गद्य ::
स्कंद शुक्ल

text by skand shukla 19218
स्कंद शुक्ल

जब मैंने उससे प्रश्न किया था, तब नहीं सोचा था कि वह इतना लंबा उत्तर देगी और हम इस पर इतनी लंबी बात कर बैठेंगे. सवाल छोटा और संक्षिप्त था : ‘‘तुम्हें कभी लज्जा नहीं आती?’’

यह सवाल अचानक बिना किसी पृष्ठभूमि के हवा में उभरा था. न कोई घटना, न कोई संदर्भ. सो उसने पहले इतना ही जवाब दिया कि वह किसी नन्हे बच्चे का ऐसा खुला ज्यॉमेट्री-बॉक्स है, जिसके औजार क्लास में लापरवाही से खो गए हैं, और उसी लापरवाही के साथ खो गई है लज्जा भी.

तमाम मानवीय मनोभावों में लज्जा की अपनी अलग सज्जा है. एक ऐसी अनूठी जटिलता जो हमारे यहां शब्दों की कमी के कारण और स्पष्ट नजर आने लगती है. मनुष्य के इस मूल भाव के व्यापक मनोवैज्ञानिक प्रसार होने के बाद भी हम उसके लिए वैसे अलग-अलग सटीक स्पष्ट शब्द गढ़ नहीं पाए. यही कारण है कि हमें लज्जा की अनुभूति कई अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग रूपों में होने लगती है, या यों कहें कि हम कई भिन्न मानसिक अवस्थाओं को लज्जा कह दिया करते हैं.

पड़ोस के एक व्यापारी सज्जन का पैसा डूब गया है. पार्क की बेंच पर वह सामने बैठे हैं. व्यवसाय में गिरने का उन्हें इतना अफसोस नहीं, धन-हानि की भी वैसी चिंता नहीं. उनके चेहरे पर लज्जा की मुरझान है, वह तो बस उसी की मार से दुःखी हैं. शाम का सूरज उसे और लालिम बना रहा है. परिवार में, रिश्तेदारों से जो बड़ी-बड़ी बातें की थीं, उनके सामने अब क्या मुंह दिखाएंगे! कैसे सामना होगा उनका अब?

कुछ समय और बीतता है और वह सामने वाले के आगे सिसक पड़ते हैं. ढाढ़स देने वाले के साथ हमें भी उनके चेहरे पर लज्जा का ग्लानि में बदलना दिख रहा है. मैं उनसे पूछूंगा, तो वह मुझसे खुलकर कुछ न कहेंगे. लज्जा और उससे उपजी उनकी ग्लानि उन्हें अपने ही और भीतर लिए जा रही है– वहां जहां बहुतों के साथ मेरा भी प्रवेश निषिद्ध है.

सुबह के समय इसी पार्क में मुझे एक दूसरी लज्जा के दर्शन होते हैं. एक किशोर मोटरबाइक से आता है, पार्क के दूसरे कोने के घर की तरफ मुंह करके खड़ा हो जाता है. फिर जेब से सेलफोन निकालता है और बात करने लगता है. लाल रोशनी में नहाई कोने के घर की खिड़की पर एक किशोरी भी फोन पर है. दोनों एक-दूसरे को देख रहे हैं, दोनों के तार एक-दूसरे से जुड़े हैं. लेकिन बातें बेतार हो रही हैं. लड़के की शायद किसी बात पर लड़की लजा रही है. वह हाथ हिलाकर झट से कहती है कि अभी वह जा रही है.

‘‘शेम से शाइनेस, शाइनेस से शेम. इन दोनों अतियों से कहीं, कभी मुलाकात नहीं होती अब तुम्हारी?’’ बात को स्पष्ट करने के लिए मैंने अबकी बार अंग्रेजी का सहारा लिया. जवाब में : ‘‘न.’’

वह कभी अपनी नजरों में गिरती नहीं थी. पूछने पर कह देती थी कि मेरी आंखें मेरे पैरों में हैं. जब बात ढांपने की उठती थी, तो जवाब देती थी कि कभी ऐसा खुलना ही न हुआ कि उसे ढंका-छिपाया जाए. सब कुछ इतना मंद-मंद घुटकर आसव बना कि आधा-अधूरा उरस्थ हुआ ही नहीं. जब भीतर उतरने में उसने इतना समय लिया, तो निर्णय पर कभी पीछे न हटना पड़ा.

पैरों में आंखों के साथ उसका चलना हमेशा लोगों के लिए अचंभा रहा. देखते चलना, चलते देखना– यों तो सभी करते हैं, लेकिन फिर देखते हुए लड़खड़ा जाते हैं, या फिर चलते हुए अचकचा जाते हैं. लड़खड़ाना पैरों का, अचकचाना आंखों का– दोनों उनके बीच के मतभेद का परिचय हैं. एक कहता है कि आगे चलो. दूसरा कहता है कि अभी रुको. चलो-रुको, रुको-चलो… और इसी में दुर्घटना हो जाती है.

‘‘तो तुम सब कुछ साध लेने वाली साध्वी हो?’’ मैंने और बूझने के प्रयास में पूछा था. जवाब आया : ‘‘मैं साध्वी-वाध्वी तो नहीं हूं, लेकिन तुम बहुत बड़े ठसाठस भरे गुड बॉय वाले ज्यॉमेट्री-बॉक्स हो.’’

ज्यॉमेट्री-बॉक्स. दरअसल, उसकी नजर में ज्यॉमेट्री-बॉक्स हर इंसान है. लेकिन ज्यादातर भरे हुए हैं अच्छे बच्चों-से. हर सामान यथावत्, नहीं तो मम्मी डांटेंगी. इतने चाक-चौबंद कि गलती से एक भी यंत्र गुमता ही नहीं. वे अपना हर पल, हर रोज मापन करते चलते हैं. अपनी हर गतिविधि नापते हैं, अपना हर कदम फूंक-फूंक कर रखते हैं. लेकिन जब आप किसी में मन में चांद होने की चाह रखते हों और आपको चांदा थमा दिया जाए, तो बुरा लगना भी स्वाभाविक है.

मैंने उससे ज्यॉमेट्री की गाली का स्पष्टीकरण जरूर मांगा. किस तरह उसने मुझमें फुट्टा देख लिया, कहां उसे मुझमें परकार का बोध मिल गया. कैसे उसे जान पड़ा कि मैं कोण बनाने वाला चांदा हूं या फिर हर कागज को दो चुभन देने वाला भाजक. मेरी किस बात को उसने सेटवर्ग की उस जोड़ी से मिला दिया?

वह हंसी और खूब हंसी. मैं उस समय भी उसे यों देखता रहा कि शायद वह अब गिरेगी, और कदाचित ज्यादा हंस देगी और फिर वापस उसे यकायक अपने मौन से ढंकेगी. लेकिन न वह गिरी, न वह सकुची… बल्कि फिर उसने मेरे सिर-खुजलाऊ सवालों के जवाब दिए.

ऊपर से नीचे की तुम हमेशा दूरी नापते आए, इसीलिए चपटे फुट्टे हो. फिर अचानक कहीं ठहरकर अपनी परिधि नापकर उसमें कैद होकर परकार बन जाते हो. परिधियां बनाओगे, उनमें गुड़ी-मुड़ी होकर सिमट जाओगे. हर बात के लिए तुम्हारे पास चांदेनुमा दृष्टिकोण हैं. हर कहे-सुने को बार-बार बांटते-काटते रहना तुम्हारी आदत है. सारा समय तुम्हारा समानांतर या लंब रेखाओं को खींचने में गुजरता है. अब तुम्हीं बताओ, तुम्हें अच्छे बच्चे का ज्यॉमेट्री-बॉक्स न कहा जाए, तो और क्या कहा जाए!

झूठ नहीं कहूंगा कि मुझे बुरा लगा था. बुरा लगने के बाद मुझे लज्जा आई थी और मैं गिरने लगा था. परिधियां बनाकर, उनमें गुड़ी-मुड़ी होकर सिमटना शुरू कर दिया था. लेकिन मुझे बुरा न जाने कितनी बार अलग-अलग बातों पर लगता रहता था. उनमें से कई बार पहले भी मैं गिरता-सिमटता आया था. सो उसने मुझे बताया कि लज्जा जब-जब आएगी, गिरोगे-सिमोटोगे, और लज्जा तभी आएगी जब पास ज्यॉमेट्री-बॉक्स होगा, उसके औजार होंगे. वह तभी उपजेगी, जब हर किया नाम नापा जाएगा. उसका जन्म रिकॉर्डों तक पहुंचकर उनको तोड़ने के लिए ही तो हुआ है.

मैंने उससे उसके न गिरने-सिमटने का तभी कारण पूछा. तब उसने बताया कि वह ज्यॉमेट्री कब की छोड़कर, केमिस्ट्री में जीती है. रसों के वेग से संचालित जहां स्वयं को सिद्ध करने के लिए कोई पैमाने नहीं हैं.

जब सिद्धि नहीं चाहिए होती, तो पतन भी नहीं होता. जब ईश्वर का दरस नहीं बुलाता, तब शैतान का परस भी नहीं डराता. जब मापन नहीं चलता, तब केवल भांपन चलता है, और भांपने का सबसे बड़ा गुण यही है कि वह तुलनीय नहीं है. तराजू का झूला सबको पास बुलाता है. वह कहता है कि पलड़े पर चढ़कर मोल लगाओ. शुरू में दूसरा पलड़ा झट से ऊपर जाता है और व्यक्ति फूलकर कुप्पा हो जाता है. अहा! कितनी गुरुता है! मैं कितना नीचे हूं! वही मापन! वही भारोत्तोलन! वजन के बोझ के साथ धीरे-धीरे दोलन! फिर खेल अपना रुख बदलता है. बगल के खाली पलड़े पर भी बाट चढ़ते हैं. एक-एक करके उन्हें वहां सजाया जाता है. अब व्यक्ति ऊपर उठने लगता है. धरती छूटने लगती है. वह पैर पटकता है, पलड़े पर कूदता है. मगर तुला क्या भला मामूली बला है. वह किसी के रोके रुकी है, जो आज रुकेगी? तराजू पर चढ़ाव और उतार, दोनों लज्जा से संबंध रखते हैं. चढ़ना उतरने के बिना और उतरना चढ़ने के बिना होता नहीं है, और यही ऊर्ध्वाधर की यात्रा आपके भीतर एक ज्यॉमेट्री-बॉक्स को जन्म देती है कि नापो अपने-आप को. नापो अपने-आप की तुलना में और नापो अपने-आप को अन्य के सापेक्ष.

मैं कहता हूं कि संसार के हर सौंदर्य में एक समरूपता है, एक सममिति है और समरूपता-सममिति का काम ज्यॉमेट्री-बॉक्स के बिना कैसे किया गया होगा, बताओ. वह मुझसे कहती है कि संसार की सबसे बड़ी ज्यामिति बिना मापे की जाती है. वह की जाती है और समरूप हो जाती है. वह खींची जाती है और सममिति आ जाती है. गणित के समीकरणों से आरंभ नहीं किया जाता सौंदर्य का : गुनना कुछ ऐसे घटता है कि गणना उसकी चेली बन जाती है. फिर वह मुझे गिरने-सिमटते का आशय बताती है. गिरता-सिमटता कोई संसार की नजरों में नहीं है, यह सब अपनी नजरों में ही होता है. संसार को भी अपने सापेक्ष समझते हैं, उसे भी अपने चश्मे से देखा करते हैं. फिर जब अपने मापन के अनुरूप नहीं चल पाते तो गिरने-सिमटने लगते हैं. गिरते-सिमटते हैं, फिर लजाते हैं. मापन से पतन, पतन से लज्जन. मगर फिर वह कैसी लज्जा है जो अपने प्रेमी की नजरों से बचने के लिए आजकल सायास ओढ़ी जाती है? वह कैसा ढांपन है जिसका नाम तो वही है, लेकिन उसमें कोई गिरना नहीं होता? जिसमें सिमटना भी जानबूझकर होता है, अनजाने-अनचाहे नहीं? कौन-सी वह लज्जा है जिसे परंपरा में स्त्री का विशेष भूषण कह दिया गया है?

वह हंस पड़ती है. कहती है कि भूषण हर समय में भेष के अनुसार बदला करते हैं, बल्कि एक ही समय में प्रसंग के अनुसार, लज्जा और निर्लज्जता, दोनों व्यक्ति को भूषित कर सकते हैं. निष्क्रियता और संकुचन के जिस रूप को परंपरा में स्थान मिला है, वह सदैव अप्रासंगिक ही हो, ऐसा नहीं है. वह चुपचाप रहकर मापन नहीं, भांपन करती है. प्रिय के सम्मुख लजाने में उसने ज्यामिति का कभी सहारा लिया ही नहीं.

प्रेम की लज्जा में अनभ्यास और अनाड़ीपन दिखाने की प्रथा रही है, वह बताती है. हां, ऐसा न समझना कि केवल स्त्रियां ही ऐसी हों. संसार के सबसे सुंदर प्रेमी भी निपुण-प्रवीण नहीं समझे गए. यही लज्जा बनकर जब-तब सामने आता है. लज्जालु व्यक्ति सिमट गया, सिमटते ही वह थोड़ा और मनुष्य हो गया. मनुष्य होते ही वह थोड़ा कम दैवी, थोड़ा अधिक प्रिय हो गया. देवताओं की पूजा की जा सकती है, प्रेम तो मनुष्यों से ही किया जाता है न! उस लज्जा में ज्यॉमेट्री का कोई काम नहीं होता, न होना चाहिए. वह अपने-आप अनायास घटती है, लेकिन अब आज वहां भी औजारों से सायास कारीगरी होती है. शाइनेस इन लव हैज बिकम सो प्रोफेशनल, यू सी! लजाओ ताकि थोड़ी अनकंट्रोल्ड लगो! थोड़ा तो शर्माओ! थोड़ा-सा! थोड़ा-सा और! बस! डन! वाह!

हम दोनों निर्लज्ज-से हंस रहे हैं. हमारे ज्यॉमेट्री-बॉक्स खुले हैं. मेरा मन उसी की तरह यंत्रों से निजात पा लेने को करता है, लेकिन मैं मम्मी के भय से उन्हें नहीं छूता. मुझे यह बोध ही नहीं कि कई बार कहे में अनकहे और अनकहे में कहे की चाह होती है. औजारों के साथ हर बार वापस लौटने से डांट चाहे न पड़े, लेकिन धीरे-धीरे शाबाशी मिलनी भी बंद हो जाती है. प्रशंसा का प्रवाह नियम-भंग की मांग भी किया करता है.

‘‘जानते हो हव्वा को अदन के बागीचे से किसने गिराया?’’ वह मुझसे पूछती है. मैं शैतान का नाम लेता हूं. वह नकारते हुए मापन के माथे दोष मढ़ती है. कहती है सेब खाकर भी उपवन में रहा जा सकता था, सेब और सांप की कथा दरअसल मनुष्य के भीतर जन्मे ज्यॉमेट्री-बॉक्स और उसके औजारों की कहानी है. हव्वा को ज्यामिति आ गई, उसने आदम को सिखा दी. नतीजन दोनों में लज्जा जन्मी और लजाने पर गिरना तो पड़ेगा ही.

मैं उसके सामने प्लेटो का नाम लेकर अपनी बात खत्म करता हूं, जिनकी अकादमी के बाहर अंकित था कि ज्यामिति का अज्ञानी इसके भीतर न प्रवेश करे. वह संस्तुति में सिर हिलाती है. फिर एक सवाल पूछ लेती है, ‘‘एक बात बताओ? आदमी का अकादमी में कोई लाभ है?’’

मैं अब भी आदमी और अकादमी की दूरी नहीं भांप पाता. अपना ज्यॉमेट्री-बॉक्स खोलकर यंत्र निकालता हूं और बावले की तरह लाभ में अटककर उसको मन-ही-मन नापने लग जाता हूं…

***

स्कंद शुक्ल कवि-गद्यकार हैं. गए दिनों ‘अधूरी औरत’ शीर्षक से एक उपन्यास प्रकाशित हुआ है. लखनऊ में रहते हैं. उनकी यहां प्रस्तुत लिखाई ‘सदानीरा’ के 17वें अंक में पूर्व-प्रकाशित है. उनसे shuklaskand@yahoo.co.in पर बात की जा सकती है.

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