कविताएँ ::
विवेक कुमार शुक्ल

विवेक कुमार शुक्ल

देवरिया के लड़के

देवरिया के लड़कों में रहता है देवरिया
जैसे आकाश में नमी
जैसे सोता है पृथ्वी में अंकुर

देवरिया के लड़के
देवरिया के बाहर ख़ुद को गोरखपुर का बताते हैं
और देवरिया का कहे जाने पर
‘चुपा’ जाते हैं

देवरिया के लड़के
जिनके लिए जीवन हनुमान मंदिर से
बाबा राघव दास स्नातकोत्तर महाविद्यालय
—जिसे वे बीआरडी कहते हैं—के सामने से
गुज़रने वाली रेलवे क्रॉसिंग तक की यात्रा है

कभी-कभी होता है उनके पास पिता का चेतक स्कूटर
जिसे चलाते हुए उनकी एकमात्र ख़्वाहिश है कि
उनकी शर्ट फूल जाए डिब्बे की तरह

देवरिया के लड़के खो जाते हैं
हर साल किसी बड़े शहर में
जहाँ कोई देवरिया का नाम तक नहीं जानता
उस अनजानी भीड़ में वे बुदबुदाते रहते हैं—
शहर का पिनकोड
—दो सात चार शून्य शून्य एक
दो सात चार शून्य शून्य एक
दो सात चार शून्य शून्य एक—
किसी मंत्र की तरह
कि अकेले नहीं वे

उन्हें होना था किसी का प्रेम
उन्हें चढ़ानी थी किसी की साइकिल की उतरी चेन
पर या तो उन्हें हो सकने वाली प्रेमिकाओं का भाई बना दिया गया
या ठहाके लगाकर हँसती बेपरवाह प्रेमिकाओं को उन्होंने कहा दीदी
कि देवरिया में लड़कियों से बात करने का यही संबोधन निश्चित था—
ख़ुद में सिकुड़े और अपने होने में अनिश्चित देवरिया के लड़कों के लिए

वे जो बहुत ख़ुशक़िस्मत थे
बाबा राघव दास स्नातकोत्तर महाविद्यालय की छत पर
एक अधूरे चुम्बन की स्मृति बनकर रह गए
जिसका स्वाद रात-बिरात
उनके सपनों का स्वाद मीठा कर जाता है—
पीछे रह जाने वाली ग्लानि के साथ

देवरिया के लड़के
जिन्हें सीखनी थी
‘ब्रिटिश और अमेरिकी लोगों से फ़ेस टू फ़ेस अँग्रेज़ी’
वे रटते रहे अँग्रेज़ी के टेंस किसी क्लास में

उन्हें करनी थी सरकारी नौकरियाँ
पर जब साल-दर-साल बाँस-पेपर के लिफ़ाफ़े
डाकखाने के लाल बक्से के सुपुर्द कर भी नहीं आई वह चिट्ठी
तब वे काला कोट पहनकर
वक़ील पिता के तख़्ते पर बैठ गए कचहरी में
या घर के आगे टीनशेड डालकर पढ़ाने लग गए ट्यूशन

देवरिया के लड़के
जो चले गए थे दूर शहर से
जिनके उदाहरण दिए जाते थे शहर में
अक्सर उदास रहते थे
और किसी गई रात
अकेलेपन में धुत्त होकर बड़बड़ाते थे
शहर का पिनकोड—
दो सात चार शून्य शून्य एक
दो सात चार शून्य शून्य एक
दो सात चार शून्य शून्य एक

देवरिया की लड़कियाँ

दीये की लौ की तरह
मद्धम-मद्धम जलती हैं वे
अपनी देह की आँच में

प्रेम उतरता है उनके जीवन में सूर्यास्त की तरह
जब वे सूखे कपड़े लाने छत पर जाती हैं
गोधूलि का यह समय ही होता है उनका निजी एकांत
जब वे प्रेम से बतियाती हैं अपनी भाषा में

उनके प्रेम को पार करने होते हैं
भाई, पिता, परिवार, रिश्तेदार, मुहल्लेवालों के चक्रव्यूह

कॉलेज आते हुए वे धीमी कर लेती हैं अपनी चाल
या बारहा उतर जाती है उनकी साइकिल की चेन
कि वे देख सकें प्रेम को नज़र भर

उनके प्रेमपत्रों में अक्सर होती हैं वर्तनी की ग़लतियाँ
जैसे भाषा साथ न दे रही हो उनका

भाषा जिसमें सीमित कर दिए गए हैं उनके शब्द—
हींग, ज़ीरा, बघार, बन्ना तक

उनके पास नहीं हैं शब्द
देह में उमड़ती तितलियों की उड़ान के लिए

उनसे छीन लिए गए हैं शब्द
वसंत, स्पर्श, कंपन, मधुमास
कि वे हाथ से निकल न जाएँ

वे लिखती हैं प्रेम को
दाल की बघार
धनिए की ख़ुशबू
अमावट का खट-मिठ्ठा स्वाद

वे चाहती हैं कि प्रेम को सँजो सकें
देह के मर्तबान में—
आँवले के अचार की तरह

चक्रव्यूह में रास्ता तलाशती लड़कियाँ
कभी-कभी पा लेती हैं प्रेम
तो पिता बात करना बंद कर देते हैं उनसे
भाई सालों नहीं बाँधते राखी अपने हाथ पर
रिश्तेदार कहते हैं कि कर दिया जाए उनका श्राद्ध
मान लिया जाए उन्हें मृत

उन्हें चुनना होता है—
प्रेम और घर में किसी एक को

घर से निकली इन लड़कियों के
नए घर में अक्सर मिलता है
अमर स्टूडियो के पोस्टकार्ड पिक्चरों का एक कोलाज
जिस पर लिखी होती हैं—
‘होगी प्यार की जीत’ या ‘love Wins’ जैसी सतरें

घर की तरह ही नदारद होता है
इस कोलाज से फ़्रेम
जैसे छोड़ आई हों
लक्ष्मण-रेखाओं का चौखटा बहुत पीछे
देवरिया की लड़कियाँ!

देवरिया में आत्महत्या

वास्तव में वह दुपहर आत्महत्या करने लायक़ नहीं थी
जब शहर हनुमान मंदिर के ताज़ा छने समोसों के करारेपन में डूबा था
और समय गोलगप्पों में पानी की तरह भरा जा रहा था
और मेरे पास आत्महत्या करने की कोई ठोस कही जा सकने वाली वजह भी नहीं थी
पर जैसे दुनिया में लाखों चीज़ों के होने की कोई वजह नहीं होती
और वे घटती रहती हैं इर्द-गिर्द
आत्महत्या भी उन चीज़ों की फ़ेहरिस्त में महीन अक्षरों में लिखी थी

आत्महत्या के तरीक़ों के बारे में देर तक सोचने के बाद
मैं एक तेज़ चाक़ू ख़रीदने मालवीय रोड की ओर चला गया
मैंने सोच रखा था कि चाक़ू की तेज़ धार भीतर उतरते-उतरते
मैं शांति से भर जाऊँगा
पर मैंने पाया कि वह शनिवार का दिन था
और बंद थीं बर्तन बेचने की दुकानें
देवरिया में शनिवार को लोहा ख़रीदने-बेचने पर ग्रहों की पाबंदी थी

मुझे लगा दूसरा आसान तरीक़ा होगा
चूहेमार दवा या सल्फ़ास खाने का
चूहेमार दवा बेचने वाली दुकानें
अतिक्रमण हटाओ अभियान में तोड़ दी गई थीं
इसलिए मैं सल्फ़ास ख़रीदने मोतीलाल रोड की दवा की दुकानों की ओर बढ़ गया
पर दुकानदार ने बताया कि सारा सल्फ़ास गन्ना-किसान ख़रीद ले गए हैं
जिनकी पर्चियाँ अब तक नग़द नहीं हुईं
और चीनी मिल कब की बंद हो गई
जो थोड़ा सल्फ़ास बचा था
वे असफल प्रेमियों, परीक्षा में फ़ेल हुए विद्यार्थियों,
जबरिया शादी के लिए मना नहीं कर पा रही लड़कियों
और बाबा राघव दास स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
संत विनोबा से निकले बेरोज़गारों के लिए आरक्षित था
मैं इनमें से कोई नहीं था
और जैसा कि मैंने बताया—
नहीं थी मेरे पास आत्महत्या की कोई ठोस वजह
कि उसके वज़न से ही पसीज जाए दुकानदार का दिल
और मुझे मिल जाए थोड़ा-सा सल्फ़ास

कोई और रास्ता न देखकर मैं बढ़ गया स्टेशन की ओर
कि किसी आती जाती ट्रेन के नीचे आ जाऊँगा
हालाँकि आत्महत्या की यह तकनीक एक पीढ़ी पुरानी थी
और तब के असफल प्रेमियों का तरीक़ा हुआ करती थी

स्टेशन जाने पर मालूम हुआ कि उन दिनों पैसेंजर ट्रेनें बंद थीं
सरकार ने मान लिया था कि
ग़रीब अब हवाई चप्पलें पहने उड़ते हैं जहाज़ों में
या निकल पड़ते हैं दिल्ली-मुंबई से पैदल ही गाँव की ओर

स्टेशन के बोर्ड ने बताया कि एक्सप्रेस ट्रेन कहीं रास्ते में हैं
पर उन दिनों एक्सप्रेस ट्रेनें इतना भटकती थीं
कि उनके आने का इंतिज़ार वैसे ही बेमानी था
जैसे देवरिया के राजकीय पुस्तकालय में नई किताबों के आने का

मुझे आत्महत्या की इतनी ज़ल्दी थी
कि मुझसे नहीं हुआ इंतिज़ार एक्सप्रेस ट्रेन का
और मैं बढ़ गया कुरना नदी की ओर
पर कुरना नदी नाले में बदल चुकी थी
और नदियों को फिर से बहाने,
उन पर कविताएँ लिखने वाले,
कुरना को फिर से नदी बनाने की बात करने वाले
अधिकारी का तबादला अलीगढ़ कर दिया गया था
कि वह पूछता रहता था सवाल—
‘कुँवरवर्ती कैसे बहे’1कवि-मित्र राकेश पटेल के एक कविता-संग्रह का शीर्षक।

मेरे पास अब भी नहीं है
आत्महत्या के लिए ठोस कही जा सकने वाली वजह
मैं अब भी आत्महत्या के न चूकने वाले तरीक़ों की तलाश में
देवरिया में हूँ!

देवरिया से—

हनुमान मंदिर के सामने
क्या अब भी बैडमिंटन खेलते हैं
मेरे शहर के सब्ज़ीफ़रोश
गर्मी की रातों में
जब आरती की आख़िरी घंटी बजाता है कोई
बच्चे क्या अब भी लाते हैं बर्फ़
सूरज टॉकीज़ के ठंडाघर से
क्या अब भी होते हैं नाटक
कोऑपरेटिव के हॉल में
अब भी क्या लगता है
मेला उस मैदान में
अब भी गौरैया आती है आँगन में
क्या अब भी आधी तनख़्वाह पाते हैं आचार्य जी
और छात्रों को बनाते है मुर्ग़ा
क्या अब भी उगता है सूरज ओवरब्रिज पर
अब भी चाँद सुनाता है ग़ज़लें
बोलो न देवरिया!

मनही भर देवरिया

बारिश के बाद रह जाता है
अरुई के पत्ते पर अटका अंजुरी भर पानी
वसंत की प्रतीक्षा में
ठिठकी रहती है एक कली
ठूँठ बन गए पेड़ पर
वसंत जिसके आगमन की तारीख़ें
टलती जाती है साल-दर-साल

भरी ट्रेन में भी रह जाती है—
एक ख़ाली सीट
जिसे भरने सिर्फ़ रोशनियाँ आती हैं—
स्टेशन-दर-स्टेशन

रह जाता है चंद्रमा के नीचे
सुतही भर अँधेरा
दशगात्र2मृत्यु के दसवें दिन होने वाला एक अनुष्ठान। के बाद प्रियजन—
दीवार पर लटकी तस्वीरों में

लौटते हैं प्यासे पुरखे
पितृपक्ष में
तर्पण तलाशते

हँसी की कौंध में चमक जाता है दुःख

धान की डेहरी में
मनही की तरह
सोता है मेरे भीतर
देवरिया…


विवेक कुमार शुक्ल का जन्म देवरिया (उत्तर प्रदेश) में हुआ तथा उच्च शिक्षा गोरखपुर विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से। उनकी पहली कहानी ‘वागर्थ’ में 1999 किसी महीने में प्रकाशित हुई। इसके बाद कुछ कविताएँ और गद्य ‘पहल’, ‘समालोचन’ और ‘इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी’ में प्रकाशित। पहला उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य। फ़िलहाल आरहुस विश्विद्यालय, डेनमार्क में हिंदी अध्यापन। उनसे vivekkumarjnu@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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