टिप्पणी ::
उस्मान ख़ान
इस टिप्पणी में राजकमल चौधरी के लेखन की समीक्षा की प्रस्तावना करने का प्रयास किया गया है। राजकमल चौधरी का मुक़दमा शायद मित्रों के बीच सबसे कठिन मुक़दमों में है। इस पर चर्चा आगे बढ़नी चाहिए। यह प्रस्तावना केवल चर्चा प्रारंभ करने के उद्देश्य से की गई है। यहाँ कृष्ण कल्पित का लेख1http://www.pahalpatrika.com संदर्भ ही है।
प्रश्न यहाँ से शुरू होना था कि राजकमल चौधरी के साहित्य के मूल्यांकन के लिए क्या पैमाने होने चाहिए? हिंदी-समीक्षा ने अभी तक ऐसे पैमाने नहीं रचे हैं।
राजकमल चौधरी के साथ ही अन्य सापेक्षिक लेखकों के लेखन के मूल्यांकन के भी क्या पैमाने होने चाहिए? क्योंकि इन लेखकों की चर्चा इक्कीसवीं सदी में की जा रही है।
लेख में राजकमल चौधरी संदर्भ की तरह हैं, कृष्ण कल्पित, लोकप्रियता और साहित्य-बाज़ार की बात कर रहे हैं। निश्चित ही, राजकमल चौधरी का समग्र साहित्य प्रकाशित होना चाहिए, साथ ही उस पर विचार-विमर्श, शोध-अनुसंधान होने चाहिए, लेकिन राजकमल चौधरी के साहित्य की किसी विशेषता को दर्शाने में उनका लेख असमर्थ है, साथ ही अन्य कई सापेक्षिक नामों को भी उन्होने एक साँस में खींच लिया है, महानों की प्रतियोगिता समीक्षा का आधार नहीं हो सकती। कौन बड़ा-कौन छोटा का सवाल लेखक और लेखन का समुचित मूल्यांकन नहीं कर सकता।
ख़ैर!
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मेरे विचार में राजकमल चौधरी के साहित्य को समझने का बीज-शब्द वासना की लघु-कल्पना है। हिंदी-कविता में वासना की कल्पनाएँ नई नहीं है, हिंदी का सौभाग्य रहा है कि हिंदी के पहले कवि सरह हैं। निश्चित ही, राजकमल चौधरी ने उसे आधुनिक-आयामों में प्रस्तुत किया है। आधुनिक विखंडित होते मनुष्य की मूलभूत वासनाओं का यह नव-प्रसार जितनी पूर्णता में राजकमल चौधरी की कविताओं में कल्पित है, वैसा बीसवीं सदी के हिंदी-साहित्य में दुर्लभ है।
राजकमल चौधरी होना एक विशेष स्थिति का सूचक है। यह समाज में व्यक्ति के निरंतर विभाजित होते जाने की स्थिति है, उसके समाज से अलग होते जाने की स्थिति है, समाज जैसा है, वैसा उसे स्वीकार नहीं है। राजकमल चौधरी की विशेषता यह है कि वे उस समय के साहित्यकारों में सर्वाधिक विभाजित दिखाई देते हैं। यह विभाजन अपने चरम पर अपना ही प्रतिरूप गढ़ लेता है, व्यक्ति समाज से ही नहीं, स्वयं से भी अलग हो जाता है। अलगाव की इस चरम-स्थिति को जानना ही राजकमल चौधरी होने की स्थिति है :
मैं अगर राजकमल चौधरी बनता जा रहा हूँ
वर्तमान में
अतीत से ज़्यादा इसका अर्थ
केवल इतना और केवल इतना ही है कि मैं
क्रमश: सिलसिले से
समझने लगा हूँ कि आदमी होने का
अर्थ क्या होता है।2राजकमल चौधरी, इस अकाल वेला में, सं. – सुरेश शर्मा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1988, 228
अपने ही अलगाव को जानना, इस स्थिति को बदलने की ओर खींचता है। समाज से अलगाव की प्रक्रिया व्यक्ति के स्वयं से अलगाव तक पहुँचती है, इस प्रक्रिया में मूलभूत वासनाओं की पूर्ति भी असंभव दिखाई देती है, लेकिन इसी प्रक्रिया में आत्म-मुक्ति की अदम्य वासना सर्वमुक्ति की वासना से संबद्ध भी होती जाती है। यह संबद्धता जितनी अनिवार्य लगती है, उतनी ही अप्राप्य भी। उनकी खोज आत्म-मुक्ति से प्रारंभ होकर सर्वमुक्ति तक जाती है। उनकी कविताएँ पूँजीवादी-समाज में आत्म-मुक्ति और सर्व-मुक्ति के तीव्रतम अंतर्विरोधों को पूर्णता में उजागर करती हैं, और इस तरह वास्तविक समाधानों, भौतिक बदलावों के लिए प्रेरणा प्रस्तुत करती हैं।
अपने समय की कोई बला ऐसी नहीं, जिसे राजकमल चौधरी धारण न करता हो : ‘‘मैं ही तो एकमात्र दुस्साहस हूँ।’’3राजकमल चौधरी, इस अकाल वेला में, सं. – सुरेश शर्मा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1988, 225 आधुनिक-समाज में
मुक्ति के दुस्साहसिक प्रयास राजकमल चौधरी का निर्माण करते हैं। मुक्ति का प्रयास शरीर रहते ही किया जा सकता है, जबकि मुक्ति इस शरीर में नहीं, वह सामाजिक है, उसे समाज के मध्य ही जाना और पाया जा सकता है, मुक्ति के इस अंतर्विरोध को वह यूँ पेश करते हैं :
मेरे ही दोनों पंजे मेरी गर्दन दबाए जा रहे हैं इसलिए शरीर से
बाहर निकलकर ही मुक्ति के विषय में
निर्णय किया जा सकता है।4राजकमल चौधरी, इस अकाल वेला में, सं. – सुरेश शर्मा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1988, 194
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राजकमल चौधरी की कविताओं को वासनाओं की लघु-कल्पना कहना अधिक उचित जान पड़ता है। इंगलिश में इसके नज़दीक फेंसी (fancy) शब्द है, हवस भी इसे कह सकते हैं। यह शब्द साहित्य-आलोचना में प्रायः बदनाम है। यूँ ग़ालिब ने कहा : ‘‘माँगे है फ़िर किसी को लब-ए-बाम पर हवस।’’5https://www.rekhta.org/ghazals/muddat-huii-hai-yaar-ko-mehmaan-kiye-hue-mirza-ghalib-ghazals?lang=hi भोग शब्द हिंदी में इसके लिए प्रचलित एक और शब्द है। सरह ने भोग में योग की बात कही है, बाद में रीतिकाल में भी रति, रस आदि इसके समीप हैं।
हम कह सकते हैं कि वासना किसी इच्छा की तीव्रता के अनुभव को कहते हैं।
यह वासना विविध रूपों में मानव-समाज और व्यक्ति में पाई जाती है। राजकमल चौधरी इस अर्थ में अपने संपूर्ण समय के कवि कहे जा सकते हैं, निश्चित ही आगे आने वाली कविता को उसकी नक़ल आदि कहना अक़्ल की बात नहीं, जिन नामों के साथ कल्पित जी ने खिलवाड़ किया है, वह समीक्षात्मक-न्याय नहीं।
राजकमल चौधरी और मुक्तिबोध, मंटो, मजाज़ आदि का हिंदुस्तान एक अलग हिंदुस्तान था, सत्तर के दशक में जिसका अंत हो गया। राजकमल चौधरी उसी समय के कवि हैं, यथार्थ के अंतर्विरोधों का दर्शन हर जगह मौजूद है, लेकिन हर एक की अपनी विशेषता है, अपने अनुभव और कल्पनाएँ हैं। तीस और चालीस के दशक में हिंदी-साहित्य के युवाओं ने जो नए रुझानात पेश किए थे, साहित्य के नए पैमाने गढ़े थे, पचास और साठ के दशक में उस पर सर्वोत्तम कृतियाँ प्रस्तुत हुईं। राजकमल चौधरी का हिंदुस्तान अलग था। सत्तर और अस्सी के दशकों का साहित्य एक दूसरे हिंदुस्तान की छवि गढ़ता है और निश्चित ही, नब्बे के बाद के साहित्य का हिंदुस्तान अलग है। और अलग-अलग राजनैतिक-आर्थिक युगों में, सभी लेखक एक-सा रिस्पोंस नहीं करते, उनके अनुभव, कल्पनाएँ, भाषा अलग-अलग होते हैं। उसमें भी लेखक को नशा-भाँग के आधार पर अच्छा या बुरा कहने का कोई मतलब नहीं। बात साहित्य पर होनी चाहिए, रूप के इतिहास पर होनी चाहिए, उसकी समझ पर होनी चाहिए। कोई कवि मासूम नहीं होता।
यथार्थ अंतर्विरोधी है, और एक आधुनिक पौराणिक रूप इसे पूर्णता दे सकता है, राजकमल चौधरी की कविताएँ इस पूर्णता की संभावना की ओर बढ़ती जाती हैं। राजकमल चौधरी का बनना या होना—उसकी अस्मिता—एक आधुनिक-पौराणिक चरित्र का निर्माण है। यह चरित्र नदियों और स्त्रियों की संगत में एक राष्ट्र के लोकतंत्र के निर्माण में अपनी पूर्णता पाता है। आधुनिकता अपनी जड़ों को नए सिरे से खोजने का कार्य भी कवि के सामने पेश करती है। राजकमल चौधरी के यहाँ भी सनातन की खोज है, पर वे अज्ञेय और निर्मल वर्मा की तरह अपनी सर्वमुक्तिकामी दिशा खोते नहीं। उनका अध्यात्म उनके निम्न-वर्गीय झुकाव के कारण कभी ईश्वर या सभ्यता की शरण में चैन नहीं पाता, वह भीड़ में जाता है, लोगों के बीच, बाज़ार में, ख़रीद-फ़रोख़्त की दुनिया में। यह भीड़ ईश्वर की मृत्यु और सभ्यता के पतन की महाकल्पनाओं के बीच आस्था की संभावनाओं की लघु-कल्पनाओं को, मुक्ति की प्रबल वासना को जीवित रखती है। उसकी वासनाएँ त्यागने के लिए नहीं पूर्ति करने के लिए हैं, और इसी कारण अज्ञेय और निर्मल वर्मा से अलग, वे कर्म की प्रेरणाएँ हैं। कार्य करने की प्रबल इच्छाएँ हैं।
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साहित्य-विधाएँ भी लेखक को नए रूप-सृजन की ओर ढकेलती हैं—हर साहित्य-रूप विशेष कल्पना और भाषा से, प्रतीकों और व्यवहारों से, निर्मित होता है। कविता लघु-कल्पनाओं के लिए—अपनी प्रतीक-उपमा-व्यवस्था से—जितना स्थान देती है, कथा उतना नहीं। कथा-रूप में घटना—और छोटी कहानी में प्रायः एक घटना—केंद्रीय होती है।
राजकमल चौधरी की कहानियों में प्रायः वासना की पूर्ति ही घटना है। मनुष्य की मूलभूत वासनाओं की पूर्ति करने में समाज असमर्थ क्यों है? व्यक्ति अपनी ही मुक्ति से भय क्यों खाता हैं? अपनी ही वासनाओं को अध्यात्मिक-पौराणिक रूप क्यों देना चाहता है? ये सारे प्रश्न उस घटना के इर्द-गिर्द जमा होते जाते हैं। इस प्रक्रिया में उनकी कहानियाँ घटनाओं की शृंखला बनाती जाती हैं, मूलभूत वासनाओं के अनुभवों में ‘डर और आक्रमण करने की क्षमता’6 राजकमल चौधरी, प्रतिनिधि कहानियाँ, राजकमल पेपरबेक्स, नई दिल्ली,2009, 28 के संघर्ष को उजागर करती जाती हैं। उनके कथा-साहित्य के निर्माण में यह प्रक्रिया देखी जा सकती है। उनकी कहानी में हर घटना एक ठोस अनुभव की तरह प्रस्तुत होती है। इस अनुभव को वे विवेक की कसौटी पर कसकर कल्पना-रूप देते हैं। श्लील-अश्लील का मुद्दा क़ानून और एकांतिक आलोचकों का मुद्दा है, राजकमल चौधरी का मुद्दा कुछ और है।
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राजकमल चौधरी कम उम्र में ही चल बसे। आगे उनकी दिशा क्या होती, आत्म-मुक्ति और सर्वमुक्ति का संघर्ष किन नए आयामों में जाता, नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि उनका साहित्य हिंदुस्तान के निम्न-वर्ग की हज़ारों वासनाओं को पूर्णता देता है। वे सभी जीवों की मूलभूत वासनाओं—आहार-निद्रा-मैथुन—के साथ ही मानव-समाज की वासनाओं को भी सामने रखते हैं। वासनाओं की इन लघु-कल्पनाओं का जन्म जिन अनुभवों से हुआ है, वे प्रायः कसैले हैं। वे जिस लोकतंत्र के सामने खड़े हैं, वह मनुष्य की मूलभूत वासनाओं को पूरा करने में असमर्थ है। आधुनिक-समाज के इस अलगाव के विस्तार में ही राजकमल चौधरी की लघु-कल्पनाएँ अपना पौराणिक रूप निर्मित करती हैं। हैरानी नहीं अगर सर्वमुक्ति की तीव्रतम वासना से भरा मिथिला का यह विश्व-कवि, अपने अनुभव का पुराण तैयार करता स्वयं हिंदी-साहित्य का एक आधुनिक पौराणिक चरित्र बन गया।
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संदर्भ :
- http://www.pahalpatrika.com/frontcover/getdatabyid/481?
- राजकमल चौधरी, इस अकाल वेला में, सं. – सुरेश शर्मा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1988, 228
- राजकमल चौधरी, इस अकाल वेला में, सं. – सुरेश शर्मा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1988, 225
- राजकमल चौधरी, इस अकाल वेला में, सं. – सुरेश शर्मा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1988, 194
- https://www.rekhta.org/ghazals/muddat-huii-hai-yaar-ko-mehmaan-kiye-hue-mirza-ghalib-ghazals?lang=hi
- राजकमल चौधरी, प्रतिनिधि कहानियाँ, राजकमल पेपरबेक्स, नई दिल्ली,2009, 28
उस्मान ख़ान हिंदी कवि-कथाकार और आलोचक हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनकी लंबी कविता के लिए यहाँ देखें :