बावा बलवंत की कविताएं ::
अनुवाद और प्रस्तुति : मोनिका कुमार

जिला अमृतसर के नेशटा गांव में जन्मे बावा बलवंत (1915-1972) पंजाबी के महत्वपूर्ण कवि हैं. बिना औपचारिक शिक्षा के इन्होंने संस्कृत, हिंदी, उर्दू और फारसी भाषाएं सीखीं. इनका पहला कविता-संग्रह ‘शेर-ए-हिंद’ (1930) उर्दू में प्रकाशित हुआ जिसे अंग्रेज सरकार ने जब्त कर लिया. बाद में पंजाबी में इनके पांच कविता-संग्रह ‘महानाच’, ‘अमरगीत’, ‘ज्वालामुखी’, ‘बंदरगाह’ और ‘सुगंध समीर’ शीर्षक से शाया हुए. बावा बलवंत का कविता-संसार समृद्ध और विशाल है. यहां प्रस्तुत कविताएं साल 1959 में आए ‘सुगंध समीर’ में शामिल हैं.

बावा बलवंत

उसका हार

रोज उसका हार टूट जाया करे
मुस्कुराती आकर वह मुझसे बनवाया करे
मेरे पूछने पर ‘‘टूटा कैसे?’’
गर्दन में बल डाल कर शरमाया करे
मेरे सिर पर साया करे खुशबू की वही शाख
वह जो उसके मुख पर लहराया करे
आने से पहले भरे नाजुक तुनीर
नैनों को और भी सुरमाया करे
‘‘जी, जरा जोड़िए यह टूट रहा है’’
मद भरे इस बोल से नशियाया करे
रोज उसका हार टूट जाया करे
मखमली अंग की छुअन नवनीत कर
मेरे हाथों पर आकर साया करे
रेशमी काया की उजली सिफत को सुन
धरा भूषण भी बल पर बल खाया करे
मधुर स्वर में रोए कभी बंदिश में करे रुदन
खुद भी तड़पे और मुझे भी तड़पाया करे
एक लड़ी जोडूं तो तोड़े वह दूसरी
रोज उसका हार टूट जाया करे
मुस्कुराती आकर वह मुझसे बनवाया करे

कला की राह की ‘गर बन जाए जो वह लौ
क्यूं मेरा मन ठोकरें खाया करे
कोई ढूंढ़ता है सुंदरता से कमाल
कोई कहता है वक्त जाया करे
ऐ मोहब्बत तेरी मंशा की बहार
साहस भरी हथेलियों पर उग आया करे
कुछ रचने की लगन है जीवन का चाव
मिलन उससे इस अम्ल को गरमाया करे
रोज उसका हार टूट जाया करे

दिल्ली, कुदसिया बाग में

रात रानी की सुगंध

रात रानी की सुगंध आ ही जाती है
चाहे मेरे द्वार हो बंद
रात की रानी तड़पती है इसे जीवन में बसाया जाए
बिलखती है किसी गीत में इसे गाया जाए
रात रानी की सुगंध
चाहती है चिर जीवन का हो प्रबंध
रात रानी की सुगंध सितारों तक जाया करे
आत्मा पर मेरी छाया करे
पर नहीं माली को पसंद
रात रानी की सुगंध
कलियों के सीने का उभार
सब्ज क्यारी का सिंगार
जैसे कोई मुटियार
छलकते जीवन की बहार
ले के आ जाए कोई जैसे
किसी का किया हुआ इकरार
इस तरह गले मिलती है
इस तरह घुल जाती है
जैसे गंधक की जवानी आए पारे को पसंद
रात रानी की सुगंध
कैसे हो पाबंद?
आ ही जाती है सुगंध
चाहे मेरे द्वार हो बंद
रात रानी की सुगंध
खुद कहती है गोद में बिठाओ मुझको
आप कहती है सीने में छुपाओ मुझको
यह तरसती है इसे अंग में पिरोया जाए
इसका कहना है ‘‘रातों को ना रोया जाए’’
यह तड़पती है इसे जीवन में समाया जाए
यह बिलखती है किसी गीत में इसे गाया जाए
यह तो चाहती है चिर जीवन का हो प्रबंध
आ ही जाती है यह सुगंध
चाहे मेरे द्वार हो बंद

इश्क पेचां की बेल

मंद हवा में बेल के पत्तों का लरजना
हिल रहे हैं स्वप्न में सावी परी के होंठ
कानों पर नाचती है लता क्या बहार के?
पुष्प लदी लता की लतर है कि जिस तरह
झूले जैसे समीर में शाख मोर पंख की
पत्तियों का बिंब अक्श है सांवर बिल्लौर का
पन्ने के पहलुओं में जलाए गए हैं दीप
किरणों का पुष्प दल और उजाला है इस तरह
नीलम की हंस रही जैसे निलोफरी तराश
मधु मालती के फूल हैं कुदरत का मौन गीत
वायु की बांसुरी को आया है पर ख्याल
कोमल लता के लहरा रहे पल्लवों के पार
उघड़ रही है सब्ज भविष्य की क्या नुहार
आंखों की हैं अटकलें बहारों के कुंड से
निकली है मेरी आस नहा के हरी भरी

लगता है इस बेल के झूमने से इस तरह
मेरी खुशी भी दौड़ कर पत्तियों में मिल गई
आए ख्याल सुहज का यह रूप देख कर
हस्ती का कुहज खाक में मिला दूं मैं इस जगह

दिल्ली, सफदरजंग मकबरे में

***

मोनिका कुमार हिंदी की सुपरिचित कवयित्री और अनुवादक हैं. चंडीगढ़ में रहती हैं. उनसे turtle.walks@gmail.com पर बात की जा सकती है. यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 17वें अंक में पूर्व-प्रकाशित.

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