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सुधांशु फ़िरदौस

सुधांशु फ़िरदौस

हर्षान्विता

तुम नहीं हो—
जीवन-परिधि के गिर्द
दूर तक कहीं नहीं हो
दैनंदिनी में संकुलित है
तुम्हारी रिक्तता की अनुगूँज

तुम्हारी स्मृति में रोपी गई शेफालिका
अब भी महकती है खिड़की के पास
जहाँ बैठ कर लिखता हूँ कविता
भासित होती हो तुम हर्षान्विता!

बैठता है उस पर यदा-कदा
एक जोड़ा शालिख
कचबचिये का झुंड मचाता है
सुबह-शाम शोर—
‘जस्ट लाइक यू एंग्री बर्ड’

उपोसथ

निहारते आषाढ़-पूर्णिमा का चाँद
चित्त से बुहारते काया
जागा सारी रात

सुबह ध्यान से उतरा
तब बाहर
उपस्थित था
बहिर्मुखी सोमवार

तोड़ ली जा रही हैं नित्य निष्ठुरों के द्वारा
खिलने से पहले ही रक्तिम ऊरहुल की कलियाँ
सौभाग्य और दुर्भाग्य के विमर्श में उलझी
उसके वन-बाग़ की सखियाँ—
मधुमालती,
बोगनवेलिया…

नागपंचमी की प्रतीक्षा में अधीर
किसी प्रेम-रुग्ण पथिक की तरह
पेड़ से पक-पक कर गिरा जा रहा
महमह करता कटहल
झूलता छूट रहा ऊपर मूसल

सारी प्रकृति—
सावन-अभिनंदनार्थ खड़ी है
सहन में अर्जुन का फल टूँगते
दिख गया धूसर धनेश
इससे पहले की करता प्रणाम… उड़ गया
अबूझ भाषा में देकर आशीर्वचन

सार-असार

मैं—
जन्मों-जन्मों का तथागत प्रेमी,
मिली प्रेमिका अंगुलिमाल!
हुआ पूर्ण उसका शाप
मेरा ही सिर काट
परीक्षित रही मेरी मैत्री
योनि से योनि
चक्रवाल से चक्रवाल

व्यर्थ में व्यय हुआ
इस तरह जीवन क्षय हुआ
नहीं पाया कुछ साध
बेख़याली में ही छूटी साँस

रह गईं पारमिताएँ सब अधूरी
अंततः टूट गई जीवन-धुरी

जितना तरल—मेरा रुदन
उतना करुण—उसका परिहास
सूखी संठी—टूटती चटाक्
ईख—टूटती—निर्वाक!

मुक्ति

कौमुदी—
काश के फूलों पर
अधपके धान के खेतों पर
धरती-आकाश
एक कर रही है कुहेलिका
युगों से दृढ़ है चाँद का वीतराग
वह अपनी लौ में जल रहा
निस्पृह है कुमुदिनी का
इस रूप-काया पर उमगना

विसर्जित करता हूँ
जन्मों-जन्मों से अपरिभाषित
यह अनित्य की चाहना
उस पार रोता है चकवा
इस पार बिलखती है चकवी
बीत ही जाएगी
अन्य रात्रियों की तरह ही
यह रात्रि भी

निर्वाण-द्वार पर
मेरी प्रतीक्षा में ध्यानमग्न बैठे हैं चुक्खुमा
…और अपनी पारमिताओं की गगरी सँभाले
तुम्हारी प्रतीक्षा में कायोत्सर्ग करता मैं…

‘मुक्ति अकेले संभव कहाँ!’

दिशाधर

भादों की संध्या
लहालोट बह रही पछुआ
रहरी के मुग्बच्चों के ऊपर झूम रहा
मोछाया हुआ भदई-मकई
घड़ी भर अजोरिया-उजास में ही—
विकल है काश-कुसुम

रति है या उपरति
इस ग्राम्य-प्रांतर में टकाचोर
रह-रह कर मचा रहा शोर
पूर्वजन्म में
किसी नष्ट दस्युपोत का दिशाधर
गहन राग से अनुरक्त
अपने गोहिया में बैठा
प्रेमिका की तरह—
सेवता है नदी

मनुष्यों से अधिक समझता है
वह नदी की चाल
उसके संकार से—
डूबते-उपराते हैं तरबूज़-किसान
कहाँ नदी छोड़ेगी कछार
किधर उभर आएँगे
उसके नितम्ब-बिम्ब
कहाँ छूट जाएगी
मुख्य धार

तकिया

वसंती-वर्षा में नहाकर
सुबह से झूम रहे इतराये विकच सेमल के फूल
अभी तो शेष है इनका पूरी तरह खिलना
चैत की बढ़ती गर्मी के साथ फूलों का चूना
फलों का धीरे-धीरे बढ़ना
वैशाख-जेठ की सूर्य-आँच पर पकना
रूई-कोशों का फूट कर बेतरतीब उड़ना
अपनी मन भर उड़ान के बाद जब ये गिरेंगे
तब चुनेंगे इन्हें खेतों में घूम-घूम
सिंघौल डीह के बच्चे
दादियाँ इसी रूई से भरेंगी
नरम-नरम तकिया

फिर तो सोते वक़्त—
तकिये पर सिर होगा
दादी की कहानियाँ होंगी
प्यार की थपकियाँ होंगी
बताशे की नींद होगी
नींद में स्वप्न होगा
स्वप्न में सुंदर परियाँ होंगी
परियों के हाथ में जादू की छड़ियाँ होंगी
उन छड़ियों को परियों से छीन लेंगे बच्चे
और माँगेंगे अपनी पसंद के
खिलौने-मिठाइयाँ
दादी की दवाइयाँ

दुनिया के शास्ता—
नहीं छोड़ रहे भविष्य में
मनुष्य के लिए कहीं कोई संभावना
उन्हें पसंद नहीं है बच्चों का सोना
वह निरंतर छीन रहे बच्चों से बचपना
उनकी नींद
उनका खेलना
उनकी मित्रता
मनुष्य पर मनुष्य की तरह विश्वास करना

जहाँ दरकार है—
माली जैसी कोमलता
वहाँ लाई जा रही है
बढ़ई जैसी कठोरता
ऐसे में मुश्किल है
बच्चों का बचना
उनकी नींद का बचना
सपनों का बचना

संसार के सारे बच्चों के लिए
करता हूँ प्रार्थना
यूक्रेन से फ़लस्तीन तक
पटना से पहलगाम तक
सारे बच्चों को मयस्सर हो सोते वक़्त
दादी की कहानियाँ
सिर के नीचे नरम-नरम तकिया
नींद में स्वप्न
स्वप्न में परियाँ
परियों की छड़ियाँ!

अलान

अलान पर बेतरतीब लतरी है मधुमालती
अगर अंतरिक्ष तक उठाई जाए अलान
तो वहाँ तक लतर जाएगी मधुमालती
अभी प्रतीक्षित है इसका खिलना

पहिलौठ खिली बोगनवेलिया ने
बूँदों के सम्मान में गिरा दिए अपने सारे फूल
सदाबहार अपराजिता अपने फूलों को सीने से लगाए
उमग रही किसी रूपगर्विता प्रिया की तरह

पत्रहीन डाली पर बैठा भुजंगा
हवा के झोंके से सोंट रहा अपनी बाबरी
शायद उसकी भी डेट हो
किसी कॉफ़ी शॉप या रेस्त्राँ की जगह
मुकलित आम्र-शाख़ पर

झड़ गए हैं खेतों में बचे-खुचे रईचा के फूल
अब तो गोटाने भी लगे हैं इसके दुधिया दाने
बस कुछ दिन और—
फिर चलेगा इस पर
पछुआ से झुराई दुपहर में
पुतुलिया माई का डेंगौना
फिर तो और रूप होंगे
और यात्राएँ होंगी
और जीवन होगा


सुधांशु फ़िरदौस से परिचय के लिए यहाँ देखिए : देह-रोग वस्त्र बदलने से नहीं मिटता

2 Comments

  1. अरुण आदित्य जनवरी 2, 2025 at 7:25 पूर्वाह्न

    जहाँ दरकार है—
    माली जैसी कोमलता
    वहाँ लाई जा रही है
    बढ़ई जैसी कठोरता
    ऐसे में मुश्किल है
    बच्चों का बचना
    उनकी नींद का बचना
    सपनों का बचना।

    कोमल भाव। सुंदर कविताएं।

    Reply
  2. Maneesh Dwivedi जनवरी 2, 2025 at 10:46 पूर्वाह्न

    सुधांशु जी ने काफी समय बाद लिखा है कि और हमेशा की तरह बढ़िया लिखा है.

    Reply

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