प्रतिक्रिया ::
आग्नेय

19 सितंबर 2018 को हुए विष्णु खरे के देहांत के बाद से हिंदी समाज शोकग्रस्त है। यह वही समाज है जो कभी उनके आक्रामक हस्तक्षेपों से आहत रहा करता था। इस समाज के कुछ निवासी आज अपने दुष्कर्मों पर विष्णु खरे की दी हुई चोटें भूलकर उन्हें सराहनापूर्ण ढंग से याद कर रहे हैं, तो बहुतों के ज़ख़्म अब तक हरे हैं। यहाँ प्रस्तुत प्रतिक्रिया आज से क़रीब छह बरस पहले के उस दौर की है, जब पहले ‘प्रभात वार्ता’ और बाद में ‘सबद’ नाम के ब्लॉग पर प्रकाशित विष्णु खरे के एक लेख पर कई युवा लेखक-लेखिकाएँ उन पर अभद्र और आपत्तिजनक भाषा (?) में हमलावर थे। इन प्रतिक्रियाओं के प्रतिउत्तर में यह प्रतिक्रिया उन्हीं दिनों ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित हुई थी :

विष्णु खरे को संगठित रूप से जिस तरह युवा लेखक गलिया रहे हैं, वह नितांत अशोभनीय और निंदनीय है। उनकी प्रतिक्रियाओं से ऐसा लगता है कि किसी हाथी ने गली के कुछ पिल्लों को अपनी सूँड़ से सूँघ लिया हो और उस गली के सारे अभिभावक और पालतू कुत्ते भौंक-भौंक कर उसे अपनी गली से निकालने के लिए उतारू हो जाएँ। हमारे इन क्षुब्ध, विचलित, क्रोधित, भभके, नकचढ़े युवा लेखकों को यह भूलना नहीं चाहिए कि विष्णु खरे एक बेहतर कवि, अनुवादक, समीक्षक और संपादक हैं। हिंदी साहित्य में उनका उल्लेखनीय अवदान है। न जाने कितने युवा लेखकों को उनका आदर, उनकी उदारता, उनका प्रेम और संरक्षण मिल चुका है।

मैं मानता हूँ कि शैतान को भी ईश्वरीय अस्तित्व को चुनौती देने का अधिकार है। पापियों को भी अवसर मिलना चाहिए कि वे धर्मगुरुओं की लानत-मलामत कर सकें। यदि युवा लेखक विष्णु खरे की टिप्पणी से नाख़ुश हैं तो उनको विष्णु खरे द्वारा उठाए गए सवालों और मुद्दों का संयमित, तार्किक और विवेकपूर्ण उत्तर देना चाहिए। जहाँ तक व्यक्तिगत आरोपों का प्रश्न है, जिन पर वे लगाए गए हैं, उनको ही अपना स्पष्टीकरण देना होगा। यदि युवा लेखक उन आरोपित व्यक्तियों की ओर से बोलते हैं तो यह निष्कर्ष आसानी से निकाला जा सकता है कि वे अपने ऊपर किए उपकारों को चुकाने के लिए उतावलापन दिखा रहे हैं।

विष्णु खरे ने अपनी टिप्पणी में जो मुद्दे उठाए हैं, उन पर अवश्य विचार किया जाना चाहिए। यह हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य है कि कतिपय नौकरशाह उसकी रचनात्मकता का अपहरण करते रहे हैं और उनका दखल बढ़ता ही जा रहा है। विष्णु खरे ने अपनी तीखी धारदार टिप्पणी में जिस व्यक्ति पर आरोप लगाए हैं, उसके बारे में हमारे युवा लेखकों को सोचना होगा। यदि वे अफ़सर न होते तो उनकी हिंदी साहित्य में क्या हैसियत होती? उनका दखल रोका जाना चाहिए। उनके पास पुरस्कृत करने और किसी को भी ख़रीदकर पथभ्रष्ट करने की अपार ताक़त है।

आयोजन होते रहे हैं और होते रहेंगे, लेकिन लेखकों को अपने मान-सम्मान का ध्यान रखना होगा। भाड़े और आवास की व्यवस्था करके क्या कोई भी उनको पुतुरिया की तरह नचवा सकता है?

इन बौखलाए युवा लेखकों से मेरा निवेदन है कि वे विनम्र होकर असहमत हों। विष्णु खरे ने एक लेखक के रूप में जो अर्जित किया है उस तक पहुँचने के लिए उन्हें न जाने कितने उपकारों की नदियों को पार करना होगा? इस अवसर पर उनको एक सीख भी देना चाहूँगा। यह सीख मेरी नहीं है, यह सीख विलियम फॉकनर की है जो युवा लेखकों को संबोधित है। एक बार जब फॉकनर से पूछा गया कि वह लेखकों की युवा पीढ़ी के बारे में क्या सोचते हैं? उनका उत्तर था :

‘‘वह कुछ भी मूल्यवान नहीं दे पाएगी। उसके पास और कुछ अधिक कहने के लिए नहीं है। लिखने के लिए, उसे महान प्राथमिक सत्यों को अपने अंदर जड़ें बनाने देना होगा और अपने लेखन को एक समय में एक या सब सत्यों की ओर निर्देशित करना पड़ेगा। वे जो यह नहीं जानते हैं कि आत्माभिमान, सम्मान और व्यथा के विषय में कैसे बोला जाए, किसी काम के लेखक नहीं हैं। उनकी रचनाएँ, उनके साथ या उससे पहले ही मर जाएँगी।’’

***

आग्नेय हिंदी के समादृत कवि-अनुवादक और ‘सदानीरा’ के प्रधान संपादक हैं.

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *