कविताएँ ::
यशस्वी पाठक
एक
आते रहे विचार फटे पुराने पीले पन्नों से
हल्के-फुल्के, भटकते-बिचरते
भूली-बिसरी घटनाओं की डाँवाडोल झलकियाँ भी आईं
बरसाती रातों वाले हुआँ-हुआँ करते मरियल सियार
बुआ के सरकारी मकान का छुई-मुई वाला अहाता आया ध्यान में
पहाड़ी नीम के फूलों पर भन्नाती मधुमक्खियाँ आईं
करीवा आम का भीमकाय वृक्ष भी आया—
जड़ों, फलों, माटों, और मोरों समेत
आए अम्मा के बेना बनाते फुलरा लगाते हाथ
आई झकास उनके रेशमी बालों से उठती हिमगंगे की
धान रोपाई के बाद बाबा की चुचकी उँगलियाँ आईं
आया दाहिने पैर का सड़ा अँगूठा
पाँखी उठने के डर से गोधूलि के पहले
हाली-हाली खाना पकाती चाची की जल्दबाज़ी आई
गीतमाला सुनाने वाला चाचा का रेडियो आया घिर्र-घिर्र करता
ख़रगोश, घोड़े, चिड़िया कढ़े स्वेटर का,
ढंगलियाता आया मरून-सफ़ेद ऊन का गोला
माँ बुनती थीं जिसे लालटेन की नारंगी-बैगनी रौशनी में
तिर आया केवटहिया की लालमनी का चेहरा
जिसे नाम लिखना सिखाया था लकड़ी से ज़मीन पर
आई उसकी लखानी की एड़ियाँ कटी
नीली बद्धियों वाली चप्पल चटर-चटर करती
आए संस्कृत वाले के.डी. पांडे गुरुजी
पाणिनी महेश्वर सूत्र पढ़ाते—
ख, फ, छ, ठ, थ, च, ट, त, व
आया महबूब के पके शहतूत से होंठों का ख़याल भी
घी-गुड़-रोटी का स्वाद भी
धँसे गालों, उल्टे बालों, काले कंचे-सी आँखों वाले रिल्के आए
रोम से पत्र लिखते काप्पुस को
आ गई सुबह की रौशनी परदों से छनकर बिछौने तक
नहीं आई वह कविता जो फँसी थी हलक़ में गेहूँ के टूँड़-सी
जिसने जगाये रखा भिनसारे तक।
दो
अप्रसिद्धि बचाती है
प्रतिस्पर्धा की प्रताड़ना से
सुंदर, श्रेयस्कर बने रहने की बोझिल लालसा से
क़ाबिलियत की करोनी को,
देसी घी साबित करने से
वह बचा लेती है आलिमो-फ़ाज़िल के नीले अँगूठों की अभिलाषा से
गुटों में सुरक्षित बैठ
प्रतिक्रियाओं को मतों की तरह गिनने से बचाती है अप्रसिद्धि
बचाती है वह शर्मिंदा न होने भर जितनी ईमानदारी
प्रशंसाओं के प्लावन में
आत्म-चेतन की कसौटी का,
चूल्हा जोड़ने भर बख़्शती है ईंधन
‘अहं’ की नाक पर,
अप्रसिद्धि आ बैठती है
मक्खी की तरह,
महानता को मामूली बनाती हुई
वह रखती है—
किसी दिन अप्रसिद्ध हो जाने
या कर दिए जाने के भय से मुक्त
कीर्ति-व्यवसायियों के चढ़ते शेयर मार्केट में
संबंधों के निर्मम यांत्रिकीकरण
और अभिनय के दैनिक रिहर्सल से बचकर
अप्रसिद्ध रहने का पुरज़ोर प्रयास करता
अंतर्मुखी मन
मानुष प्रवृत्ति से विवश हो किस ओर जाए?
न जाए बीच लोगों के तो
जहाँ
पंजे झाड़कर बैठी है प्रसिद्धि।
तीन
चेतन-निश्चेतन को तरंगित कर रही छठी इंद्री
बिधने की कोई सीमा नहीं
बेधने के अधिकार से अधिक है कोई अधिकार क्या?
प्यासा हरियल खोजता तालाब आकाश में!
ताल पर तबले की तलवे क्षत हैं
हैं मगर आनंद के मद में चूर
सर्द साँसों की सुइयाँ सिलती हैं कलेजा
सालता है सुख कैसे जानता है वह अकेला
गुण-औगुण सब उसके लेखे
वह जो याचक है, करता नहीं जो याचना
सौंपकर स्वत्व मुझको करता नित आत्म-रचना
जानता है वह—पराजय, जय है, जय ही पराजय
रुग्ण, विक्षिप्त, सिहरता, चिहुँकता
मन मेरा कोमल, करुण
करे न स्वीकार जय अपनी
अस्वीकृत है उसकी पराजय।
चार
जिन शब्दों के कोई अर्थ नहीं थे
उन्हें निरर्थक शब्द कहा गया
निरर्थक शब्द बच्चों की ज़बान पर चहकते-मचलते रहे
सार्थक शब्दों को समझदार-नासमझ मनुष्यों ने
दुलारा, गुद-गुदाया, चबाया, हवा में उछाला, ज़मीन पर पटका, एड़ियों से रगड़ा, उठाया, चूमा
प्रत्येक क्रिया में अर्थ निकलते रहे
घर, परिवार, दोस्त, अख़बार, टी.वी., बाज़ार, दफ़्तर, इंटरनेट, फ़ेसबुक, आभास युग, हवा-पानी, धरती-आकाश, वायुमंडल, अंतरिक्ष
बक-बक, बकर-बकर, चपड़-चपड़
शब्द-शब्द, बात-बात, अर्थ-अर्थ
सब सार्थक
दुनिया सार्थक शब्दों से भर चुकी है
ठसाठस
शब्दों ने मुझे, तुम्हें, उन्हें, उन्हें, उन्हें, उन सबको, हम सबको कस लिया है
दूरियों को धक्का मारकर गिराया जा चुका है
उच्चारण स्थानों पर चिपके निरर्थक शब्द मौन हैं
सार्थक शब्दों के शोक में
शब्द-शक्ति विस्फोटक हो चुकी है और दुनिया निरर्थक।
पाँच
इतनी वाचालता का क्या करूँ कि
आ जाए स्वयं को प्रायोजित करना
महामहिमों, धुरंधरों, श्री और जी के बीच
स्थापित करना स्थापितों-प्रतिष्ठितों के बीच
इतनी औसरवादिता का क्या करूँ कि
लोटे की ढंगलियाहट और मेरी खिसियाहट में
भेद न हो जीव और निर्जीव का
भेद न हो हाड़-मांस, ताँबा-पीतल
धातु और पाषाण का
इतनी स्वार्थपरकता का क्या करूँ कि
घर से निकलूँ शहर की रेल पकड़ने तो
चौखट पर धरे
जल-अक्षत-पुष्प भरे
कलसे को देख
भरे न गला, रुँधे न गला
इतनी परिपक्वता का क्या करूँ कि
संबंधों की चरमराहट
टूटने-बिखने की आहट
उधड़े की सजावट और बनावट से
फटे न कलेजा, तन-मन गले न अकेला
ऐसी व्यवहार-कुशलता का क्या करूँ कि
प्रोफ़ेसर के कप में जमी चाय की मलाई भी
सूट, बेल्ट और टाई भी
लगे शोध का विषय
और विश्वविद्यालय के छज्जों में
उल्टे लटकते चमगादड़ों पर आ जाए रश्क
इतनी निर्भीकता का क्या करूँ कि
चुगते खेत परिंद को
ढेला मार उड़ा दूँ
सोते बच्चे को जगा दूँ
धुआँ कर दूँ कुनबा मधुमक्खी का
दुखे न दिल, दिल दुखाने से किसी का
इतनी मनुष्यता का क्या करूँ कि
पद, प्रतिष्ठा, संपत्ति, सफलता
उदारवादिता, तार्किकता, आधुनिकता
परिवार, सगे-संबंधी और मित्रता
पीर-ओ-मुर्शिद, शाह-ओ-गदा
जिधर जाए नज़र दिखे सबमें घुन
करूँ क्या विवशता?
क्या करूँ विकलता?
छह
सवाना घास के मैदानों से
अवध के खेत और खलिहानों तक
केटू गॉडविन से रावलपिंडी
चीनी गाँव की पगडंडी तक
अमरीकी-यूरोपीय क्रांतियों से
उपनिषदों की भ्रांतियों तक
इंडस्ट्रियल रेवल्युशन से
चैट जीपीटी के एवल्यूशन तक
मेसोपोटामिया से हड़प्पा
बोधिसत्त्व से बासवन्ना तक
सत्रीया से बिरहा और राग हिंडोल
कहो मजाज़! राज सिंघासन डावाँडोल?
मुर्ग़ी से मच्छर, मानुष और बंदर तक
अलबरूनी से आल्हा और ऊदल तक
तिर्यक से समतल, क्षोभ से बाह्य मंडल तक
मंदिर, मस्जिद, मंडल और कमंडल तक
कवक, शैवाल से सीपी-मोती-कंचन तक
बाग़-ए-अदन से दैत्य-देव के सागर मंथन तक
‘जय’ और ‘हू’ के नारों वाले पैरानॉर्मल
सागररत्ना फ़िल्टर कॉफ़ी, इडली और साम्भर
कामसूत्र से अजंता और एलोरा तक
स्वर्ग की रात में क़ैद दोज़ख़ का सवेरा तक
टैगा से टुंड्रा तक
नील से लेकर गंगा तक
सब दुःख से भागने वाले
सब सुख के भोगने वाले
जान से प्यारी प्रेयसी भी
प्राण पियारा प्रियतम भी
हिंसक और अहिंसक भी
धर्मी और विधर्मी भी
भूख की रोटी लूटने वाले
दान का पानी बाँटने वाले
एक दिन में सबका दिन होगा
एक रात में सबकी रातें
एक दिन सबमें मिथ्या होगी
एक रात में सब अफ़साने।
सात
माँ मुझे चुप्पी लड़की कहती रही
बहनें लड़ाका
दोस्तों ने प्यारा कहा
परिचितों ने भोली
तुम्हारे साथ रहते मैंने जाना
मैं एक भूखा भेड़िया हूँ
जिसकी ग़िज़ा तुम्हारे पास है
एक पागल कुत्ता हूँ
जो किसी भी वक़्त तुम पर हमला कर सकता है
दबाकर रखी गई चीख़ हूँ
जो तुम्हें बावला कर सकती है
धूल चाटता घायल शिकार
मेरा मरहम तुम्हारे पास है
किस प्रतिशोध में दहकती आग, अब याद नहीं
मुझे तुम्हारी आँखों की नहरें बुझा सकती हैं
मेरी बात ध्यान से सुनो—
तुम्हारी आँखों में मुझे मनुष्यता दिखी है
अपने सारे हथियार मेरे क़दमों में डाल दो
मैं विह्वल प्रेमी हूँ
जिसके बारे में तुम कुछ नहीं कर सकते
प्रिय! प्रेम की अधीनता स्वीकार करो
जिसमें तुम्हारी वास्तविक स्वतंत्रता निहित है
राजा की दैवीय शक्तियों को नकार कर
सदियों पहले हुए सामाजिक समझौते से
किसका भला हुआ?
राज्य की उत्पत्ति से किसका कल हुआ?
तुम जो मुझे दे सकते हो
वह सब कुछ तुम्हें किसने दिया?
मुझे घायल किसने किया?
तंत्रलोक वाद समाज में मेरी हैसियत क्या?
तुममें मुझमें हमसरी है क्या?
मेरी बात ध्यान से सुनो—
यह प्रणय का विलुप्त होता सिद्धांत है
आओ मेरे हाथ पर बै’अत करो
ठीक वैसे ही जैसे मैंने तुम्हारे हाथ पर की है
तुम्हारी आँखों में मुझे मनुष्यता दिखी है
प्रेम की अधीनता स्वीकार करो
जिसमें तुम्हारी वास्तविक स्वतंत्रता निहित है।
आठ
अंदर झाँकती हूँ तो खुलता है किवाड़
मशीन वाले कमरे का
सब कुछ दीखता है भीतर
मशीन वाले कमरे जैसा
इस कमरे का दिल
पानी की टंकी का इंजन था
इंजन के नाफ़ का हिस्सा
कमरे के वायव्य कोण में गाड़ दिया गया था
कि धरती के सूखते हलक़ से
पानी खींच लाने की अथक मेहनत से
खिसक न जाए किसी दिन इंजन की नाभि
सालों-साल अपने कमरे में
फटफटाता, धकधकाता, अगझता रहा इंजन
अपने अपने कमरों में जैसे रँभाते हैं हम
आस-पास के खेतों की
रबी, ख़रीफ़ और जायद होती थीं मगन
जिन्हें देख मेरा बाबा ख़ुश होता था
बाबा को देख मेरी अम्मा
मशीन वाला कमरा पागल था
लोग भी बेनियाज़ थे उसकी बाबत
उसके भीतर अपनी स्मृति
अपनी महत्ता खो चुकी इतनी चीज़ें थीं कि
जिनसे बनाई जा सकती थी पूरी-पूरी गृहस्थी
नहीं था उसके भीतर कुछ भी ऐसा
जिसमें ज़रा भी कम हो जिजीविषा
वहाँ जो कुछ था वैराग्य पैदा करता था—
एक धुंधला शीशा और टूटे दाँतों वाली बूढ़ी कंघी
मोबिल-केरोसिन, उबासी लेती घड़ी
यूरिया-पोटाश, खरी, बेरन, पोषाहार
झौआ, मुंगरी, दबिला, तसला, पाइप, फरुहा, टूटा गिटार
अनाज ओसाने का पंखा, तराज़ू-बटखरा
बासी पेपरों के दो-चार गट्ठर
निमंत्रण-पत्रों के बंडल
मकड़े के जाले, मूसों की लेड़ियाँ
देवी-देवताओं की खंडित मूर्तियाँ
मेहमानों का इस्तक़बाल करती दो चौकियाँ
जिस पर सोती थीं बिल्लियाँ
सूती कुर्ते और फटी धोतियाँ
खद्दर की बदरंग चादर, चार-पाँच दरियाँ
एक टूटी पलँग, पाँच बिड़वा, दो मचिया
हैंगर में टँगी फफूँदज़दा जैकेट
पत्तल, दोनों के पैकेट
सब्ज़ियों-फूलों के बीज, ग़ज़लों के कैसेट
नेगेटिव ख़ाकों की रील, एक पेट्रोमैक्स
अलमारी में बिखरी अठन्नी-चवन्नी, ताले और चाभियाँ
मुरचाई निब पेन और स्याही की शीशियाँ
मज़दूरों के कप, प्लेट और गिलास
सैकड़ों नामों वाली एक डायरी
रखती थी जो लग्न में मिले रुपयों का हिसाब
पत्रिकाओं, किताबों के ढेर
ढेर के नीचे दीमकों की रेल
पागल कमरे की दिलजोई करने
खिड़की से आई थी
मोगरे की एक बेल
इन्हीं रद्दी-भद्दी, आधी-पौनी
कटी-छँटी, मिटी-बची
तमाम तमाम वस्तुओं से अटा था
मशीन वाला कमरा
अन्दर झाँकती हूँ तो खुलती है किवाड़
मशीन वाले कमरे की
मशीन वाला कमरा पागल था
लोग भी बेनियाज़ थे उसकी बाबत
मैं भी।
नौ
पिता जब निराश होते हैं
तब सिलने बैठते हैं
अपना सिलन खुला कुर्ता
टेढ़े-मेढ़े डोभ लगाते
वह इतना डूब जाते हैं
कुर्ते का घाव भरने में
कि उस समय वह सिल सकते हैं सब कुछ
जहाँ-जहाँ जो कुछ भी कटा-फटा है
जो फटा-कटा नहीं है वह भी
वह रफ़ू कर सकते हैं सारी खोंग
अंदर से लेकर बाहर तक
दर्ज़ी! किस साँसत का सिला है कि वह
कुर्ते की खुली सिलन ही सिल पाते हैं।
दस
आराम से पढ़ूँगी तुम्हें
कहीं कोई रुआँ बाक़ी न रहेगा
आहिस्ता चखूँगी तुम्हारे होंठों पर रखी बात
मिलते हुए भवों के बिरड़ जंगलों में भटकूँगी
मुझसे पूछते हो,
मैं तुमसे आँखें मिलाने से कतराती क्यों हूँ?
तुम्हारे इस सवाल का क्या जवाब दूँ तुम्हें?
तुम चाहते हो : मैं तुम्हें पढ़ती जाऊँ
तुम्हारी किताबों के पाठक की तरह नहीं
बल्कि उस तरह जैसे दिल से देखने वाले पढ़ते हैं ब्रेल लिपि
तुम्हारे माथे के शफ्फ़ाफ़ गगन में झूमते काले बादल
जब नाद-निनाद से थकते हैं
तब कनपटी पर नुमूदार होती हैं पसीने की नन्ही बूँदें
इन्हें अपनी उँगलियों की सतह पर महसूस करना
मुझे ज़िंदगी से भर देता है
तुम्हारी हथेलियाँ रबर की पत्तियाँ हैं
जिनमें उगी लाल धारियों की धुन
कान लगा सुनने को जी चाहता है
तुम्हें अपनी ओर आते देखना या
किसी स्टेशन पर मेरे इंतिज़ार में खड़े हुए पाना
मेरी धड़कनों की रफ़्तार बढ़ा देता है
तुम्हारा वजूद मेरी दुनिया के सुंदर होने की गवाही है
तुम लफ़्ज़ों के ख़ुदा हो
मैं तुम पर ईमान लाने वाली वाहिद लड़की
मुझ पर फ़र्ज़ है कि मैं तुम्हें हिफ़्ज़ कर लूँ।
यशस्वी पाठक हिंदी की नई पीढ़ी की कवि-लेखक हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। इससे पूर्व उनकी कुछ कविताएँ ‘पोषम पा’ पर प्रकाशित हो चुकी हैं। यशस्वी सुल्तानपुर (उत्तर प्रदेश) से हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी पत्रकारिता (2020) और राजनीति विज्ञान (2022) में परास्नातक किया है। उनसे yashasvi22001@gmail.com पर बात की जा सकती है।