-कभी हम सोच भी नहीं पाते हैं

हम जब इन कमरों में बैठे या खड़े-खड़े झगड़ते हैं
तब बहुत सारे दिनों का हम एक साथ बोल लेते हैं

जिसके बाद हम मिलकर तय करते हैं,
अब आपस में बात नहीं करनी है
बस चुपचाप
पीछे वाले कमरे में जाकर
खिड़की और दरवाजे खोल देने हैं
ताकि कुछ ग़ैरइंसानी आवाज़ों से
दीवारों के बीच ख़ाली जगह भर जाएँ
और हम उन्हें सुनने लगें।

माउस माने चूहा

जब हम यहाँ आए,
चूहों ने बहुत तंग किया

वह मकड़ियों और
छिपकलियों से भी पहले
यहाँ मौजूद रहे होंगे,
इस बात को न मानते हुए,
हमने चूहेदानी ख़रीदी।

छिपकली कभी दरवाज़े के नीचे,
दरवाज़े के बग़ल ख़ाली जगह से
भीतर आने की अनधिकार चेष्टा
करते हुए कभी दिखाई नहीं देगी
उसके दाँत भी ऐसे नहीं कि
वह लकड़ी को नुक़सान पहुँचा पाए।

मकड़ी से भी यह अपेक्षा कभी हमें नहीं रही।

थी तो चूहों से भी नहीं
बावजूद वह जगह-जगह
लकड़ी के दरवाज़ों पर
रात में चोरों की तरह
अपने आने के निशान छोड़ने लगे

उनकी लेड़ियाँ,
गवाही और सबूत की तरह
हर जगह मौजूद थीं
उनका सूखता पेशाब
नाक में दम करने के लिए काफ़ी है।

रसोई का दरवाज़ा
हमारे न होने पर
वह कुछ ऐसा खा चुके थे जैसे
बड़े इत्मिनान से वह वहाँ तब तक
बैठे रहे,
जब तक उनका पेट
एक नहीं कई-कई बार भर नहीं गया
और वह अघा नहीं गए होंगे।

मन किया होगा तो
वह हमें वहाँ न पाकर
अपने उघड़े पेट के साथ
वहीं कुछ देर सो भी गए होंगे।

थोड़ी देर बाद डकार लेने के लिए उठे होंगे,
उठकर थोड़ी चहलक़दमी की होगी
पास नज़र दौड़ाने पर
पानी न पाकर फिर पसर गए होंगे।

उन्हें पहाड़गंज के नेहरू बाज़ार से ख़रीदी
उस मशीनी आवाज़ निकालने वाले
इस यंत्र से भी कुछ ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ा,
जिसकी आवाज़ रसोई के पास से
मेरे कान में सारी-सारी रात पड़ती रहती
मैं आवाज़ों वाली इन रातों के भीतर
उनींदा करवट पर करवट बदलता रहा।

इतना वक़्त
चूहों के साथ रहते-रहते हैं,
बहुत सारी चीज़ें सीखते रहे होंगे,
ऐसा कुछ नहीं है।

बस एक दिन लगा
जैसे उन्हें भगाने की इच्छा व्यर्थ है
वह कहीं नहीं जाएँगे, बस छिपे रहेंगे।

कभी-कभी तो लगता है,
चूहों ने ही हमारे कान में
चुपके से कह दिया हो,
किसी भी तरकीब से हम
उनकी पूँछ का बाल भी बाँका नहीं कर पाए।

शायद इस बात का ही असर है,
हमने उन्हें एक दिन बिल्ली मान लिया।
सोचा,
घर में बिल्ली रहेगी तो चूहे नहीं आएँगे।

दो ध्रुवों के बीच

इस घर में रहते हुए
दिन और रात का कोई बँटवारा
किसी काम का साबित नहीं हुआ
दिन और रात के ज़्यादातर हिस्सों में
इसका कोई मौसम भी नहीं है, ऐसा नहीं है

अगर खिड़की खुली न हो तो
पता ही नहीं चलता,
दिन है या रात
जबकि हम दूसरी मंज़िल पर रहते हैं

अपनी सहूलियत के लिए अपने घर को
हमने दक्षिणी और उत्तरी ध्रुव में बाँट रखा है

घर का पिछला हिस्सा दक्षिणी ध्रुव में पड़ता है
हम गर्मियों में उत्तरी ध्रुव में रहना पसंद करते हैं

सर्दियाँ आते ही
उत्तरी ध्रुव में स्थित बैठक में बैठना दूभर हो आता है
ठंडक संगमरमर के फ़र्श पर रखे पैरों से
होते हुए देह में दाख़िल होने लगती है
तब भी हम उत्तरी ध्रुव को छोड़ते नहीं है
यहाँ रहते-रहते थोड़े ढीठ होते गए हैं,
रजाई ओढ़े बैठे रहते हैं

हम दोनों में तय यह हुआ
सर्दी और गर्मी में फ़र्क़ किए बिना
दिन के बाद आई रात में
सोने के लिए हम दक्षिणी ध्रुव चले आएँगे

अब इतना वक़्त बीतने के साथ
हम दोनों ने अपनी पसंद के ध्रुव चुन लिए हैं
मेरी पसंद उत्तरी ध्रुव है और तुम्हारी दक्षिणी

बावजूद इसके यहाँ भी चुंबक वाला
वह प्रयोग सफल हुआ है, जिसमें माना जाता है,
दो विपरीत ध्रुव एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं।

काग़ज़ के फूल

किसी किताब को पढ़ने में
औसतन कितना वक़्त चाहिए,
यह सवाल न जाने कितनी बार
ख़ुद से पूछ चुका हूँ।

अपनी शक्ल बदल-बदलकर
यह सामने आता रहा है।

पढ़ने के लिए
सबसे ज़रूरी चीज़ क्या है?
बहुत मुश्किल नहीं है इसे जानना।

पढ़ने के लिए क्या कुर्सी चाहिए?
वह मेरे पास है।

कोई ख़ास कमरा,
जिसमें लोग बहुत कम आते जाते हों?
ऐसे तीन कमरे हमारे यहाँ हैं,
हम दोनों के सिवा कोई तीसरा
वहाँ आता-जाता नहीं है।

किताबें?
दो दीवान भर,
मतलब दो लेटी हुई अलमारियों बराबर किताबें हैं।

उपर्युक्त प्राथमिक और अनिवार्य लगती
सामग्री के अलावा कुछ तो है, जो छूट रहा है।
वह क्या है?

यह बिल्कुल पंचतंत्र की किसी कथा जैसी बात होती गई,
जिसकी पहली पंक्ति,
‘एक समय की बात है,
जब मैंने किताब पढ़ने की ठानी’ से शुरू होती है

इस छोटी-सी कहानी में फ़क़त दो किरदार हैं,
जिसमें दूसरे की भूमिका मेरे कुछ करने पर निर्भर है,
जो इस औसत समय का माप नहीं ले पा रहा

नापने वाला इंची टेप शायद कोई बंदर छीन ले गया
उसी के हाथों एक अदद औसतन मन भी ग़ायब है।

पैर में फूटा छाला

न जाने कितने साल
फ़र्श पर लेटने की स्मृति
हम दोनों के पास है

ज़मीन पर पीठ एकदम सीधी रहती है,
यह ख़याल उस दीमक लगे कमरे में कभी नहीं आया
यहाँ भी कभी नहीं आता,
बस लगा, ऐसे ही किसी रात की याद कौंध गई हो जैसे

यह आयुर्वेद जैसी किसी किताब का
कोई देसी नुस्ख़ा लगता
पर घर पर आज़माया सिर्फ़ हम दोनों ने

यहाँ छह बाई छह का ‘डबल बैड’ है,
उस पर पाँच इंच मोटा गद्दा बिछा हुआ है
जिस पर हम लेटते हैं, लेटे-लेटे सोचते हैं,
वह भी कैसे दिन रहे,
जब यह गद्दा कहीं नहीं था

तब बिस्तर के नाम पर रजाई भी हम
गद्दे की तरह इस्तेमाल कर लिया करते
बिछाते वक़्त कुछ ज़्यादा सोचते नहीं थे

यहाँ आए तो ज़मीन पर नहीं लेटे

रसोई मान लिए गए उस कमरे में
जहाँ टेलीविज़न और ग़ुस्लख़ाना भी था,
उस की याद में कभी-कभी मन कर जाता है,
तब सफ़ेद, दूधिया संगमरमर पर
तकिया लेकर लेट जाया करता हूँ
मुझे देख तुम भी बग़ल में लेट जाती हो

शायद तब हम दोनों को साथ याद आती है,
सामने वाली दीवार में लगी बड़ी-सी आदमक़द खिड़की
जो वहीं छूट गई
उसके बाहर आम का पेड़
गुलमोहर का फूल
कोई गिलहरी
छज्जे पर कोई चिड़िया

यहाँ इनमें से कुछ नहीं है

माता-पिता भी नहीं हैं
भाई बहन भी नहीं हैं
सब उसी खिड़की
और बड़ी-सी छत वाली जगह पर रह गए

उनके लिए वहाँ हम नहीं हैं
हम भी चिड़िया बनकर यहाँ उड़ आए

जो चिड़िया के लिए
सोने के पिंजरे-सा होता,
उसे यहाँ घर कह रहा हूँ

कभी-कभी तो लगता है यह (घर)
छाले की तरह मेरे बाएँ पैर में फूट गया है

काँच की अलमारी

यहाँ इस घर में एक
काँच वाली अलमारी है
बहुत छोटी-सी

इसे ही जैसे मैंने
डायरी के पन्नों की तरह
भरना शुरू कर दिया है
इसमें स्याही ख़र्च नहीं होती
पन्ने भी ख़त्म नहीं होते
तब भी बहुत कुछ इकट्ठा होता जाता है

इसे भरने के लिए कहीं जाता हूँ तो,
वहाँ से कुछ ऐसा लेता आया,
जो इसमें रख सकूँ

जैसे इन गर्मी की छुट्टियों में
बहराइच के दरगाह मेले से
हाथी, घोड़े, मोर, कछुए लाया
लकड़ी से बनी एक जोड़ी सारस
और चीनी मिट्टी के हिरण भी ले आया

मैसूर से लाख की डिबिया,
संगमरमर का दिया,
आईना लाया,
गाँव के एक खेत से घोंघे के बाहर
निकल जाने पर उसके खोल लाया,
दक्षिण से एक समंदर किनारे बहकर आ गई सीपें लाया,
लखराँव के कार्तिक पूर्णिमा के मेले से मिट्टी की चक्की और बैलगाड़ी लाया

नाख़ून काटने वाले बहुत सारे नेलकटर,
बाल झाड़ने वाली बहुत सारी कंघियाँ
इसमें नहीं रखे हैं, वह अलग जगह रखे हैं

तुमने दस साल पहले एक तोहफ़ा दिया था,
वह भी रखा है

बीस साल पहले बनाया एक क़लमदान
उस लकड़ी के बक्से में मिल गया,
उसे भी अपनी आँखों के सामने रख लिया

इसमें काँसे, काग़ज़ और रायसन के बने बुकमार्क हैं
स्याही की बोतलें हैं, बहुत सारे पैन हैं, पेंसिल हैं
रात के अँधेरे में चमकने वाली गौतम बुद्ध की मूर्ति है
दो काँच के कछुए भी अगल-बग़ल बैठे हैं
एक छोटा हाथी है, जिसकी पीठ में अगरबत्ती लगा सकते हैं
अपने हाथ से रँगी एक चक्की,
दो तश्तरी और कई कुल्हड़ भी हैं

कभी ऐसे ही सोचता हूँ,
इन्हें इकट्ठा क्यों कर रहा हूँ?
क्या होगा इन सबको एक साथ रखने से?
क्या किसी को कुछ दिखाना चाहता हूँ?

हो सकता है,
किसी के लिए बहुत सारा ग़ैरज़रूरी
लगने वाला सामान भी इसमें भरा होगा,
इससे मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता

यह इस घर में
हम दोनों के बिताए गए
दिनों का हिसाब है
कैसे हम दोनों अपना अकेलेपन
इन सबके साथ बाँटते रहे
जब हमारे पास कोई नहीं था,
यह यहीं थे, हमारे पास, हमारे साथ
जब हमारे पास कहने को बहुत सारी बातें
ख़त्म होने की कगार पर होतीं,
तब आपस में हम इनकी बातें किया करते

जब से घर में एक चींटी भी नहीं है,
तब से यह सब हमारी चुप्पी में एक सेंध की तरह हैं,
अबोलेपन में शब्दों से भरी अलमारी की तरह

इसमें रखी हुई
एक-एक वस्तु, उसके साथ जुड़ी हुई एक-एक स्मृति
आने वाले दिनों को काट ले जाने वाली युक्ति है
यह कुछ-कुछ पागल हो जाने की हद जाकर
हाथ पकड़ कर वापस लाने वाले स्पर्श जैसा है

यह काँच की अलमारी मेरा बनाया अजायबघर है
इस अजायबघर जैसे लगने वाले घर में एक अजायबघर।

अंतरिक्ष में पृथ्वी

जब यहाँ लिखी
या यहाँ नहीं लिखी सब यादें
धुँधली हो जाएँगी,
तब यह घर कैसे याद आएगा?
इस पर कुछ देर भी ठहर नहीं पा रहा।

लगता है,
एक सीलन भरी सुरंग है,
जो इस घर की शक्ल ले चुकी है
जिसके चेहरे पर रत्ती भर शिकन नहीं है।

इसकी शक्ल ऐसी क़मीज़ से मिलती है,
जिसे चाह कर भी पहनने का मन न हो।

तब भी ख़याल आता है,
क्या याद रह जाएगा
क्या इस साल जनवरी की एक ठंडी सुबह
तुम्हारा रसोई में गिरकर बेहोश हो जाना याद रहेगा
क्या मेरा यहाँ आने के पहले महीने में
पीलिया से पीला पड़ जाना याद रहेगा

यहाँ रात को कम खाता हूँ
कि सोते वक़्त डकार न आए
नींद जल्दी आ जाए

दुपहर लौटकर सोने का नाटक करते हुए
शाम पाँच बजे के आस-पास उठ जाता हूँ

जो-जो बातें याद हैं,
भूल जाना चाहता हूँ,
तब भी इस सबमें
वह पहला दिन भुलाए नहीं भूलता,
जब शाम सामान रखते-रखते हो गई
पापा और भाई रात का खाना खाकर वापस चले गए

दो साल बाद अब सोचता हूँ,
उनके लिए कैसा रहा होगा,
इस तरह वापस लौटना
वापस लौटकर उस घर लौटना
जहाँ हम दोनों नहीं थे

यहाँ पीछे हम दोनों रह गए
तब पसीने से तरबतर मच्छरों से परेशान
इसी कमरे में खिड़की दरवाज़ा बंद किए
बहुत देर तक बैठे रहे
कुछ समझ कहाँ आया, क्या हुआ

उस दिन से यह घर अंतरिक्ष में
पृथ्वी की परिक्रमा करता एक विमान है

इस घर में हम दोनों
एक छोटे से तारामंडल में दो ग्रह हैं

जब साथ होते हैं,
तब एक-दूसरे के उपग्रह बन जाया करते हैं
आस-पास ही मँडराते रहते हैं
यहाँ हर दिन का कोरस इसी तरह आकार लेता है
कोई हमें चाहकर भी ‘प्लूटो’ नहीं कह पा रहा है

हम जाकर कहाँ पहुँचेंगे,
यह अभी तय नहीं है,
जब तय हो जाएगा, बता दूँगा।

चुप घर

यहाँ आकर पता चला,
जो शब्द होते हैं,
उनके वही अर्थ नहीं होते
जो शब्दकोशों में दिए होते हैं

कहने को यह ‘घर’ है,
जिसे हम दोनों
हर पल ‘घर’ बनाए रखना चाहते हैं।

बावजूद हम दोनों बहुत धीमे-धीमे चुक रहे हैं
मानेंगे कभी नहीं, पर इसके दीमक हम ही हैं।

ऐसा नहीं है, दीमकों के घर नहीं होते, होते हैं
उनके उस घर में वह हमारी तरह अकेले थोड़े ही होते हैं
उनके माता-पिता, भाई-बहन भी होते हैं

मेरे माता-पिता में तुम्हारे माता-पिता अनुपस्थित हैं
तुम उन्हें पहले ही शादी के वक़्त छोड़ आई हो
मुझे यहाँ इस घर की चार दीवारों के बीच आकर समझ आया
कैसा होता होगा, किसी भी लड़की के लिए सब छोड़कर आ जाना

कुछ भी छूटता नहीं है,
मन में चलता रहता है
मन टूट जाता है,
कुछ भी किसी भी सुलोचन से
पहले जैसा कभी नहीं जुड़ पाता।

कभी सोचने लगता हूँ,
ततैया होता, तब उड़कर कब का
पहले वाले घर पहुँच जाता
दीमक हूँ, तो आहिस्ते-आहिस्ते
यादों की किताब खा रहा हूँ।

यह इतनी बड़ी किश्त
उसकी ओर मेरी सबसे बड़ी छलाँग है
यह जो इतनी सारी बातें इस घर के बारे में कह दी हैं
बताना चाहता हूँ,
सबको, कैसा लगता है मुझे यहाँ
कैसा होता गया हूँ,
इस बीतते हुए वक़्त में
शायद ऐसा होना कभी चाहा नहीं था, फिर भी

यह कहना बहुत ज़रूरी था, मेरे लिए
जबकि कुछ भी कहना बहुत पहले छूट गया
जैसे छूट गया घर।

जिस छूट चुके घर के बारे में
मुझे लिख लेनी थी बहुत सारी बातें
बजाए उसके इस घर को लिखता रहा,
जो ‘घर’ के अर्थ में ‘चुप घर’ था
जिसका यह अर्थ किसी शब्दकोश में नहीं था।


शचीन्द्र आर्य हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि-गद्यकार हैं। ‘दोस्तोएवस्की का घोड़ा’ शीर्षक से उनकी एक पुस्तक इस वर्ष के आरंभ में अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। शचीन्द्र की कविताएँ समय-समय पर ‘सदानीरा’ पर बहुत चुपचाप प्रकाशित-प्रशंसित होती रही हैं। लेकिन इस बार की कविताएँ ‘सदानीरा’ ने इस आग्रह के साथ प्रस्तुत की हैं कि इन कविताओं को न सिर्फ़ कवि के काव्योत्कर्ष के प्रमाण के रूप में, बल्कि हिंदी की नई रचनाशीलता में एक घटना की तरह पढ़ा जाना चाहिए। कवि से shachinderkidaak@gmail.com पर बात की जा सकती है।

4 Comments

  1. प्रमोद अक्टूबर 1, 2023 at 5:37 पूर्वाह्न

    बहुत ही सुन्‍दर कव‍िताएँ हैं। शचीन्‍द्र और सदानीरा का शुक्रिया। शचीन्‍द्र का शिक्षा में काम भी ताबिले तारीफ है। शिक्षा संबंधी उनके लिखे लेख दृष्टि संपन्‍न होते हैं।

    Reply
    1. शचींद्र आर्य जनवरी 19, 2024 at 2:14 अपराह्न

      प्रमोद सर, आपका बहुत धन्यवाद और आभार। आपका मार्गदर्शन ही था, जिसकी वजह से शिक्षा विमर्श के लिए इस तरह लिख पाया।

      Reply
  2. सुमित त्रिपाठी अक्टूबर 1, 2023 at 9:56 अपराह्न

    नहीं मालूम किस तरह इनकी तारीफ़ करनी चाहिए, हमारे रोज़ के दिनों में कितनी ही कविताएँ यूँ ही पड़ी रह जाती हैं, शचीन्द्र बाबू ने बड़ी सहजता से उन्हें समेट कर हमें खोने से बचा लिया है, यही कवि का कर्म है।

    Reply
    1. शचींद्र आर्य जनवरी 19, 2024 at 2:16 अपराह्न

      बहुत शुक्रिया सुमित।

      थोड़ी बहुत कोशिश हम सबको करते रहनी चाहिए। तभी यह बीतता समय कुछ पकड़ में आएगा।

      Reply

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