गद्य और तस्वीरें ::
सुदीप सोहनी
एक
देखना कितना बड़ा सुख है! यूँ इस सुख को हम जी नहीं पाते। वैसे ही जैसे साँस लेने को हम महसूस नहीं करते। हमें लगता है देख पाना उतना ही सामान्य है जितना हमारा नाम। हमारी पहचान। पर हम ख़ुद को कितना पहचानते हैं या देखते हैं, यह सवाल ज़ेहन से धूल के ग़ुबार की तरह निकलता चला जाता है। और मजाल कि हम ख़ुद को देख पाएँ? फिर क्यूँ देख पाना हमें आसान लगता है?
बहुत-सी यात्राओं में मुझे चुप होना अच्छा लगता है। मैं शहरों के बाज़ारों और दुकानों के बोर्ड्स पढ़ता हूँ और अपने शहर चला जाता हूँ। हैरत की बात यह कि अपने शहर में मैंने दुकानों के बोर्ड्स इतने क़रीब नहीं पाए जितने अनजान शहरों के अनजान बोर्ड्स! ऐसे ही अजनबी शहरों के बाज़ार मुझे मेरी स्मृति के मेरे शहर के बाज़ार में ला छोड़ते हैं पर फिर हैरत की अपने शहर का बाज़ार मुझे वैसा अपनापन नहीं देता जो पराएपन से मिलता है।
दूर होने का भाव अपनापन देता है। क्यूँकि उसमें पास होने पर उसके छूट जाने का डर शामिल नहीं। दूरी प्रेम की अजब डोर है जो हमेशा तनी रहती है। एक आकर्षण होता है, जो पल-पल चिहुँकता रहता है। दूर होने पर चीज़ें कैसे पास होने को मचलती रहती हैं!
जैसे इस समय अपने बिस्तर पर लेटे-लेटे मुझे पहाड़ों की याद आ रही है। देखना स्मृति की इसी तलछट का आरंभ है। इधर कुछ देखा और उधर वह झट स्मृति का हिस्सा बना। देखने में सुनने का भाव और होने का बोध शामिल है। जैसे खिड़की के बाहर टकटकी लगाए धूप को देखना। इस धूप में बचपन से लेकर अब तक की हर आहट शामिल है। मैं खिड़की के बाहर निकली धूप को पहचानता हूँ। मुझे यक़ीन है कि यह वही धूप है जो मेरे स्मृति के शहर के हिस्सों में भी पड़ रही है, जहाँ इस वक़्त मैं हूँ।
मैं एक जगह होते हुए भी बहुत सारी कई और जगहों पर भी हूँ। किसी और की स्मृतियों में भी। ख़ुद की स्मृति में भी। इस तरह एक दूरी के साथ मैं देख पाता हूँ बहुत से समयों को।
जब हम कुछ देखते हैं तो केवल देख नहीं रहे होते, जी रहे होते हैं। पर जब देखकर भी संतुष्टि नहीं या याद नहीं इसका मतलब मन के कोने अब भी आँखों पर पर्दा डाले कहीं भटक रहे। तब सवाल यह कि हमने क्या देखा? चुप होने के साथ ही दृश्यों को देखना और भी सुखद है। हर दृश्य अपने में नया। नई आहट और अर्थ की संवेदनाओं से भरा। तब लगता है देखना कितना सुखद होता है! हम केवल वह नहीं देख रहे होते जो दिख रहा होता है। उसमें कल्पानाओं का जुड़ना भी शामिल है। देखना उसी कल्पना का एक छोटा-सा हिस्सा है—अजब-ग़ज़ब अनुभवों से भरा।
दो
मैं किसी स्टेशन पर बैठा समय की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। कोई गाड़ी आएगी और मुझे पहुँचा देगी, कहीं भी। समय के पास पहुँचना सुकून भरा है। वहाँ शायद अपने मुताबिक़ जीवन है। हम हर चीज़ अपने ढंग से करना चाहते हैं। जीना भी और महसूस करना भी। इस चक्कर में समय की कई सदियाँ और परतें हम उधेड़ लेते हैं। एक समय तक पहुँचना कई समयों को लाँघकर जाना है। मैं एक लंबी मगर छोटी यात्रा के बीच में हूँ। मुझे पिछली से निकलकर अगली तक जाना है। इन दोनों के बीच समय ही है जो मुझे जानता है। मुझे यात्रा के बीच ईमानदार होना पसंद है। यह ख़ुद तक पहुँचने की पहली शर्त है। कई बार मैं लंबी यात्राओं के बाद भी सूखा और ख़ाली हाथ लौटा हूँ। अनुभव सच से ही आता है। यह सच केवल सही और ग़लत का नहीं उसमें घुली ईमानदारी का भी है।
किसी यात्रा पर चल देना बरसों पुरानी स्मृतियों का हरकत करना है। अनाम जगहों पर जहाँ हम कभी नहीं गए, जहाँ जाने का कोई एक रास्ता नहीं—वह ख़ुशी नहीं देता। ख़ुश होना क्षणिक है। वह एक विरक्ति देता है। अब वहाँ पहुँचकर फिर वापस आना होगा! जीवन भर हम किसी जगह पहुँचने की कोशिश में लगे रहते हैं। पर असल तो रास्ता है और उस रास्ते जीवन की ईमानदारी है। किसी क्षण को घूँट-घूँट पी लेना ही हासिल है। कुल-मिलाकर समय हर जगह उपस्थित है। दरअसल, समय की प्रतीक्षा अनुभवों की प्रतीक्षा है। अपने हाथ पर जो समय बँधा है उस से दूर हम नहीं जा सकते पर वह हमारे पास ज़रूर आ सकता है। हाँ, हमें उसके पास जाने में थोड़ा संघर्ष करना होगा। मुझे निर्मल वर्मा याद आते हैं, ‘‘किसी अड्डे पर किसी बस की प्रतीक्षा केवल बस की प्रतीक्षा नहीं।’’ हम तमाम जीवन प्रतीक्षा कर रहे होते हैं—जो अभी है, जो गुज़र चुका और जो गुज़रने वाला है—उसकी। जो गुज़रने वाला है मुझे उसमें ज़्यादा दिलचस्पी है, क्योंकि यात्रा के बाद इसी तस्वीर के रुके हुए समय में मैं वही समय बार-बार खोजूँगा और खोजता रहूँगा!
तीन
बेचैनी और याद का कोई ओर-छोर नहीं। धुएँ की तरह कहीं से भी उसका आना-जाना चलता रहता है। शाम से इसका अलग संबंध है। ढलते सूरज में यह और गुनगुनी हो जाती है। पर यह गुनगुनाहट अकेलेपन में हुमकती ही है। क्या अजब है यह सब—दुनिया का सबसे सुंदर दृश्य, सामने पानी ही पानी, किनारे पर चाय का कप हाथ में, एक अंतहीन समय, हिचकोले खाती परछाईं और कप से निकलती भाप! कितना समेटा जा सकता है? कितना बचाया जा सकता है?
कभी-कभी मुझे लगता है तस्वीरें झूठ बोलती हैं। उनमें उतना अकेलापन नहीं होता जितना हम जी लेते हैं। उनमें उतनी तड़प भी नहीं होती जितनी हम छोड़ देते हैं। उनमें उतना समय भी नहीं होता जितनी हमारी स्मृति। फिर भी यह झूठ सच से ज़्यादा सुंदर और अपना लगता है।
यह अपनापन एक अलग क़िस्म की दुनिया है। भीतर की। समझाइश की। यह मान लेने की कि ‘ऐसा है’! पर जीवन में कितना सारा हिस्सा तो इस मान लेने का जमा है। प्रतिसृष्टि का है। अनुभव करना और स्वीकार करना दो बिल्कुल अलग बातें हैं। मान लेना तकलीफ़देह है। ऐसी कितनी ही शामें होंगी, सुबहें होंगी, रातें होंगी। धीरे-धीरे हम मान लेने के आदी हो जाते हैं। समय सरकता रहता है और एक दिन हम स्मृतियों से भी बाहर हो जाते हैं। पानी की दुनिया में सूरज और अंतहीनता छोटेपन का वह एहसास देते हैं, जब साथ चाहिए होता है। समंदर को दो आँखों में नहीं समेटा जा सकता। सूरज दो हथेलियों में नहीं गिराया जा सकता। अकेलेपन में एक जीवन नहीं जिया जाता। उसे एक और जीवन की ज़रूरत होती है। यह अनिवार्य-सा कुछ है।
पानी के इस हिस्से पर एक सूखी और एक गीली आँख का हिसाब हर बार नहीं किया जा सकता। विदा का हर एहसास ख़ुद की हथेली की छुअन को भूलने जैसा है। उड़ती हवा-सा ख़याल आता है, क्या हर बार चाय और अकेलापन साथ ही होगा?
चार
रेल की यात्रा किसी दूसरी ज़िंदगी के किसी किरदार को जी लेने जैसी होती है। हम भीतर उसे महसूस करते हैं जो हम कभी नहीं थे। इतनी पास से हम अपने बाजू में बैठे, बात करते या सोते हुए अनजान लोगों को कभी नहीं देख पाते। दुनिया की किसी किताब के किसी पन्ने पर अजनबीयत और अपनेपन का इतना आसान रिश्ता नहीं। दरअसल, जीना पढ़ने से कहीं ज़्यादा अनुभव देता है। भावना की दीवारों के बीच हम अपने आप से इतने बेसुध रहते हैं कि ख़ुद से भी नहीं मिलते। मगर रेल की यात्रा में अपने उस सच के साथ हर एक आदमी चल रहा होता है, जो वो है। हम भी वो हैं जो हम छुपा लेते हैं। एक कंपार्टमेंट की अलग-अलग बर्थों पर कितनी सारी कहानियाँ एक साथ चल रही होती हैं। एक बहुत बड़े विराट की अगर कल्पना करें तो दुनिया के कई हिस्सों में यात्रा कर रहे लोग अपने सच के साथ कितनी अलग तरह की दुनिया उस समय में रच रहे होते हैं!
रेल की यात्रा के हर एक के अपने अनुभव होंगे। रेल के डब्बे और इसमें चल रहे लोग ड्रॉइंग रूम में होने का एहसास कराते हैं। हर एक की विशिष्ट जीवन शैली जो शुरुआत में ढँकी होने के बाद आहिस्ता-आहिस्ता अपने स्वाभाविक रूप में आदमी को ले आती है। रात के अँधेरे में रेल में सो रहे यात्रियों को देखना जीवन का अलहदा अनुभव है। क्या हम इतने सहज अपने रोज़ के जीवन में होते हैं?
रात के अँधेरे में किसी अनजाने स्टेशन पर गाड़ी का रुकना और हमारा उसे देखना एक और कमाल की बात है। अपने समय में हम उस जगह तक जीवन में कभी नहीं पहुँच पाएँगे। वह अनजान स्टेशन और उसकी गंध हमारे उस समय का हासिल ही तो है! न जाने जगहों और लोगों से कौन से तार जुड़े होते हैं जो वो हमारे हिस्से आते हैं! क्या यह कम दिलचस्प नहीं कि अकेले यात्रा करते समय भीतर किसी और की ही नज़र से हम दुनिया को देख रहे होते हैं! एक जगह से दूसरी जगह पहुँचने के दरमियान ये जो घट जाता है, दरअसल वही पहुँचना है। बाक़ी तो हम चल ही रहे, भटक रहे, हासिल कर रहे और सवाल कर रहे कि क्या यही था जिसे पकड़ना था इतनी जद्दोजहद के बाद?
पाँच
समय बस वेट कर रहा है और वो ‘फ़्रीज़-अनफ़्रीज़’ कर देने वाले खेल की तरह जैसे ही कोई कमांड होगी हरकत में आने की, तब एक क्षण में इस समय के चारों ओर यादें जमा होने लगेंगी। मैं ऐसे मौक़ों का हमेशा से इंतज़ार किया करता हूँ। मगर इस बार मैं समय के उन हिस्सों में छुपकर बैठे ये खेल देख रहा हूँ जहाँ कुछ भी हो सकता है। हो सकता है यह इंतज़ार लम्बा हो और इन सीटों पर कोई न आए। यह भी कि कोई बहुत भीड़ में बैठे हुए, इन ख़ाली जगहों को टुकुर-टुकुर देखता रहे। या यह भी कि कोई एक ख़ुद से बात करते और किसी के आ जाने के इंतज़ार में सुबह को शाम कर दे। इस तीसरी संभावना में अचानक से ग़ालिब का ख़याल आया है। मन में एक सवाल भी कि यह कितनी ख़ूबसूरत कल्पना है—केवल किसी का इंतज़ार करना!
हम अक्सर बहुत ऊपरी तौर पर ही किसी चीज़ को देखकर गुज़र जाते हैं। अकेलेपन या उदासी को लेकर तो बहुत पक्के तौर पर हमारे अनुभव बोरियत के आस-पास ही भटकेंगे। मगर किसी सफ़र में अकेले चलते हुए और किसी जगह पहुँचने के बीच ज़रूर वो समय आता है जिसमें बोरियत वाले अनुभव के आगे हम पहुँच जाते हैं। पर यहाँ भी संभावना चलती यात्रा में कहीं पहुँच जाने की है। इसलिए भी मन बहुत घनी उदासी या अकेलेपन तक नहीं जा पाता। और अगर यह कहीं न पहुँचने की जद्दोजहद वाला अकेलापन हो तब? मैं ऐसे समय में अपने बीते समय के शहरों के कमरे याद करता हूँ। मुझे यह विश्वास नहीं होता कि बहुत सारा समय मैंने यूँ ही बस किसी घटना के घट जाने, किसी के मिलने आ जाने या किसी अप्रत्याशित ख़बर से मिलने वाली ख़ुशी पर अपने होने वाले रिएक्शन की प्रैक्टिस में गुज़ार दिया है। रेस्टोरेंट के कोनों, नाटक या सिनेमा हॉल की सीटों और शाम के समय भरी रहने वाली जगहों को अपने ख़ाली समय में यूँ देखना भीतर बहुत कुछ चुपचाप से ख़ाली कर जाता है। शोर को यूँ सिसकते देखना भी अजब है। हम कुछ नहीं कर सकते, सिवा गुज़र जाने देने के। एक तरह से मुझे ये कोने मेरे मन के कोने लगते हैं जिन पर बहुत प्यार आता है।
मैं अक्सर बाज़ार, यात्रा, सिनेमा, गुमठियों, पहाड़ों, आसमान, कहानियों और लोगों के भीतर बहुत सारे शोर में दबे किसी चुप रह गई आवाज़ को सुनने का जतन करता हूँ। यह आसान नहीं। बहुत तकलीफ़देह भी है। क्योंकि अक्सर सच वही होता है और बाक़ी सब झूठ। फिर रह-रह कर इन्हीं की याद आती है। पर समय अनफ़्रीज बोलकर फुर्र हो जाता है और तब न चाह कर भी मुझे भी भागना पड़ता है! मुझे पता है मेरे जाने के तुरंत बाद ये जगहें भर जाएँगी। और जब कभी वापस आऊँगा तो पहचानेंगी भी नहीं।
छह
जीवन का हर सफ़्हा गुज़रते ही धुँधला हो जाता है। क्या यह कम आश्चर्यजनक नहीं कि जिस लम्हे को बटोरने हम जंगल-पहाड़ तक नाप लेते हैं, वह ठीक उस क्षण के पहले ही पीला पड़ जाने की दौड़ में दौड़ रहा! मुझे कविता के साथ भी यही लगता है, जीने के बाद अपनी कल्पना में उसे फिर जीना। प्रेम के साथ भी। याद के साथ भी।
गुज़रे का कौन सा ऐसा तंत्र है भीतर जो यूँ हरकत करता है? और गाढ़ा करता चलता है? ख़ुद से यूँ मिलना हर बार नए से मिलना है। कितनी शामें और कितनी ही सुबहें मैंने देखी होंगी मगर स्मृति में केवल कुछ ही क्यूँ?
भागते समय की पूँछ पकड़ने का यह खेल मेरा प्रिय खेल है जिसमें सब कुछ जो बीत चुका, वह मेरा है। अब इस बीत चुके से एक नया कुछ क्रिएट हो रहा। पर आश्चर्य यह भी कि इसका कोई अस्तित्व भी न होगा। लगता है जैसे ज़िंदगी एक बड़ा कैनवस है और जो घट रहा उस तक पहुँचने की ही थी सारी क़वायद। और जिस तक इतनी मारामारी से पहुँचा वो ठीक अगले क्षण मिट गया। जो बचा वो उतना ही जो मैं बचा सकता हूँ। अब गुज़र चुके में नया कुछ घटेगा, सृजित होगा।
जीवन का यह खेल पकड़ ही में नहीं आता। टकटकी बाँध कर केवल देख सकता हूँ। भीतर का रसायन वो है जो सहेजे को कहीं फ़िट कर रहा जिससे यह किसी आने वाले समय में फिर कुछ नया बुन दे। कभी-कभी हमारा चुनाव ज़रूरी नहीं, केवल घट जाने देना भी मायने रखता है। आप वैसे भी कुछ नहीं कर सकते। जैसे कि यह फ़ोटो ही। अनजाने ही बटन दबाया और जो निकला उसमें कुछ ढूँढने की कोशिश ही कर रहा। यह भी कि अगली बार जब उस मोड़ से गुज़रूँगा तो उस दृश्य की जगह इसे रख दूँगा। तब तक मैं फिर-फिर इसे देख रहा, खोज रहा, डूबने की कोशिश कर रहा, लिख रहा, सहेज रहा और जी रहा। शायद वो बच जाए जिसे मैं खो चुका।
यह चलता रहेगा। किसी ‘था’ में किसी ‘है’ को ढूँढ़ना और बचाना इस संसार का सबसे मज़ेदार खेल लगता है मुझे। यह चलता रहे तो ख़ुश होता रहूँगा। आगे बढ़ता रहूँगा।
सात
समय की शाख से इक पत्ता तोड़ा था—यात्रा का। पहाड़ों की यात्रा का जो टेढ़े-मेढ़े रास्तों से होती हुई भीतर तक जाती है। बहुत कोशिश की थी कि प्रेम मिले पर वो तब न मिला। रास्ते तब भी बुलाते रहते। ज़िद करते। सवाल करते। मैं हमेशा चुप रहता और आसमान को तकता।
मुझे पता भी न चला और एक दिन आसमान का एक टुकड़ा मैंने अपने बिस्तर के बहुत नज़दीक पाया था। कभी-कभी कितना अजीब लगता है ये सोच कर देखना कि ज़मीन पर होते हुए हम आसमान को देखते रहते हैं।
मैं समंदर के शहर में अक्सर पहाड़ों को याद करता था। समंदर की लहरों पर उड़ने वाले पक्षियों के पंखों के सहारे मैं पहाड़ पर जाना चाहता था। फिर एक दिन मैं हवा में था, उड़ रहा था बादलों के बीच। और वहाँ से मैंने ज़मीन के बहुत से फ़ोटो खींचे थे। कुल मिलाकर मुझे वहाँ होना अच्छा लगता जहाँ मैं अभी नहीं था पर होना चाहता था। रास्ते इसी ‘होने’ और ‘हो जाने’ के बीच की दूरी को कम करते हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह किसी पहाड़ की चोटी पर चढ़ते हुए बार-बार हम वहाँ देखते हैं जहाँ अंत में हम पहुँचते हैं। पर कभी कभी बीच रास्ते में जीवन घट जाता है। समय ठिठक जाता है। सुस्ताना ज़रूरी हो जाता है।
आगे बढ़ने और पीछे छूट जाने के दरमियान हमेशा एक जगह होती है ख़ुद की पहचान की। यह एक तरह की एकसेंट्रिक सिचुएशन है। इमोशन से आगे की। हम लगातार चलते, दौड़ते, भागते, खाते, गाते-गुनगुनाते, लिखते, पढ़ते हुए भी वो सब नहीं कर रहे होते जो हम कर रहे हैं। हम वहाँ भी नहीं होते जहाँ हम हैं। रुक के देखना दरअसल चलते चले जाते हुए देखने का ज़रूरी काम है। यात्रा का सबसे ईमानदार हिस्सा रास्ता है। रास्ते का दोस्त ठहराव। ठहरना जीना है, इस समय में जिसमें हम जी रहे हैं। यह एक उत्सव है जहाँ न गुज़रा कोई है और न ही आगे आने वाला…
आठ
‘‘क्या यह सुख है?’’ निर्मल वर्मा का यह सवाल मैं अपने साथ बहुत-सी यात्राओं में साथ लेकर चलता हूँ और ख़ुद से पूछता रहता हूँ। समुद्र किनारे किसी परेल पर बैठ कर या चाय के कप में उड़ती भाप को देखकर, पहाड़ों की किसी ढलान पर, रेल की खिड़की से गुज़रते समय को देख कर, सामान्य जीवन में हुई असाधारण उठा-पटक से महीनों विचलित हो कर या आवेश के बाद तुरंत आई शांति में; यह सवाल पीछा करता हुआ सामने आ ही जाता है।
दुःख के क्षण, सुख का पता खोज कर उसे बाहर निकाल ही लेते हैं। मुझे लगा है कि सुख में हम कभी सुख को याद नहीं करते। हमेशा अभाव में ही हमने किसी चीज़ के न होने को महसूस किया है। साथ को भी। वे क्या क्षण थे जब कहने को कितना सारा था मगर वो सारा समय हमने जीने में बिताया था। परवाह नहीं थी कि कहाँ और किस परिस्थिति में हम जी रहे। अब, जब यात्राओं में यह सुख हासिल तो कहने को कुछ नहीं है। भीतर का अकेलापन भीड़ में बाहर नहीं आना चाहता। उसे अकेलेपन की बात करने के लिए भी एकांत चाहिए। जब केवल उसे ही सुनाई दे, जिसे वो सुनाना चाहता है। ऐसे ही भीड़ में किसी ने मुझसे पूछा, ‘‘इन दिनों दिखते नहीं?’’ मैं क्या जवाब देता। हौले ही कहा, ख़ुद से, ‘‘दिखा क्यों नहीं?’’ असलियत तो यह है कि हम सब देखते हैं, महसूस करते हैं। बस, मानना नहीं चाहते।
हमें दिख रहा कि सामने दो तकियों पर पीठ टिकाने वाले किरदार कोई भी हों, वे दुनिया के सबसे खूबसूरत ख़्वाब के सबसे खूबसूरत किरदार हो सकते हैं। हम चाहें तो इन जगहों को भर सकते हैं। ‘क्या यह सुख है’? सवाल फिर कौंधता है। क्या सुख, किसी चीज़ के न होने से उपजी पीड़ा का प्रति-प्रश्न है? इन दोनों के बीच एक तीसरे ‘कंटेंटमेंट’ का एहसास कभी कभी आश्वस्त करता है। यह ठीक स्थिति है। मगर उस तक पहुँचना आसान नहीं।
यह द्वंद्व हमेशा बना रहता है कहीं भी आने जाने, होने के दौरान। मुझे इस से निकलना है। एक काँच का दरवाज़ा अगर आने वाली सारी आवाज़ों को रोक ले तो मैं दूर से केवल चीज़ों का बहना देखते रहना चाहूँगा। कोई सवाल नहीं होगा तब। कोई जवाब भी नहीं। जवाब देने का दबाव भी नहीं। तब फिर से एक बार पूछूँगा ख़ुद से, ‘‘क्या यह सुख है?’’
सुदीप सोहनी हिंदी कवि-लेखक हैं। वह रंगमंच, सिनेमा, संगीत, फ़ोटोग्राफी और पत्रकारिता के परिवेश से भी जुड़े हैं। वह भोपाल में रहते हैं। उनसे sudeepsohni@gmail.com पर बात की जा सकती है।