कविताएँ ::
रोहित ठाकुर
पामीर
पामीर तुम दुनिया की छत नहीं हो
अगर तुम दुनिया की छत होते
तब मेरे कमरे की छत इतनी नीचे नहीं होती
मेरे जैसे लोगों का दम घुटता है
नीची छत वाले कमरों में
मेरी गर्दन कभी सीधी नहीं होती
बग़ल में रहने वाले लोगों को
मैं सिर उठाए बिना
आवाज़ से पहचानता हूँ
अगर आवाज़ का कोई चेहरा होता
तब नीची छतों वाले कमरों में
मैं लोगों को उनके चेहरे से नहीं
उनकी आवाज़ के सहारे नहीं
उनकी चाल से जानता
किसी व्यक्ति को उसकी चाल से जानने के लिए
मुझे अँधेरे का इंतज़ार नहीं करना होता
पाँत
एक पाँत में बैठी चिड़ियाँ
कविता की पंक्तियाँ होती हैं
नींद
एक घर है
खटते हुए आदमी के लिए
एक आदमी शहर के अंदर
कितनी दूर तक जाएगा
यह उसका हौसला नहीं
उसकी ज़रूरत तय करता है
गोली
गोली चलाने से पलाश के फूल नहीं खिलते
बस सन्नाटा टूटता है
या कोई मरता है
तुम पतंग क्यों नहीं उड़ाते
आकाश का मन कब से उचटा हुआ-सा है
तुम मेरे लिए ऐसा घर क्यों नहीं ढूँढ़ देते
जिसके आँगन में साँझ घिरती हो
बरामदे पर मार्च में पेड़ का पीला पत्ता गिरता हो
तुम नदियों के नाम याद करो
फिर हम अपनी बेटियों के नाम किसी अनजान नदी के नाम पर रखेंगे
तुम कभी धोती-कुर्ता पहन कर तेज़ क़दमों से चलो
अनायास ही भ्रम होगा दादाजी के लौटने का
तुम बाज़ार से चने लाना और
ठोंगे पर लिखी कोई कविता सुनाना
यह कविता घटित है
डॉक्टर के कंपाउंडर ने भीड़ में नाम पुकारा—
पंखुरी
एक छोटी-सी लड़की बेंच से उठती है
साथ में लड़की का पिता झुक कर डॉक्टर को
एक मैला काग़ज़ दिखाता है किसी सरकारी अस्पताल का
लड़की का चेहरा पतला है और आँखें चमकती हुईं
डॉक्टर कहता है कि शरीर में ख़ून की कमी है
लड़की को कालाज़ार है
दवा से पहले ख़ून चढ़ाना होगा
डॉक्टर कहता है कि कालाज़ार का इलाज सरकारी अस्पताल में सस्ता पड़ता है
प्राइवेट अस्पताल में इलाज महँगा पड़ेगा—
सरकारी अस्पताल रेफ़र कर देते हैं
डॉक्टर फिर कह रहा है बिना ख़ून चढ़ाए दवा लेने पर
किडनी चट्ट से बैठ जाएगी
लड़की के पिता का चेहरा दुःख का मानचित्र है
लड़की पिता के साथ जा रही है
शायद हाजीपुर…
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6 दिसंबर 1978 को जन्मे रोहित ठाकुर राजनीति विज्ञान से एम.ए. हैं। उनकी रचनाएँ कुछ प्रतिष्ठित प्रकाशन-माध्यमों पर देखी गई हैं। वह पटना में रहते हैं। उनसे rrtpatna1@gmail.com पर बात की जा सकती हैं।