कविताएँ ::
यशवंत कुमार

यशवंत कुमार

माँ का ब्लाउज़

माँ के सिले हुए ब्लाउज़ से
मैंने नागरिक शास्त्र की
कितनी ही किताबें ख़रीद डालीं

बाबू जी ने भी
अपनी पहली साइकिल
माँ के सिले हुए
ब्लाउज़ से ही ख़रीदी

माँ का सिला हुआ
ब्लाउज़ पहनकर जब
दीदी ससुराल जा रही थीं
और माँ दीदी के कंधों पर
दहाड़ मारकर रो रही थीं
तभी मैंने
माँ का फटा हुआ ब्लाउज़ देखा
जिसे उन्होंने कभी
रफ़ू नहीं किया।

शहर

एक

जब भी बीमार हुआ
फ़ौरन गाँव की रेल पकड़ी

मैं उस जगह पर
मरना नहीं चाहता था
जहाँ लोग जीते जी मर रहे थे
और मरते हुए जी रहे थे

मैं उस जगह पर
मरना नहीं चाहता था
जहाँ ‘मरने’ शब्द का
अर्थ-विच्छेद हो गया हो

दो

फ़ोन पर पहले
सिसकने की आवाज़ आई
फिर एक अधूरा वाक्य बिखर गया—
‘माँ अब नहीं रहीं’

एक दिन इसी तरह का
फिर कोई फ़ोन आएगा
और कहा जाएगा—
‘पिता अब नहीं रहे’

मैं उनके जीवन में
उत्सव की तरह आया था
वे मेरे जीवन से महज़
एक सूचना की तरह गए

तीन

ऐसे कई मौक़े आए
जब मैंने चाहा
कि मैं इतनी ज़ोर से चिल्लाऊँ
कि पूरा शहर अगर सो रहा हो तो
अपनी नींद खो बैठे
पर मैंने इन सभी मौक़ों पर
केवल एक सिसकी से काम चलाया
शहर ने मुझे मितव्ययी होना सिखाया था

मीना

माँ जब काफ़ी बूढ़ी हो गई थीं
तब ज़ेवर के नाम पर
उनके पास केवल
दो मीने शेष रह गए थे

वह जब भी हमारे चेहरे पर
ज़रा भी शिकन देखतीं
तब कहतीं—
‘जा बेच दs एके…’

बड़ी अम्मा कहती थीं कि
ये मीने माँ की शादी में
उनके नैहर से मिले थे
और काफ़ी भारी थे

माँ को लगता था—
इन मीनों को बेचकर
दुनिया की कोई भी समस्या
हल की जा सकती है

माँ हमारे लिए
अपनी हर एक चीज़ बेच देने को
आतुर रहती थीं
वह भले ही उन्हें
बेहद प्यारी क्यों न हो

माँ ऐसी जौहरी थीं
जिन्हें लाभ नहीं कमाना था

माँ ने पहली बार जब
पिता को क़र्ज़ में फँसे देखा
तो बिना किसी ज़िरह के
अपनी अँगूठी दे दी
दूसरी बार रेहन पर रखे खेत छुड़ाने के लिए
उन्होने अपना कर्णफूल बेचा था

ऐसे कितने ही मौक़े आए और आते रहे

एक बार दीदी के इलाज के लिए
उन्होंने अपना कंगन बेचा और
बुआ की बीमारी में अपनी हँसुली

इस तरह वह धीरे-धीरे
ख़ाली होती गई
और अब उनके पास
केवल पैर के यही दो मीने
बचे रह गए थे
और उन्हें भी वह
दे देना चाहती थीं

हमारे हर दु:ख के बदले
उनके पास कोई न कोई आभूषण था
वह दु:ख का मूल्य समझती थीं

फिर एक दिन आया
जब उन्हें लगा कि
अब वह ज़्यादा दिन नहीं रहेंगी

वह कराह रही थीं
और लोगों से माफ़ी माँग रही थीं

ठीक उसी वक़्त
हम माँ के विछोह के बारे में कम
और उनके दाह-संस्कार के
ख़र्च के जुगाड़ के बारे में
ज़्यादा सोच रहे थे

माँ ने अपने अंतिम समय की
घोर व्यस्तता के बीच
चुपके से हमारा चेहरा देखा होगा
और मन ही मन हँसी होंगी
वह दु:ख की पुरानी साथिन थीं

उनके पास सामर्थ्य नहीं था
लेकिन वह उठीं
और लेटे-लेटे ही किसी तरह
अपने पैरों तक झुकीं
और अपने दोनों मीने निकालकर
हमारे हाथों में रख दिए और बोलीं—
‘जा बेच दs एके…’

खजूर

जो दवा दूध से खानी थी
उसके लिए पानी से ज़्यादा
कुछ भी उपलब्ध नहीं था

पानी अगर अथाह नहीं होता
तो पानी भी उपलब्ध नहीं होता
शायद!

डॉक्टर कहता है—
दूध से दवा खाने से
मर्ज़ तेज़ी से ठीक होगा
और रोज़ आधा किलो
मौसम्बी का जूस पीने से
और तेज़ी से…

मैं पूछना चाहता था
अगर खजूर खाएँ तो
कितना तेज़ी से ठीक होगा
पर मेरे शर्ट की दो बटनें टूटी थीं
और कुहनी के पास
बेमेल रंग की दो इंच की चकत्ती थी
दूर से ही पता लग जाता था कि
मैं ककड़ी ख़रीदने के लायक़ भी नहीं हूँ
इसलिए खजूर का तो सवाल ही अप्रासंगिक था

जैसे-तैसे मैं दवा लेकर घर आ गया
दूध की दवा पानी से खाता रहा
और अपनी लगातार मद्धिम होती दृष्टि से
मौसम्बी का फल देखता रहा।


यशवंत कुमार (जन्म : 1999) नई पीढ़ी के कवि हैं। वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के ईविंग क्रिश्चियन कॉलेज से हिंदी में स्नातक और दिल्ली विश्वविद्यालय के अरबिंदो कॉलेज से हिंदी में स्नातकोत्तर हैं। इससे पूर्व उनकी कुछ कविताएँ ‘पाखी’ और ‘कृति बहुमत’ में प्रकाशित हो चुकी हैं। फ़िलहाल वह दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में जूनियर रिसर्च फ़ेलो हैं तथा 1990-2020 की मृत्युविषयक हिंदी कविताओं पर शोध-कार्य में संलग्न हैं। उनसे yashvantkumardu2019@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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