कविताएँ ::
सुजाता गुप्ता

सुजाता गुप्ता

उग आना

चाँद-सूरज आने लगा फिर
पहली
पाँच उँगली में कविता
दूसरी पाँच में
संगीत रखा है
जोड़कर
एक लड़की उगाती हूँ।

उगती हुई लड़की
संगीत और कविता देखती हूँ
हर आईने में
जमा है हमारा कल
मैं आईने से प्रेम करती हूँ
प्रेम जो सच है
सच में है धैर्य
उगाने के लिए
लड़की कविता संगीत
एक पृथ्वी
रच-बस आई है
पीले रंग में।

नहीं कहीं और
उँगलियों पर है
वसुधैव कुटुम्बकम्।

चूमना

होंठ पाँव के चूमते हैं पत्थर
कान चूमते हैं पहाड़
नाक हैं चूमते मैदान
आँखें चूमती हैं तालाब
और हथेली लेती है चूम
एक पूरा दुःख।

मिट्टी चूमती है सुंदर औरत
पेड़ चूमते हैं आदमी
बारिश चूमती यौवन
रोशनी चूमती है परछाई
और शरीर लेता है चूम
पूरा एक अँधेरा।

चूमना ठीक
धागे हैं लेते बाँध मन्नत
और किनारे देते हैं खोल रास्ता।

चूमना ज़्यादा कुछ नहीं
एक सपने के
ज्वालामुखी का एक सपना है।

पास और दूर

समय दूर जाता है
जैसे
ऊँचा हो जाता है पाँव
ज़मीन से,
बड़े हो जाते हैं दाग़
सीनों से,
जैसे
धुल जाते हैं तिनके
आसमान से
और
लटक जाते हैं सूरज
दीवार से।

समय पास आता है
जैसे
चौड़े हो जाते हैं दाँत
चेहरों से,
खड़े हो जाते हैं सपने
कंधों से,
जैसे
निकल जाते हैं साये
आँखों से
और
खिल जाते हैं चाँद
हाथों से।

दो हाथों से वह
काटता है
जोड़ता है
बनाता है
जो समय है।

सुनो

सुनो,
प्रेम खिलता है
कविताओं से
खेत-खलिहानों
संगीत-कहानियों से
क़लम-किताबों
नदी-पहाड़ों से
पेड़-बादलों
और
पुरानी दीवारों से।

प्रेम तो फैलता है
मुस्कान से
हँसने-हँसाने
सीखने-सिखाने से
तितली-जुगनू
झींगुर-आवाज़ से
खीर-मिठाइयों
और
बहते झूलों से।

रात में प्रेम
चढ़ जाता है चाँद पर
और
उछाल देता है मछलियाँ
पानी के आसमान में।

शानया के नाम—

पानी की गोलाई नापती
किनारे पर बैठी लड़की
निहार रही है पेड़
जिसके पास की मिट्टी
भुरभुराई हुई है
काटी गई फ़सलों के
गठ्ठर रखे हैं जहाँ
दौड़ते-नाच रहे हैं
खिले फूल।

किनारे पर बैठी
दीवार नापती लड़की
निहार रही है मैदान
भाग रहे हैं जो
बादलों की तरफ़
दौड़ रहे हैं रंग आवाज़ के
कहीं पीछे रह गए हैं
पेड़ जो
बाँधे रखते हैं आसमान।

पृथ्वी गोल है
आँखों में आश्चर्य पर
तीन कोण ही लाते हैं।

विश्वास

उसे देखा
न सुना
न छुआ है
मगर वह है हर जगह।

वह कहते हैं
उसका आदि-अंत नहीं
वह है हर—
ईंट-हवा में
सुख-दुःख में
प्राण-निष्प्राण में।
मैंने कहा—
जिसे देखा नहीं
सुना नहीं
कौन है
ठीक-ठीक

इसका भी प्रमाण नहीं
कैसे विश्वास कर सकते हो?
वह भड़क गए कहा—
कण-कण नतमस्तक करते हैं जिसे
वह है
जबसे सृष्टि है
वह नहीं
सृष्टि भी नहीं रहेगी।
मैंने कहा—
अभी आपने बोला
उसका न आदि है न अंत
अब आप कह रहे हैं
वह सृष्टि से है
इसके अंत में ही उसका अंत।

उन्होंने बड़े ज्ञान से कहा—
गीता पढ़ी है?
पढ़ी होती तो मूर्ख नहीं बनते
सब सार समझ आते
तुम मुक्त हो जाते।
मैंने पूछा—
आपने पढ़ी है?
गर्दन उठाकर उन्होंने कहा—
हाँ, सबको सुनाता भी हूँ।
मैंने कहा—
लगता नहीं
अब भी ज्ञान और जाति के
अहं से मुक्त नहीं हुए
आत्मा को मुक्त कैसे कर लिया?
वह बौखला गए कहा—
अपने संस्कार और धर्म पर
प्रश्न नहीं करते
उससे प्रेम करते हैं
जतन से पालते हैं
लगता है किसी दूसरे देस
या धर्म से हो
हमारे लोग सवाल नहीं करते।

मैंने मुस्कुरा कर कहा—
न मेरा धर्म अलग
न देस
मैं भी दो हाथ
दो पैर
दो आँख
एक दिमाग़
एक ज़बान रखती हूँ
जो प्रेम तार्किक होने की
शक्ति नहीं देता
विचार साझा करने की
आज़ादी नहीं देता
उस सिर तक भरे अकीन से
ज़हरीला और अकराल
कुछ भी नहीं।
उन्होंने अभिमान से कहा—
गीता पढ़ो
सारे जवाब मिल जाएँगे
कौन कहाँ से आया
कहाँ जाएगा
उसके भी बाद का ज्ञान हो जाएगा।
मैंने पूछा—
जिसे देखा नहीं उसके बारे में भी?
ग़ुस्से से काँपते वह बोले—
मूर्ख! किसी के विश्वास पर सवाल नहीं उठाते
उसका सम्मान करते हैं
ये संस्कार की बातें
घुमक्कड़ों के पास नहीं होती।

मैंने हाथ जोड़कर कहा—
माफ़ कीजिए
मैंने आपके विश्वास पर नहीं
चेतना के वशीभूत सवाल किया
क्या-क्यों-कैसे है?
उसकी अनिवार्यता क्या है?
सवाल आम है
किसी को जानने-समझने की
सवाल पहली सीढ़ी है।
कड़कपन से वह बोले—
यह जानना-समझना
उसके लिए नहीं
जो यथार्थ है शक्ति से भरा हुआ है
जिसने तुम्हें और मुझे बनाया।
मैंने कहा—
हमें
हमारे माता-पिता ने बनाया
ख़ुद को सँभाल सकें
इतनी शक्ति डाली है अंदर
यह कैसा यथार्थ है
जिसकी समीक्षा नए पन्नों पर नहीं?

वह तमतमा गए—
क्या तुम ब्राह्मण हो?
बता रहे हो सही क्या है?
ग़लत क्या है?
आस्था सही-ग़लत से परे है।
मैंने कहा—
सही-ग़लत का आधार
हर मनुष्य का अपना निजी है
जिस काम को करने में
आत्मा मुझे छोड़ जाए
दूसरों के संताप का कारण बने
सीधा-सीधा ग़लत है।

वह अब अकुला गए
मेरे हाथ में गीता थमा बोले—
इसे पढ़ो
सारी चेतना शांत हो जाएगी।
मैंने कहा—
चेतना का शांत होना
शरीर के मरने से अधिक दुःखदायी है ।

मैंने गीता उठाई और
विश्वास के साथ पढ़ने लगी।


सुजाता गुप्ता की कविताओं के प्रकाशन यह ‘सदानीरा’ पर यह दूसरा अवसर है। इस प्रस्तुति से ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित उनकी कविताओं तथा उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : गिरे हुए पत्ते नहीं देख पाते अपना वसंत

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