नस्र ::
तसनीफ़ हैदर

अभी कुछ रोज़ गुज़रे, जब मेरे एक दोस्त ने सवाल पूछा कि तसनीफ़ तुम इधर-उधर की चीज़ें लिखते रहते हो, इससे ज़्यादा बेहतर था कि एम.फ़िल्. लिखकर जमा कर देते, ये जो ख़्वार फिरते हो, दोस्तों के क़र्ज़ और यारों के एहसानों तले ज़िंदगी गुज़ारते हो ये कब तक मुम्किन है. आख़िर ज़िंदगी कोई संजीदा आर्थिक साधन तो चाहती है. तुम्हें एक तरफ़ आराम से सर्दी की धूप में बैठकर किताबें पढ़नी हैं, ‘अदबी दुनिया’ का बाज़ार गर्म रखना है. किताबें लिखनी हैं, शाइरी करनी है और दूसरे बहुत से ऐसे काम तुम्हारे दिमाग़ में हैं, जिनसे तुम ज़िंदगी को भी ख़ूबसूरत बनाना चाहते हो.

इस दोस्त की बात ग़लत न थी, कोई भी दोस्त इसी तरह सोच सकता है और उसे ढंग से सोचना भी चाहिए. कई बार मैं ख़ुद भी इरादा बांधता हूं कि जिस एम.फ़िल्. में बीस-पच्चीस पन्ने लिखने रह गए हों, उसे पूरा करके जमा कर देने में आख़िर ऐसी कौन-सी आफ़त है. संभव है कि मेरी ज़िंदगी कभी ऐसा ही कोई जादू दिखा दे कि मैं किसी यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग में टाई-कोट पहने आपको बैठा हुआ दिख जाऊं, मगर ये जादू ऐसा काला जादू होगा, जिसे में फ़िलहाल पसंद नहीं करता. वजह उसकी ये है कि मैंने पिछले दो-तीन सालों में अपने अंदर एक ऐसा अजीब तरह का बदलाव देखा है कि उर्दू के उस्तादों में अपना शुमार कराने को जी नहीं चाहता.

ऐसा भी नहीं है कि सब ऐसे ही हैं. इन्ही यूनिवर्सिटीज़ में कहीं आपको ख़ालिद जावेद, कहीं तारिक़ छतारी और कहीं दूसरी ऐसी शख़्सियतें भी दिखाई देंगी जो इस पूरे धब्बेदार चांद में अब भी उजाले का सबब बनी हुई हैं, और मेरे इस ज़िक्र का मक़सद किसी भी उर्दू के प्रोफ़ेसर पर कीचड़ उछालना हरगिज़ नहीं.

देखिए! हर चीज़ का एक कल्चर हमारे यहां बनता है, जो बहुत धीरे-धीरे परवान चढ़ता है और फिर वो हमारी रगों में उतर जाता है. यूनिवर्सिटीज़ क्या करती हैं, वो क्या कर सकती हैं. वो बस तालीम के फैलाव का ऐलान कर सकती हैं, मगर तालीम क्या दसवीं कक्षा के बाद सिर्फ़ तालीम ही रह जाती है? मेरे ख़्याल में तो इससे पहले ही विकास की वह प्रक्रिया शुरू हो जाती है, जिससे हमें सोचने-समझने की क्षमता पैदा करने में मदद मिलती हो. मगर यूनिवर्सिटी का ये कल्चर उस दौरान ख़त्म हो गया था, जब हमारे उस वक़्त के अहम आलोचकों ने ऐसे लोगों को यूनिवर्सिटी के दामन पर धब्बों की तरह फैलाना शुरू किया था, जो ख़ुद इस वैचारिक जद्दोजहद से बहुत दूर रहना चाहते थे… जिनका डाइजिस्टों, व्याकरण और आलोचना की गाढ़ी शब्दावली से तो गहरा रिश्ता था, मगर रचनात्मकता से वे कोसों दूर थे.

मैं पूरे दो साल के अरसे में दिल्ली यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग शायद दो या तीन बार गया हूं, वहां जाते ही मेरे अंदर एक अजीब-सी कैफ़ियत पैदा हो जाती है, वहां के छात्र तो ख़ैर क्या किसी अहम विषय पर बात करेंगे, बल्कि उस्ताद ख़ुद अजीब-सी ज़बानों में गुफ़्तगू करते नज़र आते हैं. डिपार्टमेंट में सारी चीज़ें हैं, सब लोग अपनी कुर्सियों पर ठस्से से बैठे हैं, फिर भी जहालत की फैलाई वो बे-रौनक़ी ख़त्म ही होने को नहीं आती, जिसमें किसी नएपन का एहसास, किसी नई बात की चमक या किसी नई रचना पर बहस की रौशनी नज़र आती हो.

मैंने लोगों को इन्हीं यूनिवर्सिटीज़ में लेक्चरर बनने के लिए ऐसी परीक्षाओं की तैयारी करते देखा है, जिसमें इस किस्म के सवालात पूछे जाते हैं कि मुल्ला वजही की लिखी हुई मसनवी का नाम क्या है या फिर फ़ुलां अफ़साना इन चारों में से कौन-से अफ़्साना-निगार का है. कोई मज़ाक़ ही मज़ाक़ है साहिब. इससे तो दिमाग़ को ज़िंदगी मिलने से रही. अगर कोई आदमी ऐसे बेवकूफ़ाना और ऊटपटांग किस्म के सौ में से अस्सी सवालों के सही जवाब देकर लेक्चरर बनने का हक़दार हो जाता है तो मुझे खड़े होकर आप, अपने लिए ताली बजाने का मौक़ा ज़रूर दीजिए.

मैं सोचता था कि यूनिवर्सिटी जाऊंगा, मेरी अम्मी को शौक़ था या शायद अब भी होगा कि पास-पड़ोस के रहने वाले उनके बेटे को प्रोफ़ेसर साहिब कह कर पुकारें. मगर में तो इस खुले दोग़लेपन और एक आंख वाली मूर्खता पर हंसे बग़ैर नहीं रह सकता कि छात्र इंटरव्यू में आलोचनात्मक लेखों की दस कॉपियां इसलिए छपवाकर ले जाते हैं, क्योंकि उस किताब के पांच-दस नंबर जुड़ते हैं. मालूम हुआ कि सृजनात्मक किताब इंटरव्यू में कोई हैसियत नहीं रखती. प्रोफ़ेसर, डीन, इंटरव्यूअर उसे बिल्कुल कचरे की मानिंद समझता है. यानी एक ऐसी चीज़ जिसके कोई नंबर नहीं, आप शाइर हैं, होंगे, अफ़्सानानिगार हैं, बला से. यानी रचना एक हाशिए पर पड़ी हुई या शायद इससे भी बाहर निकली हुई कोई चीज़ है.

अगर कोई मासूम उम्मीदवार अपनी ऐसी किसी किताब को लेकर इंटरव्यू में पहुंच जाए तो उसे मज़ाक़ का निशाना बनाया जाएगा और वाक़ई पूरी संजीदगी से उसका इस बात पर मज़ाक़ उड़ाया जा सकता है कि वो मात्र रचना के बलबूते पर कैसे इस गंभीर, भारी सांसें भरने वाली साहित्यिक और बोझल प्रोफ़ेसराना दुनिया में क़दम रखने की हिम्मत कर सका. नहीं साहिब! रचना नहीं चलेगी. बस वही चलेंगी बरसों पुराने विषयों पर लिखी हुई गाढ़ी तहरीरें.

ग़ालिब की ग़ज़ल और उर्दू की तरक्की, इक़बाल के कलाम में मौजूद ऐतिहासिक घटनाओं की खोज, मंटो के अफ़साने में सामाजिक हक़ीक़त की तलाश… फ़ुलां फ़ुलां फ़ुलां… मेरे लिए ऐसी कोई किताब तैयार करना बिल्कुल मुश्किल काम नहीं, बल्कि मैं एक रात में, जी हां पूरे होश-ओ-हवास में कह रहा हूं, एक रात में ऐसी एक किताब तैयार कर सकता हूं, जो आपके यहां पहुंचकर कम अज़ कम वो पांच या दस नंबर हासिल कर लेगी, जिसको उम्मीदवार बड़ी मेहनत और भारी दिल के साथ क़लमबंद करके हासिल करते और ख़ुश हो जाते हैं.

लेकिन इस लंबी-चौड़ी बहस का मतलब क्या होगा, क्या में अपनी ज़िंदगी की एक हसीन रात, आपके इस बेहूदा मक़सद के लिए बेकार करूं? मैं मानता हूं कि आप मुझे हर महीने बच्चों को शाइरी की व्याख्या और अफ़्सानों के प्लाट का जायज़ा लेकर दिखाने की एक मोटी रक़म दे सकते हैं, मगर वो मोटी रक़म हासिल करने के बदले, मुझे ख़ुद को नष्ट करना होगा. सेमिनारों और सिम्पोज़ियमों की ऐसी अजीब-सी बू मेरे नथुनों में आपके विभागों का ज़िक्र सुनकर फैलती है कि मैं उबकाई लेने पर मजबूर हो जाता हूं, कोई ताज़ा हवा का झोंका इस तरफ़ से आता नहीं, कोई ऐसी बात नहीं जो ज़हन को एहसास दिलाए कि अख़ाह! इसी तर्ज़ पर तो सोचा जाना चाहिए.

रोज़ एक उस्ताद आता है, और विभिन्न साहित्यिक विधाओं की उल्टी-सीधी व्याख्या कर समझता है कि उसने बहुत बड़ा काम कर लिया है. मैंने उर्दू ज़बान-ओ-अदब की तालीम का चुनाव करने वाले छात्रों की बुरी हालत पर कभी आंसू तो नहीं बहाए, मगर इस बात का अफ़सोस हमेशा रहा कि उन्हें छठी कक्षा से लेकर ग्रैजुएशन, पोस्ट ग्रैजुएशन तक सिर्फ़ यही सिखाया जाता रहा है कि ग़ज़ल का मतलब औरतों या महबूबा से बातें करना होता है.

यहां एक अजीब और क़रीब-क़रीब अनुचित से एक हादसे का ज़िक्र करना चाहूंगा, मेरी परवरिश एक ऐसे परिवार में हुई जो तावीज़ों, दुआओं, फ़ातिहा-ख़्वानी, मीलाद और मज़ारों की ज़ियारत से बहुत श्रद्धा रखता है. वसई गांव (महाराष्ट्र) में हमारे ही मुहल्ले में एक बाबा रहा करते थे, उनका नाम मैं नहीं जानता, छोटा क़द, सत्तर-बहत्तर की उम्र, मगर अपनी पीठ पर हमेशा किताबों का एक गट्ठर उठाए घूमा करते थे, इस निसबत से पूरे मुहल्ले में वो किताबों वाले बाबा के नाम से मशहूर थे. नमाज़ कोई क़ज़ा न करते, उनसे अक्सर मस्जिद में मेरी मुलाक़ात हुआ करती थी. सारा गांव उन्हें वली समझा करता था, इसलिए हमारे दिल में भी उनसे श्रद्धा जाग गई. एक दिन में उनके पास गया और उनसे कोई तावीज़ तलब की, वो हंसने लगे, कहने लगे बेटा! मुस्लमान को तावीज़ की क्या ज़रूरत है. वो तो ख़ुद चलता-फिरता तावीज़ है. बिसमिल्लाह पढ़ो और कोई भी अच्छा काम शुरू कर दो.

आज सोचता हूं कि हमने तालीम के मुआमले में भी ऐसे ही तावीज़ों पर भरोसा करके बहुत बड़ी ग़लती की है. ये तावीज़ हमारे किसी काम के नहीं हैं. हमें तो अब फिर से बिसमिल्लाह पढ़कर इस मैदान में उतरने की ज़रूरत है. और इससे पहले इस हालत पर हंसने और बात करने की ज़रूरत है, जिसने मुझसे पहले और मेरी समकालीन पीढ़ी को ज़हनी तौर पर क़ल्लाश-ओ-कंगाल बना दिया है.

आख़िर उर्दू अदब पढ़ाने वाला प्रोफ़ेसर ये कैसे समझा सकता है कि ग़ालिब का कोई शे’र रचनात्मकता के लिहाज़ से कितना अहम है, जबकि रचना से उसका दूर का कोई वास्ता ही नहीं, उसे तो रचना के नंबर ही नहीं मिले. वो तो मोटी-मोटी आलोचनाओं और अन्वेषणों की किताबें पढ़कर यहां चला आया और फिर एक मलग़ूबा-सा बनाकर किसी किताबी कुंजी की मदद से ग़ालिब के शे’रों को ख़र्चने में मसरूफ़ हो गया.

रोज़गार का स्रोत ढूंढ़ना अच्छी बात है, इसकी तरफ़ गंभीरता से तवज्जोह देना और भी अच्छी बात है. आर्थिक हालत जिस ज़रिए से सुधरे, सुधारी जानी चाहिए. लेकिन कभी-कभी रुक कर सोच लेना चाहिए कि पैसा कमाने के इस अजीब-ओ-ग़रीब फेर में पड़कर हम गंवा क्या रहे हैं.

ज़हन डूब रहा है, जिस्म सुन्न हो रहा है. हाथ में कोई उजला लफ़्ज़ नहीं, दिमाग़ में कोई धुली-धुलाई बात नहीं. बस वही गले, पिचके, सड़े निवाले जो बरसों से चबाए जा रहे हैं… हमारे आगे भी परोस दिए जाएंगे. मुझे मालूम है कि इस सिस्टम में अगर मैं गया तो मेरे मैथड से आप मुझे किसी को पढ़ाने का मौक़ा ही नहीं देंगे. छात्र ख़ुद मेरी शिकायत करेंगे कि ये आदमी जो कुछ कहता है, हमारी समझ में ही नहीं आता. ये अदब-वदब तो पढ़ाता नहीं, ज़िंदगी के बारे में बताता है. ज़िंदगी, जिसके उर्दू विभाग में कोई नंबर ही नहीं.

***

तसनीफ़ हैदर का यह गद्य लगभग डेढ़ बरस पहले पाकिस्तान के मशहूर वेब जर्नल ‘हम सब’ पर शाया होकर चर्चित और विवादित हो चुका है. ‘सदानीरा’ के लिए इसका हिंदी तर्जुमा खुद लेखक ने किया है. इसमें वर्णित उर्दू विभागों की स्थिति बताती है कि वहां भी लगभग हिंदी विभागों जैसे ही हालात हैं. हम और भारतीय भाषाओं में अगर तसनीफ़ सरीखे कुछ योग्य, जुझारू और बेबाक नौजवान खोज पाएं तो हमें सारी भारतीय भाषाओं की वास्तविक विभागीय स्थिति पता चल सकती है. मैक्सिम गोर्की ने अपनी आत्मकथा के तीसरे खंड ‘माय यूनिवर्सिटीज’ में सच्चे अर्थों में शिक्षित, जागरूक और रचनात्मक होने के लिए जिन जगहों का जिक्र किया था उनमें वे विश्वविद्यालय नहीं थे जिनमें हर भाषा के अपने-अपने रचनात्मकता से शून्य प्रोफेसरान पढ़ाते हैं और अपने सरीखे पढ़ाने वाले तैयार करते जाते हैं. लेखक की तस्वीर बेवजह के सौजन्य से.

तसनीफ़ हैदर की छह नज़्में और उनके बारे में यहां पढ़ें :

इतने शोर में गूंज रही है इक आवाज़ हमारी भी

1 Comment

  1. प्रमोद शाह दिसम्बर 24, 2018 at 1:06 अपराह्न

    वैसे यूनिवर्सिटी का ध्येय रचनाकार के बजाय आलोचक और शिक्षक बनाना है।
    रचनाकार को समझने के लिए
    बदलाव को गति देने के लिए

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