पाठ ::
प्रवीण झा
किताब हाथ में लिए आदमी यह तो सोचता ही है कि इसे वाक़ई पढ़ा भी जाए या नहीं। पढ़कर मिलेगा क्या? अख़बार और किताब में फ़र्क़ ही क्या है? किताब से अगर कुछ ज्ञान/अनुभव न मिले तो अगले दिन उसकी जगह वही होगी जो अख़बार की थी। यह किताब का एक सतही आकलन है कि आपने एक प्लेटफ़ॉर्म से लुगदी उठाई है, जो दूसरे प्लेटफ़ॉर्म के व्हीलर को कुछ रुपए छोड़ वापस कर देंगे. या फिर ऐसी किताब उठाई है, जिसे आप वक़्त लेकर पढ़ेंगे, चिंतन करेंगे।
एक विचारक ने कहा है, ‘‘कुछ किताबों को चखा जाता है, कुछ निगली जाती हैं, कुछ चबा-चबाकर खाई जाती हैं।’’ इसलिए किताब हाथ में लेकर उसकी पृष्ठ-संख्या देखते, भूमिका पढ़कर, या अध्याय-सूची देख कर एक आकलन तो किया ही जा सकता है। कई लोग एक सरसरी नज़र में पूरी किताब से एक बार पहले गुज़रते ही हैं। उन लोगों में मैं भी हूँ, लेकिन यह ज़रूरी ही हो, ऐसा नहीं। यह सतही आकलन करना ग़लत भी हो सकता है, जब आप किताब को लेखक की पहचान की वजह से, ख़राब पन्नों की वजह से, या कुछ हिस्सों की वजह से ख़ारिज कर दें और किताब असल में अच्छी निकले।
अकादमिक किताबों में यह सतही आकलन कर लेना तो अच्छा रहता ही है। लेकिन अज्ञेय की पुस्तक का क्या सतही आकलन होगा? क्या सूँघना, क्या चखना? यहाँ तो सीधे चबाना, पचाना शुरू किया जा सकता है। अपनी किताबों के खाने या अलमारी पर नज़र डाल यह देखिए कि कितनी किताबों की पंक्तियाँ-संदर्भ-कहानियाँ स्मरण हैं। अगर नहीं हैं, तो वे बस सूँघ-चखकर रख दी गईन। चबा-चबाकर खाई-पचाई नहीं गईं। या तो पढ़ने का तरीक़ा ठीक नहीं था, या किताब ही उस लायक़ नहीं थी।
ये बातें जब मैं यूँ ही किसी का सिर खाते हुए कह रहा था, उसने कहा कि पढ़ने का क्या तरीक़ा है? किताब उठाओ, और पढ़ लो… जैसे रेडियो ऑन करो, और सुनने लगो। मैंने कहा कि आपकी बात ठीक है। यह इतना ही सरल है, और समस्या भी यही है। पढ़ने वाले भी भूल जाते हैं कि वे किताब पढ़ रहे हैं, रेडियो नहीं सुन रहे।
प्रयास यही हो कि किताब की सतही रेकी के बाद उसे व्यवस्थित ढंग से पढ़ लिया जाए। कुछ लोग डेस्क पर पढ़ते हैं, कुछ बिस्तर पर, कुछ बरामदे में, कुछ ट्रेन-बस में, कुछ लेटे-लेटे, कुछ घूमते-टहलते उँगलियों में फँसाए… और सभी तरीके ठीक ही हैं, कि किताब पढ़ी जा रही है। अगर एक ख़ास तरीक़ा होता तो किताब में लिखा होता कि इस किताब को पेड़ पर उल्टा लटक कर ही पढ़ा जाए, अन्यथा व्यर्थ है। तंत्र पुस्तकों की तरह कोई पठन-विधि या विधियाँ होतीं।
कुछ किताबें एक ही बैठक में पढ़ी जा सकती हैं, कुछ कई टुकड़ों में। कुछ अकादमिक किताबों (और ग्रंथों) को पढ़ने में छह-आठ महीने लग जाते हैं। यह भी संभव है कि एक भावरंजित छोटी-सी कविता या गद्य पढ़ने में कई घंटे लग जाएँ। कुछ लोग एक ही पंक्ति पर लंबे समय तक चिंतन कर रहे होते हैं, कुछ किताब-दर-किताब पढ़ते चले जाते हैं। अब इनमें व्यवस्थित ढंग निकले तो निकले कैसे?
व्यवस्थित अध्ययन की चार श्रेणियाँ मॉर्टीमर एडलर ने अपनी पुस्तक ‘हाऊ टू रीड अ बुक’ में बताई हैं। पाँचवी श्रेणी मैंने जोड़ी है :
- प्राथमिक पाठ (Elementary read)
- निरीक्षण पाठ (Inspectional read)
- विश्लेषक पाठ (Analytical read)
- तुलनात्मक पाठ (Syntopical or comparative read)
- आलोचनात्मक पाठ (Critical read)
प्राथमिक पाठ एक मूलभूत स्कूली तरीक़ा है, जो लगभग पूरे विश्व में एक जैसा है। हम किताब का शीर्षक, उसका आवरण पढ़ते हैं। अगले पृष्ठ पर प्रकाशक के नाम इत्यादि पढ़ते हैं… और इस तरह भूमिका/लेखकीय/प्रस्तावना से गुज़रते हुए अध्याय-सूची तक जाते हैं। इसके ही आस-पास लेखक-परिचय भी हो सकता है, जिसे कई प्रकाशक अब किताब के पृष्ठावरण में देने लगे हैं। यह प्राथमिक पद्धति बताने की ज़रूरत इसलिए पड़ी, क्योंकि यह हम अक्सर भूल जाते हैं, और सीधे पुस्तक के मुख्य भाग तक पहुँच जाते हैं। अकादमिक पुस्तकों की भूमिका नीरस भी होती है। लेकिन भूमिका एक पुस्तक की वह कड़ी है, जिसे पढ़कर ही संभवतः प्रकाशक ने उसे छापा हो। यह पुस्तक का हृदय है। इसे कैसे छोड़ा जा सकता है? अमृतलाल वेगड की पुस्तक ‘सौंदर्य की नदी : नर्मदा’ की लेखकीय भूमिका मोहनलाल वाजपेयी ने क्या ख़ूब लिखी है! पुस्तक की भूमिका अगर उस विधा के उस्ताद लिखें तो पुस्तक का वज़न और भी बढ़ जाता है। यह एक अनुमोदन है कि पुस्तक पढ़ी जानी चाहिए। हालाँकि अज्ञेय ने ‘नदी के द्वीप’ में भूमिका नहीं लिखी, और इसकी आलोचना भी की है कि कई लेखक कृति से लंबी भूमिका लिख लेते हैं। लेकिन यह बात कहते हुए भी उन्होंने यह तो विस्तार से लिखा ही है कि ‘नदी के द्वीप’ क्यों लिखी गई।
निरीक्षण पाठ या सतही रेकी की चर्चा मैं कर चुका हूँ। अगली पद्धति ही मुख्य है जो पाठक का ध्येय है। सिद्धांतकारों ने इसे विश्लेषक पद्धति कहा है, कि आप किताब मात्र पढ़ नहीं रहे, विश्लेषण कर रहे हैं। आप पहले किताब का विषय समझते हैं, फिर उसकी संरचना को मन में बिठाते हैं, और फिर यह निर्धारित करते हैं कि लेखक कहना क्या चाहता है।
लेकिन इतनी बातें पढ़ते-पढ़ते कैसे होगी? कुछ लोग नोट्स बना रहे होते हैं, कुछ रेखांकित (अंडरलाइन) करते हैं, कुछ उस पृष्ठ पर चिप्पी लगा देते हैं। एडगर एलेन पो भी इस बात के पक्षधर थे कि किताब को ‘मार्क’ किया जाना चाहिए, और यही पुस्तक और लेखक का सर्वोच्च सम्मान है। लेकिन अधिकतर लोग एक शौक़िया उठाई किताब में कुछ नहीं करते। वे दिमाग़ी विश्लेषण करते हैं। वहीं रेखांकित करते हैं, वहीं नोट्स बनाते हैं… और हमारा ध्येय भी वहीं पहुँचना है… जब अवलोकन नहीं, सिंहावलोकन करें। सिंह की तरह किताब से गुज़रें, कभी जंगल के दाएँ, कभी बाएँ, कभी पीछे देखते कि कोई भी भाव या संदर्भ छूट तो नहीं गया।
आगे की बात से पहले, यह याद करें कि हमने किताब पढ़ना सीखा कहाँ? अधिकतर लोगों ने किताब पढ़ना विद्यालयों में ही सीखा। किताब पढ़ो और सवालों के जवाब ढूँढ़ो।
अमेरिका में ‘ओपेन बुक’ परीक्षाएँ होतीं और फिर भी जवाब नहीं मिलते। मैं चकरा जाता कि यह क्या बला है? सवालों के जवाब किताब में क्यों नहीं? दरअसल, जवाब होते हैं, लेकिन कहीं लिखे नहीं होते। अब अगर ‘भारत छोड़ो आंदोलन की व्याख्या करें’ के बदले प्रश्न हो कि ‘भारत छोड़ो आंदोलन न होता तो क्या होता?’ यह तो किताब में है ही नहीं। जो हुआ ही नहीं, वह इतिहास में कैसे मिले? यहीं विश्लेषक क्षमता कार्य करती है। आपने किताब पढ़ी, तो किताब में जो नहीं लिखा, उसके भी उत्तर दिमाग़ में हों। लेखक की लेखनी जहाँ ख़त्म होती है, वहाँ पाठक का विश्लेषण शुरू होता है… और यहीं पाठक की पदवी लेखक से ऊँची हो जाती है।
हजारीप्रसाद द्विवेदी की पदवी कई लेखकों से ऊँची थी कि उनमें विश्लेषण की क्षमता थी। वह बेहतरीन पाठक थे जो लेखक से दो क़दम आगे सोच जाते थे। वह अगर इतिहास पढ़ते तो यह उत्तर ज़रूर देते कि भारत छोड़ो आंदोलन न होता तो क्या-क्या होता? क्या अच्छा होता, क्या बुरा होता? और उसके क्या-क्या प्रभाव होते?
हालाँकि ‘विश्लेषक पठन’ से ऊपर भी एक स्थिति है, और हजारीप्रसाद द्विवेदी शायद वहीं बैठे थे। वह किताब चबाने-पचाने से भी आगे हैं, जिसकी चर्चा यहाँ आगे होगी। लेकिन जो वस्तुनिष्ठ शैली या प्रश्नोत्तरी शैली हमारी शिक्षा-पद्धति में है, उसका आमूल परिवर्तन भी मुझे आवश्यक नज़र आता है। फिर हम किताबों में उत्तर नहीं ढूँढेंगे, प्रश्न ढूँढ़ेंगे। उत्तर तो हमारे पास ही होंगे, जिसके लिए खुली किताब नहीं खुले दिमाग़ की ज़रूरत होगी।
प्रश्न यह है कि ज्ञानी कौन अधिक हैं? लेखक या पाठक? अगर लिखने और पढ़ने की गति का साधारण गणित भी लगाएँ तो जितने समय में एक मुकम्मल किताब लिखी और छापी जाएगी, उतने में तो सैकड़ों किताबें पढ़ ली जाएँगी। इस नज़रिए से लेखक ज्ञान के तराजू पर घाटे में नज़र आते हैं, लेकिन मामला इतना सुलझा नहीं है… और यहीं किताब पढ़ने की आख़िरी सीढ़ी आती है, जहाँ पाठक और लेखक में वैचारिक मल्लयुद्ध होता है, शास्त्रार्थ होता है कि किसका पलड़ा भारी है? इसे ‘तुलनात्मक अध्ययन’ भी कहा जाता है, जब पाठक लेखन की मीन-मेख और कमज़ोरियाँ ढूँढ़ता है। चार किताबों से उसकी तुलना करता है। वह चाहे तो लेखन को सिरे से नकार दे कि उसकी नींव ही खोखली है। या यूँ कहे कि लेखक के शिल्प में कुछ कमज़ोरियाँ हैं। लेखक के पूर्वाग्रह हैं, या लेखक का ज्ञान भटका हुआ है, लेखक के तर्क असंगत हैं, लेखक का विश्लेषण अपूर्ण है। हालाँकि यह सभी बिंदु आलोचना के दायरे में भी हैं, लेकिन वास्तव में यह स्थापित धारणाओं, सिद्धांतों और उसी विषय के अन्य लेखन से तुलना है।
यह वही पाठक कर सकता है जो ज्ञानी हो और बहुत पढ़ चुका हो। जो अपनी पहली किताब पढ़ रहा हो, उसके पास तो कोई संदर्भ-बिंदु ही नहीं। उसे तो लेखक अपने शब्द-जाल से धोबिया-पाट दे देगा। विश्लेषण अगर बुद्धि से कर भी लोगे, तुलना कैसे करोगे? उस विषय में ज्ञान ही कितना है कि लेखक की बखिया उधेड़ने आ गए? पहले पढ़ तो लो, फिर तुलना करने आना!
कहते हैं कि दुनिया की ऐसी कोई किताब नहीं बनी जो दोष-मुक्त हो। लिखी तो मनुष्य के द्वारा ही गई है तो दोष होंगे ही, लेकिन जब लेखक अनुभवी खिलाड़ी हो और तुलना को पहले ही भाँप चुका हो (सभी संदर्भ पढ़ चुका हो), तो वह पाठक को जकड़ सकता है। वैज्ञानिक या अकादमिक लेखन में तो सभी संदर्भ पहले से दर्ज होते हैं… और जो साहित्य रचते हैं, वे अपने समकालीन और पूर्व-लेखन का ज्ञान रखते ही हैं कि तुलना हो तो खरे उतरें। अथवा भीड़ से अलग नज़र आएँ कि तुलना ही न हो पाए।
किताब पढ़ने की इस सीढ़ी पर कुछ लोग ज़रूर पहुँचते हैं कि किताब पकड़ाते हुए लेखक के भी हाथ काँपते हैं कि किताब एक प्रबुद्ध और समालोचक पाठक के हाथ जा रही है… और यह सीढ़ी भी आख़िरी सीढ़ी नहीं है। आख़िरी सीढ़ी में संभवतः पाठक कथ्य से मुक्त हो जाता है, और यह दार्शनिकों और वैज्ञानिकों की स्थिति है। वह लिखित सिद्धांतों को काटकर अपने सिद्धांत रचता है। अरस्तू को काटकर गैलिलियो बनता है।
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प्रवीण झा हिंदी की अनूठी मेधा हैं। ‘सदानीरा’ के 17वें और 18वें अंक में ध्रुपद पर उनका एक आलेख प्रकाशित और प्रशंसित रहा है। वह लेख यहाँ पढ़ा जा सकता है :
पढ़ना अभी हाल ही में सीखना शुरू किया है मैंने, आपका ये लेख बहुत कुछ सिखा गया। हार्दिक आभार ।
आपकी लेखनी बहुत स्पष्ट और ग्राह्य है, डॉक्टर साहब!
आपको पढ़ना हमेशा ही अच्छा लगता है, ऐसे ही लिखते रहें।
नये शिरे से पढ़ना पड़ेगा अब आपके बताये तरीके के बाद ..
बहुत सुन्दर
एक पाठक के लिए ये बेहद रोचक आलेख है। वाक़ई पढ़ना आसान होता तो सबकुछ याद रह जाता। हम कई बार पुराने पढ़े गए सन्दर्भों का उल्लेख किसी तुलनात्मक चर्चा में नहीं कर पाते हैं, इसकी मुख्य वजह पाठकीयता की कमी ही रही होगी। बहुत ही ज़रूरी आलेख है। बहुत बहुत बधाई। शुक्रिया सदानीरा
स्पष्ट और सटीक .. आपकी लेखनी से व्यक्तिगत तौर पर काफ़ी कुछ सीख रही हूँ .. और ख़ासकर आपका समय – प्रबंधन भी अनुकरणीय है .. अपने पाठकों का ज्ञान वर्धन करते रहें , धन्यवाद !