editorial by agneyaशुरुआत ::
आग्नेय

हिंदी के अधिकांश समकालीन लेखकों से, उनकी नाराज़गी का ख़तरा उठाते हुए, यह सवाल पूछा जा सकता है कि क्या जीवन, राजनीति और अस्तित्व के प्रति उनमें कोई मनोवेग है या नहीं? इसका एक पूरक प्रश्न यह भी हो सकता है कि वे अपने जीवन का एक दिन कैसे जीते हैं? ऐसा नहीं है कि इन सवालों का जवाब इन लेखकों के पास नहीं है। कुछ लेखक इस सवाल को यह कहकर टाल सकते हैं कि एक लेखक का जीवन इतने विरोधाभासों से घिरा और भरा रहता है कि उसके जीवन की कोई भी जानकारी उसके जीवन के बारे में बहुत अधिक नहीं बता पाएगी।

वे यह भी कह सकते हैं कि लेखक के बारे में जानना है तो वह उसके लेखन से ही जाना जा सकता है, शायद यही सबसे अधिक प्रासंगिक और प्रामाणिक होगा। कदाचित् किसी भी लेखक के निजी जीवन में ताक-झाँक करना ठीक नहीं समझा जाता है और वह सबसे अपने को छिपाकर रखना चाहता है। दूसरे कुछ लेखक इस सवाल का तत्काल उत्तर देने के लिए तत्पर दिखाई दे सकते हैं।

अगर ये लेखक इस सवाल का उत्तर न भी दें तो उनके पीछे खड़े तरह-तरह के संगठन उनके लिए रेडीमेड उत्तरों के थान के थान खोल देंगे। लेकिन क्या इस तरह के उत्तर किसी को संतुष्ट करने के लिए पर्याप्त होंगे। सच्चाई यह है कि हिंदी का समकालीन लेखक एक ऐसा जीवन जीता है या ऐसा जीवन जीने के लालायित रहता है जो किसी भी विराट कौतूहल, जीवन के किसी सम्मोहक चमत्कार और जीवन के किसी भी बुनियादी संघर्ष से जुड़ा नहीं है। उसके जीवन जीने का तरीक़ा बेहद नीरस, आवेगहीन, इकहरा और अवसरवादी होता है। वे उस मध्यवर्ग की पीठ पर चिपके जोंक और किलनी की तरह हैं जो अपनी ओछी, ठिगनी और लुटेरी जीवन-प्रणाली को बचाए रखने के लिए दिन-रात एक किए रहते हैं। न उनको दिन में चैन है और न रात में। उनका एक ही सपना है—उन सीढ़ियों पर चढ़ते जाना जिन्हें सफलता की दीवार पर सत्ता ने टिकाए रखा है।

आज कितने लेखक हैं, जो सत्ता के अधीन और उसके नियंत्रण में नहीं हैं? यहाँ सत्ता से अर्थ मात्र राज्य-सत्ता से नहीं है। सत्ता से तात्पर्य, उस व्यवस्था से है जो उत्पीड़न और शोषण को बनाए रखती है, चाहे उसका आसन कहीं भी क्यों न हो? एक लेखक के नाते हमें क्या करना है, कैसे करना है और क्यों करना है? ये सवाल एक लेखक की ज़िंदगी के अहम सवाल हैं, उसके लेखकीय अस्तित्व, उसकी रचनात्मकता, मर्यादा और उसके नैतिक आवरण को ललकारने वाले सवाल हैं। एक लेखक अपनी क़लम उठाकर भी इन सवालों का जवाब दे सकता है। लेकिन क़लम उठाने से पहले उसे पल भर, ज़रा-सा अपनी ज़िंदगी की उस लीद में झाँक लेना चाहिए जिसकी दिव्यता और वैभव का गुणगान करने से वह कभी थकता नहीं है। वह सुबह-शाम अपनी चकाचक ज़िंदगी को और चकाचक बनाने के लिए थूक की तरह थूके जाने के लिए चक्करघिन्नी बना रहता है। सीकरी आने-जाने में उसके जूते घिसते नहीं हैं; उसको पुरस्कार, सम्मान, यश और कीर्ति नवाज़ी जाती है।

हमारे समाज में एक लेखक का प्रतिरोधी स्वर निरंतर धीमा और लुप्त होता जा रहा है। विपक्ष में खड़े रहने और वहीं बने रहने का साहस और जोखिम उठाना रचना-कर्म के लिए ज़रूरी नहीं समझा जा रहा है। उसने समाज में अपने लिए जिस स्पेस का चयन किया है, वह निहायत बदबूदार, तंग और भुरभुरा है। एक लेखक के रूप में उसकी सत्ता इतनी महीन, इतनी राख और धूल भरी है कि उसे कोई फूँक कर उड़ा सकता है, ऐसे लेखकीय समय में अपने को बचाए रखने के लिए एक लेखक को कहाँ और किसके पास जाना चाहिए, यह एक और अहम सवाल है जिससे हमें टकराना है।

इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमें उन पूर्वजों को स्मरण करना होगा, साहित्य के उस वंश-वृक्ष को देखना होगा, जिनकी पदचापों और जिसकी शाखाओं के हम उत्तराधिकारी हैं। हमारे पूर्वजों ने जीवन और समाज की समस्त रहस्यात्मकताओं, सारी प्रश्नाकुलताओं, सारी प्रवंचनाओं और सारी विडंबनाओं को अपने जीवन-राग और क़लम की ताक़त से भेदने की जो कोशिशें की हैं, उनका संबल लेकर ही हमें अग्निपथ पर बेख़ौफ़, अकेले, निरंतर चलते रहना है जो हमें लेखक होने से विरासत में मिला है।

अंत में, अपने पूर्वज कवि भवानीप्रसाद मिश्र की एक कविता ‘पूर्णमिदम्’ :

समय ख़ुद तुम हो
जितनी देर तुम हो
उतनी देर
समय है
तुम्हारे घर से
आकाश के बाहर तक
एक ख़ाकी
उथल-पुथल फैली है
बाक़ी कहीं नहीं है शांति
शांति ख़ुद तुम हो
जितनी देर तुम हो
उतनी देर समय है
शांति है
सिर पर बोझ लिए
जा रही है एक औरत
कंधे पर हल धरे
लौट रहा है एक किसान
दौड़ रहा है ताँगे में
जुता हुआ घोड़ा
थोड़ा बहुत निर्माण भी
कहीं नहीं है
निर्माण ख़ुद तुम हो
जितनी देर तुम हो
उतनी देर निर्माण है
शांति है समय है
धर्म-पुस्तक के अनुसार
चलने वाला पशु
पशु के अनुसार
मुड़ने वाला रास्ता
रास्ते को ढाँक कर रखने वाली
धूल सब कहीं है
तुम कहीं नहीं हो
जितनी देर तुम नहीं हो
उतनी देर समय नहीं है
निर्माण नहीं है
पूर्णता नहीं है
जितनी देर तुम हो
उतनी देर
समय है शांति है
निर्माण है पूर्णता है।

***

आग्नेय ‘सदानीरा’ के प्रधान संपादक हैं और यह ‘शुरुआत’ ‘सदानीरा’ के 20वें अंक में पूर्व-प्रकाशित है। यहाँ इसकी प्रस्तुति के साथ नए संपादन और नई वेबसाइट में सामने आई ‘सदानीरा’ को आज एक वर्ष हो गया। इस बीच हमने उन केंद्रीय आकांक्षाओं को पूर्ण करने के प्रयत्न किए, जिन्हें हमने एक वर्ष पूर्व व्यक्त किया था, जिनमें ‘सदानीरा’ को प्रथमतः और अंततः कविता से संबद्ध परिसर मानते हुए इसे व्यापक करने के लक्ष्य शामिल थे… क्योंकि हमें लगता है कि इस दौर में कविता की पहुँच तो व्यापक हुई है, लेकिन उसकी समझ धुँधली हुई है। इस वाक्य को उलटकर भी पढ़ सकते हैं, यानी एक ऐसे अतीत में जब कविता की समझ व्यापक थी और उसकी पहुँच धुँधली थी। तब कविता की पहुँच इतनी विस्फारित नहीं थी, जितनी आज है।

आज की और आज से पहले की सारी महत्वशाली कविता आज उँगलियों और क्लिक पर थिरक रही है। उसे समझना न सही, लेकिन उस तक पहुँचना आसान है, इतना आसान कि उसे पाने के लिए बिस्तर तक से उठना नहीं पड़ता। कविता तक जाने के लिए किए जाने वाले सारे गंभीर संघर्ष अब अतीत हो चुके हैं। इस प्रकार की सारी योजनाएँ अब अप्रासंगिक हो चुकी हैं। ऊब न हो इसलिए बहुत उदाहरणों और विश्लेषण से यहाँ बचना होगा। वीरेन डंगवाल ने अपनी एक कविता में कहा है :

कवि का सौभाग्य है पढ़ लिया जाना
जैसे खा लिया जाना
अमरूद का सौभाग्य है

लेकिन समय में मौजूद वास्तविक प्रतिभाओं और संभावनाओं को नज़रअंदाज़ करना समकालीनता का एक मशहूर रोग है। इसलिए कई कवियों की हैसियत अक्सर अमरूद से भी गई-बीती नज़र आती है।

एक वरिष्ठ कवि के शब्दों में कहें तो अगर हम केंद्रबिदुओं से कुछ बाहर देखने का कष्ट करें तो हाशिए पर हमें एक कवि दिखेगा। इन शब्दों के प्रकाश में देखें तो कविता की समझ और पहुँच को व्यापक बनाने वाली शक्तियों को सदा केंद्रबिदुओं से कुछ बाहर देखने के प्रयत्न करने चाहिए। लेकिन यों होता नहीं है।

इस बात को इन इशारों से समझिए कि क्या हमारे प्रतिष्ठित प्रकाशन हमारे समय की श्रेष्ठ और ज़रूरी कविता प्रकाशित कर रहे हैं, उसका प्रचार-प्रसार कर रहे हैं? जवाब है नहीं।

क्या हमारे संस्थान और निर्णायक-निर्णायिकाएँ हमारे समय की श्रेष्ठ और ज़रूरी कविता को पुरस्कृत कर रहे हैं, उसे स्थान दे रहे हैं? जवाब है नहीं।

क्या हमारे लेखक संगठनों में हमारे समय के श्रेष्ठ और ज़रूरी कवि शामिल हैं? जवाब है नहीं।

क्या हमारे समय की श्रेष्ठ और ज़रूरी कविता अभिव्यक्ति या संप्रेषण के अन्य माध्यमों पर बरती जा रही है? जवाब है नहीं।

क्या हमारी व्यावसायिक या लघुपत्रिकाएँ हमारे समय की श्रेष्ठ और ज़रूरी कविता छाप रही हैं? जवाब है नहीं।

क्या हमारे अख़बारों में हमारे समय की श्रेष्ठ और ज़रूरी कविता का कोई स्थान या उस पर कोई विचार-विमर्श हो रहा है? जवाब है नहीं।

इस तरह से देखें तो देख सकते हैं कि यह हमारी कविता के विरुद्ध अंधी कार्रवाइयों का दौर है, जहाँ एक औसतपन दूसरे औसतपन को आकर्षित कर रहा है। इस आकर्षण का विपक्ष समकालीनता में उपस्थित अग्रगामी और महत्वपूर्ण कविता नहीं बन पा रही है, क्योंकि उसकी सीमाएँ स्पष्ट औए शक्तियाँ सीमित हैं। वहीं कुछ सत्ताएँ ऐसी भी इस दौर में सक्रिय हैं जिनकी योजना कभी बहुत सारी औसतता के बीच थोड़ी-बहुत उत्कृष्टता को, तो कभी बहुत सारी उत्कृष्टता के बीच थोड़ी-बहुत औसतता को खपा देने की है। अग्रगामिता के साथ प्रतिगामिता को, सक्रियता के साथ काहिलपन को और वाग्मिता के साथ चालाक चुप्पियों को खपाती हुई इस प्रकार की समन्वयवादी और उत्सवधर्मी गतिविधियाँ प्रतिमाह हमारी भाषा में नज़र आती रहती हैं—बहुधा कविता से जुड़े आयोजनों में।

इस तथ्य पर ग़ौर करना चाहिए कि क्यों पूरी तरह कविता पर केंद्रित एक भी उल्लेखनीय और गंभीर पत्रिका आज हिंदी में नहीं है। इस तथ्य पर भी ग़ौर करना चाहिए कि पूरी तरह हिंदी कविता को केंद्र में रखकर किए जाने वाले कार्यक्रमों में पर्याप्त अगंभीरता और औसतपन पसरा हुआ है। इस तथ्य पर भी ग़ौर करना ही चाहिए कि आख़िर क्यों भुला दिए जाने लायक़ कविता विशेषांक हिंदी में नियमित निकल रहे हैं।

शमशेर के उस बहुउद्धृत कथन को याद करते हुए कि एक कवि की कविता उसके लिखते ही प्रकाशित है, अगर मौजूदा कविता के कार्य-व्यापार को समझें तो इसकी समझ और पहुँच का गए कुछ सालों में बहुत तीव्रता से निर्बुद्धिकरण हुआ है। इस कार्य-व्यापार की कोई दिलचस्पी अपने वास्तविक कवियों तक पहुँचने में और उन्हें लोगों तक पहुँचाने में नहीं है। इस पर एक ऐसा औसतपन हावी है जिसका मन और मुख एक नहीं है। इसकी प्राणवायु जनसंपर्कवाद में इसकी दक्षता है। एक झुकी हुई रीढ़ के बावजूद इसका अंग-संचालन एक तत्काल में हमारी वास्तविक कविता की समझ और पहुँच को बहुत बुरे अर्थों में प्रभावित कर रहा है। यह औसतपन टिकेगा नहीं, लेकिन हाथ-पैर बहुत मार रहा है।

इस दृश्य में ‘सदानीरा’ ने स्वयं को विश्व और अखिल भारतीय कविता के नए और ज़रूरी स्वरों से जोड़े रखा है। इसके साथ-साथ नया बनता हुआ हिंदी गद्य भी इसका एक पहलू है। हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के रूढ़ और सिद्ध अध्याय के आगे के कुछ पृष्ठ हमने खोलने की कोशिश की है। इस दरमियान कुछ घनघोर विवाद भी हमारे हिस्से आए, जिनका हमने सामना किया और अपने मूल पक्ष को दुहराया—‘सदानीरा’ सब प्रकार की प्रगतिशील दृष्टियों और रचनाधर्मिता का स्वागत करती है। इस स्वागत में हमने जो नहीं है, उसका ज़्यादा ग़म न करते हुए… सुरुचि और सौंदर्य का भरसक ध्यान रखने की कोशिश की है और अब भी कर रहे हैं। हमें इसमें क़तई पीछे नहीं लौटना है, हमारी निगाह आगे की कहानियों पर हैं, भले ही वे जटिलताओं और चूकों से भरी हुई हों, हम उन्हें व्यक्त करेंगे और उनसे सीखेंगे। हमें बहुत ज़्यादा भीड़ नहीं चाहिए, वे ही इधर आएँ जिनके लिए साहित्य जीवन और मरण का प्रश्न है, जिनकी वह पहली प्राथमिकता है। इस समय यह कहना जोखिमों से भरा लग सकता है, क्योंकि समय लिखने-पढ़ने के ख़िलाफ़-सा हो चला है। साहित्य और साहित्यकार आश्चर्यलोक की वस्तुएँ जान पड़ते हैं। इस दृश्य में हिंदी संसार में स्मृतिविहीन और समयविरोधी विमर्श तैर रहे हैं। वे बेतरह हमलावर हैं और सारी सार्थकता-बौद्धिकता के पीछे पड़े हुए हैं। इस प्रकार की विमर्शतत्परता से लड़ने के लिए ‘सदानीरा’ ख़ुद को तैयार कर रही है। वह विचारवंचित व्यक्तित्वों से भयभीत नहीं है। हिंदी-समय की सबसे नई और मेधावी आवाज़ें उसके साथ हैं। वह अपना दायित्व समझती है और इसलिए ही इन आवाज़ों का खुले दिल से स्वागत कर रही है। वह इस नज़रिए को और विस्तृत करने की प्रक्रिया में है। हम आज से कुछ और बदलाव भी कर रहे हैं, ये धीरे-धीरे देखने में आएँगे, हमें आप सबके सहयोग की ज़रूरत सतत बनी हुई है, इसके बग़ैर ‘सदानीरा’ का प्रवाह मुश्किल है, इसलिए हमारी गुज़ारिश है कि इस पर ध्यान दिया जाए। हम बहुत कुछ चाह कर भी नहीं कर पा रहे हैं, और इसके पीछे सिर्फ़ आर्थिक वजहें हैं।

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