नज़्म ::
तसनीफ़ हैदर

Tasneef Haidar urdu poet

ख़िलजी

दरबार में रोता हुआ जलालुद्दीन
अपनी फूली हुई तोंद और फफकती हुई आवाज़ के साथ कुछ कह रहा है
उसके वज़ीर सिर झुकाए खड़े हैं
जलालुद्दीन की आवाज़ गूंजती है
ख़ुदा मुझे मुआफ़ नहीं करेगा
मैंने चंद सिक्के लेकर हिंदुओं को त्यौहार मनाने की इजाज़त दी है

जज़िए1एक प्रकार का दंड/कर जो मुस्लिम राज्य में अन्य धर्म वालों पर लगता था. का सोग़ मनाता जलालुद्दीन
इतिहासकार से शर्माता हुआ जलालुद्दीन
अपनी हुकूमत को ‘इस्लामी हुकूमत’ का नाम देता हुआ जलालुद्दीन
मज़हब के लिए ख़ून बहाने की ख़्वाहिश रखने वाला जलालुद्दीन
इतिहास में याद किया जा रहा है एक शरीफ़ बादशाह के तौर पर
तख़्त पर अंधेरा है और उसके हाथों की लकीरों पर तैरते हैं ख़ून के लिजलिजे धब्बे
ये धब्बे उसके भतीजे अलाउद्दीन की वहशी ख़्वाहिशों के निशान हैं

इस्लामी हुकूमत का एक मोटा बादशाह मारा गया है दो कश्तियों के बीच
उसकी पीठ से फंस-फंस कर निकलने वाला गाढ़ा लाल रंग
वक़्त की काली क़लम में उड़ेला जा रहा है
सब कुछ अंधेरे में है
उसे मरवाया है उसके भरोसे ने
भरोसा जो उसे अपने मज़हब पर था
जो उसे अपनी हुकूमत और अपने किरदार पर था
वह भूल गया था कि बादशाहों का मज़हब होता है—
बहुत सारा सोना और बहुत सारा ख़ून
वही सोना जिसके लिए ग़ज़नवी ने सोमनाथ पर यलग़ार की
और निहत्थे पुजारियों की फ़रियाद को रौंदते हुए
लूट लिया उनका सोना, उनका आत्म-सम्मान
ज़र्ब2आघात, चोट. लगाई उनकी इबादत पर
और स्थापना की ऐसी मज़हबी हुकूमत की
जिसमें सिर्फ़ धोखे और लालच को मांज-मांज कर
इतना चमकाया जाता कि लोग उसे आसमानी ख़ुदा का हुक्म समझने लगते

जलालुद्दीन की आंखें उबल आई थीं,
बदन झूल गया था
अभी गिद्धों ने उसके औंधे बदन में अपनी मिनक़ारें3चोंचें. नहीं डाली थीं
अभी चीलों को उसका भद्दा जिस्म ऊंचाई की नीली निगाह से नज़र नहीं आया था
और जश्न मनाए जाने लगे—
क़त्ल के जश्न

अलाउद्दीन ने सीखा था इतिहास से
बहुत कुछ ऐसा जो उसके पुरखों और उनके पुरखों ने भी नहीं सीखा
वह जानता था कि शराब क्यों बंद कराई जाए
क्या महज़ इसलिए कि ये किसी अनदेखे आसमानी ख़ुदा का हुक्म है?
या फिर इसलिए कि शराब सत्ता की दुश्मन है,
साज़िश का पहला सुतून4स्तंभ. है
महफ़िलों में शराब पीते हुए उसके मुसाहिब बदल जाते हैं अचानक सांपों में
तलवार खींच लेते हैं ज़हरीली और ललकारते हैं हुकूमत को

ख़िलजी जानता था कि ‘ताक़त’ ही एक अकेला स्रोत है
जिससे बहती हुई आती है पाएदारी,
मुकम्मल मज़बूती
इंसान की हुकूमत मिट सकती है,
ख़ौफ़ की नहीं
इसलिए वह न बोलने देता, न सुनने, न समझने
ख़िलजी के हाथों लिखा जा रहा था एक नया वरक़
उससे कांपती थीं वहशी मुग़लों की जंगी तदबीरें
बजती थीं क़िलों की दीवारें
उसकी नज़र में हिंदू और मुसलमान कुछ नहीं थे
उसने अपने पुरखों की इस नसीहत को भी भुला दिया
कि नीच ज़ात के लोगों को दरबार का हिस्सा न बनाना
वह तो दुश्मन था बग़ावत का
तख़्त को घूरती हुई चोर निगाह का

ख़िलजी के दुश्मन सिर्फ़ उसके हम-मज़हब नहीं थे
सभी थे, वे सभी जो लिख रहे थे इतिहास और काला करना चाहते थे उसका मुंह
मगर उसका मुंह लाल था ख़ून से
जो बहता चला आया था ग़ज़नवियों से ग़ौरियों की दाढ़ियों तक
जो जमा हुआ था ग़ौरियों से ख़िलजियों की बांछों तक
उसके दुश्मन थे सांस लेने वाले लोग
सोचने वाले ज़ेहन (ख़ास तौर पर जो उसके ख़िलाफ़ सोचते थे)
उसके दुश्मन थे इतिहासकार
जिन्होंने लोगों से छुपा ली थीं वे बातें
जो दिखाती थीं उसका असली रूप
उसके बारे में झूठ लिखा एक तारीख़ी फ़रिश्ते5‘तारीख़-ए-फ़रिश्ता’ के लेखक मुहम्मद क़ासिम हिंदु शाह ‘फ़रिश्ता’. ने
एक फ़ैज़6‘आईन-ए-अकबरी’ के लेखक फ़ैज़ी. पहुंचाने वाले इतिहासकार ने
जिन्होंने उसे देखा था सदियों के फ़ासले से
और वे भूल गए बुलंद-शहर की गलियों वाले एक बूढ़े को7‘तारीख़-ए-फ़िरोज़शाही’ के लेखक ज़ियाउद्दीन बरनी. जिसके नाना वकील-ए-दर थे अलाउद्दीन के दरबार में

बूढ़े ने बताया कि अलाउद्दीन ऐसे लोगों की आंखें निकलवा लेता था
जो अपनी पत्नी के सिवा बनाएं किसी और से संबंध
चित्तौड़ के क़िले में रहने वाली किसी रानी को वह जानता तक नहीं था
और उसने घेरा-बंदी करने वालों का साथ दिया था कुछ समय के लिए
फिर वह लौट आया दिल्ली—
हमला-आवर मुग़लों से निपटने
मुग़ल— वहशी मुग़ल जो भारत पर बार-बार हमले करते
इस आस में कि वह सत्ता में आते ही शरीफ़ हो जाएंगे
उनके खुरदुरे हाथ जिन पर लगा है मासूम चीख़ों का रंग
सत्ता मिलते ही वे बनाएंगे यादगार मक़बरे
शानदार मोहब्बत की निशानियां
सफ़ेद संग-ए मरमर की इमारतें
कश्मीर में बिछा देंगे जन्नतों से उतरे हुए बाग़ों की मख़मली चटाइयां
दिल्ली और लाहौर में बनाएंगे शानदार मस्जिदें
और उन शाही मस्जिदों में गूंजने वाली आयतें सिखाएंगी लोगों को
कि एक बे-क़ुसूर आदमी का क़त्ल पूरी इंसानियत का क़त्ल है
मुग़लों के खुरदुरे हाथ, उड़ाएंगे कबूतर, थामेंगे परचम,
आज़ादी की पहली जंग का नेतृत्व करेंगे
और दफ़नाए जाएंगे रंगून में— एक मज़लूम की तरह
हवा में बुलंद होने वाले खुरदुरे हाथ जो अभी मायूस होकर लौट रहे हैं
एक इस्लामी हुकूमत के बादशाह अलाउद्दीन से,
दुबारा झप्पटा मारने के लिए

लेकिन अलाउद्दीन सच्चा था
अपनी भूखी वहशत में भी उसने मज़हब के हुक्म ठुकरा दिए
उसने पैग़म्बरी का दावा करना चाहा
उसने कहने की हिम्मत की पहली बार कि उसकी निगाह में एक हैं—
हिंदू-मुसलमान, अगर आते हैं वे उसके तख़्त की राह में तो वह दोनों के सिर कुचल देगा
उसकी बिफरी हुई लाल आंखों में
किसी मज़हबी नारे की लाली नहीं है,
किसी मज़हबी ख़ौफ़ का साया नहीं है
वह उखाड़ देना चाहता है अपनी छोटी-सी पकड़ से मज़हब की उस दुहरी सोच को
जो ख़ून बहाकर भी इंसानियत के गीत गाने का ढोंग करती है
अलाउद्दीन देखता था सफ़ेद और काला
इसलिए उसे हरा या केसरिया नहीं दिखते थे
लेकिन तारीख़ के क़ब्रस्तान में दफ़्न इस वहशी, जाहिल और जंगली बादशाह के ख़ूनी पंजे
मज़हब को नज़रअंदाज़ करने की सज़ा भुगतते हुए दिख रहे हैं
उसकी पीठ पर ज़ख़्म हैं इल्ज़ामों के,
उन इतिहासकारों के इल्ज़ाम जिन्होंने कभी बनाया उसे सच्चा मुसलमान
कभी लोगों के सामने पेश किया उसका वह रूप जिसमें दिखाई देता था वह हिंदुओं का दुश्मन

अलाउद्दीन, जलालुद्दीन नहीं था
उसने कभी नहीं कहा कि मैं ख़ुदा को क्या मुंह दिखाऊंगा
क्योंकि मैंने इजाज़त दी है हिंदुओं को उनका त्यौहार मनाने की—
सिर्फ़ चंद सिक्कों के बदले

***

तसनीफ़ हैदर उर्दू की नई कविता के चंद चमकीले नामों से एक हैं. दिल्ली में रहते हैं. उनसे sayyed.tasneef@gmail.com पर बात की जा सकती है. यहां प्रस्तुत नज़्म उर्दू से हिंदी में उन्होंने खुद लिप्यंतरित की है. यह भी गौरतलब है कि यह नज़्म उर्दू में अब तक अप्रकाशित है और यहां प्रथमतः प्रकाशित हो रही है.

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