रपट ::
पीयूष तिवारी
पनीर कितना अच्छा होता, अगर वह पनीर होता
बीती 8 अगस्त की दुपहर से ही मुझे रवींद्र कालिया बेहद याद आ रहे थे। मैं पीता नहीं हूँ, न ही किसी पीने वाले दोस्त को जानता हूँ; इसलिए उन्हें सेलिब्रेट नहीं कर पा रहा था। एक अभ्यस्त साप्ताहिकी के बीच मुझे थोड़ा बेतरतीब होना था। मैं इस होने में पान खाकर लोधी रोड में जगह-जगह थूकने की इच्छा से चिराग़ दिल्ली से निकला और जोर बाग़ पहुँच गया।
अवसर—जुलाई की छह को जानकीपुल द्वारा आयोजित (अतिविवादित) ‘शशिभूषण द्विवेदी स्मृति सम्मान’ के बाद अब यानी अगस्त की आठ को ‘मनोहर श्याम जोशी स्मृति व्याख्यानमाला’ का आयोजन। विषय : ‘साहित्य के हस्तक्षेप’। मैंने अपनी जगह ले ली। इधर भीड़ वैसी ही थी, जैसे इस प्रकार के कार्यक्रमों में होती है।
शुरुआत रोहिणी कुमारी ने उसी तरह की जिस तरह की उम्मीद थी—‘‘वे आज होते तो 91 वर्ष के होते।’’ इसके बाद संचालन का कार्यभार वह प्रभात रंजन को सौंपकर ज़िम्मेदारियों से बरी हुईं। यह मुक्तियों के बेरोक सिलसिले की महज़ शुरुआत भर थी।
मंच पर तीन वक्ता दिखाई दे रहे थे—रविकांत (राजपुररोडवाले), अनुपम जोशी (बाल्टीमोरवाले), अशोक वाजपेयी (मंडलावाले)। अशोक वाजपेयी—चाँदी बाल, मुलायम कुर्ता, उदात्त भाव-भंगिमा। वह भव्य, वैभवपूर्ण और सम्मोहनीय दिख रहे थे।
अशोक वाजपेयी केंद्रीय वक्ता की भूमिका में थे, लेकिन उनकी गरिमा इस बात की गवाही नहीं दे रही थी। नामवर सिंह के जाने के बाद हिंदी-धरती पर वह अकेले महान् आदमी बचे हैं जिन्हें अध्यक्षीय कुर्सी लगभग रोज़ पुकारती रहती है। इस अवसर पर तो यह पुकार लगभग चीख़ में बदल गई। इससे गले की नसें तड़तड़ाने लगीं।
अशोकीय आभा के बीच अध्यक्ष रविकांत के चेहरे की अपरिहार्य विकल्पहीनता देख मुझे किशन सरोज की दो पंक्तियाँ याद आ गईं :
अश्रु की उजड़ी सभा के
अनसुने अध्यक्ष हम
हॉल भर दिया, खचाखच भीड़ और अपार जनसमूह—जैसे वाक्य बहुत चालू और बाज़ारू हो चुके हैं। इनका इस्तेमाल अब किसी और अर्थ में होने लगा है। लेकिन रविकांत ने अपनी बातचीत की शुरुआत इन्हीं शब्दों से की। अनुपम जोशी के बारे में कहते हुए—‘फलाना हैं फलाना हैं’ सरीखा ब्योरा पेश करने के बाद, मिझरी और साँवा के तर्ज़ पर उन्होंने किसी विश्वविद्यालयी व्याख्यान शृंखला को इस व्याख्यानमाला में पिरो देने की बात प्रस्तावित की। मनोहर श्याम जोशी द्वारा ‘रघुवीर सहाय के संस्मरण’ में ‘क्लूज-सुराग़ों’ की बात करते हुए वह बहुत लयबद्ध हो गए—अ अ अ अ अ… अशोक वाजपेयी को इस प्रकार के शास्त्रीय आलाप काफ़ी पसंद हैं और यह बात प्रभात रंजन को पता है! पता नहीं कबसे, लेकिन पता है…
रविकांत ने अशोक वाजपेयी का परिचय इस अदा से दिया—‘‘अशोक वाजपेयी वह ‘बूढ़े बाबा’ हैं जो ‘आकाश’ की तरह सबको कुछ न कुछ बाँटते हैं।’’
अशोक वाजपेयी के बारे में यह बिल्कुल तर्कसंगत बात है, क्योंकि हर चीज़ जो कमनीय है; उनके कुर्ते की बाईं जेब में मौजूद रहती है—वह कभी भी, किसी को भी, कुछ भी दिला सकते हैं। इस बात पर मुझे रवींद्र कालिया (ग़ालिबछुटीशराबवाले) फिर ज़ोर-ज़ोर से याद आने लगे :
‘‘कहा जा सकता है कि अशोक वाजपेयी शुरू से ही इंतज़ाम-ए-आली थे। कहीं नाश्ता, कहीं बीयर, कहीं लंच, कहीं मदिरापान तो कहीं डिनर। हम लोग जहाँ भी जाते, साये की तरह साहित्य साथ-साथ चलता।’’
इसके बाद अनुपम जोशी ने ‘धृष्टता’ शब्द का तीन बार जाप किया और एक बे-तार का तार दौड़ाया और बृहदारण्यक उपनिषद् के एक श्लोक के माध्यम से भारतीय दर्शन का सूत्रपात करते हुए ‘कसप’ को प्रेम-कहानी घोषित कर दिया।
माहौल में अब एक ज़रूरी गर्मी आ गई थी। इस गर्मी में मनोहर श्याम जोशी की खोजबीन चल पड़ी, जैसे वो जाने कहाँ बिला गए हों! इसकी तस्दीक़ कार्यक्रम भर फ़ोन चलाते पुष्पेश पंत (सबकामबहुततेज़करनेवाले) और ‘रिपोर्ट के सिपाही’ विमल कुमार उर्फ़ बिल्लू दा उर्फ़ सपनेमेंएकऔरतसेबातचीतवाले से की जा सकती है।
इस अवसर पर संचालन इतना बिखरा-बिखरा था कि संचालक कौन है और वक्ता कौन… इसके लिए मुझे ही नहीं सबको आख़िरी तक इंतिज़ार करना पड़ा।
प्रत्येक बड़े आदमी को मालूम होता है कि माहौल कैसे बनाया जाता है। अशोक वाजपेयी भी इस बड़प्पन से बाहर नहीं हैं। उन्होंने चुटीले स्वर में कहा कि ‘मैं पौने दो घंटे बोलूँगा’ और एक ठीक-ठाक हँसी सभागार में पसर गई। उन्होंने मृदुला गर्ग को भी ‘वाचाल बूढ़ों’ की जमात में जोड़कर अपनी चिरपरिचित मठाधीशी का हल्का मगर अनिवार्य प्रदर्शन किया।
अशोक वाजपेयी ने मनोहर श्याम जोशी की एक लंबी कविता ‘हनुमान जी बंदर हैं’ को उद्धृत किया और माहौल में हँसी और जवान हो गई। आगे उन्होंने फिर मश्जो की दो उक्तियों का सहारा लिया। यद्यपि चुटीले अंदाज़ में कही गई दूसरी उक्ति की पहली पंक्ति उनके व्याख्यान का समूचा सार बन गई—‘‘हिंदी में गंभीरता से कही गई मूर्खतापूर्ण बातों को गंभीरता से लिया जाता है और हल्के-फुल्के अंदाज़ में कही गई महत्त्वपूर्ण बातों को अगंभीरता से ग्रहण किया जाता है।’’
इसके बाद अशोक वाजपेयी ने ‘हस्तक्षेप’ को व्यापक-सकारात्मक अर्थ प्रदान करते हुए ‘साहित्य में हस्तक्षेप’ करने वालों की एक सूची पेश की। भारत-भवन जैसी ‘ईमानदार’ संस्थाओं की कलई खुल जाने के भय ने उनकी ‘ईमानदार शंकाओं’ को मात्र इशारों तक ही महदूद रखा। ‘समय टपक रहा है, गिर रहा है, न बचा पाने का समय होता जा रहा है’—सरीखे कचरा वाक्यों के साथ उन्होंने अपनी प्रतिभासंपन्नता भी टपका दी। वह आगे असहमति, अधैर्य, षड्यंत्र, लोकतंत्र, सत्ता, अज्ञातकुलशील, धर्म, भ्रष्टाचार, व्यभिचार, बलात्कार, कदाचार, विचार, पापड़, अचार आदि शब्दों को रंदे से छीलते रहे। उन्होंने इसके साथ ही ‘बेचैनी और असंतुष्टि’ के इर्द-गिर्द ब्रेक-डांस करते लेखकों की परिभाषा का निरूपण किया। ‘बहुसमयता में उपस्थिति’ की बात करते हुए अशोक वाजपेयी ख़ुद समयाध्युषित नज़र आए।
इसके बाद अशोक वाजपेयी का पूरा व्याख्यान सूक्तिपरक हो चला। इतना कि इसे संकलित किया जाए तो इस व्याख्यानमाला के बरअक्स एक सूक्तिमाला तैयार हो जाए। यह माला कुछ इस तरह से होगी :
• साहित्य लगभग रूप से जैविक होता है।
• साहित्य में ‘साधारण’ सौ वर्षों में आया।
• साहित्य में सारे सच अधूरे सच होते हैं।
• साहित्य मनुष्य की अपरिहार्य…
• साहित्य अकेला, निहत्था, वेद्य…
• साहित्य हस्तक्षेप करने से चूकता नहीं…
सूक्तियों की ध्वन्यात्मकता ने साहित्यिक लंपटों में विचित्र तरह की विश्वसनीयता पैदा की। ‘होना पड़ेगा’ के अंतर्गत अशोक वाजपेयी ने निष्कर्षतः गांधी जी को उद्धृत किया :
• साहित्य को सत्याग्रह होना…
• साहित्य को असहयोग होना…
• साहित्य को सविनय अवज्ञा होना…
‘‘मित्रो, दुनिया उनसे नहीं बदली जो भजन मंडली साथ लेकर चलते थे…’’ जैसी महान् उक्ति-सूक्ति-चूक्ति अशोक वाजपेयी ही कह सकते हैं, जिनकी अपनी ख़ुद कई मंडलियाँ हैं। अशोक वाजपेयी एक ऐसे महाद्वीप हैं, जहाँ सब तरह की संभावनाएँ प्रायिकता के पार भी पल्लवित होती रहती हैं। इस महान् सूक्ति के साथ अशोक वाजपेयी का यह महान् सूक्तिगान समाप्त हुआ!
भूख ऐसे मौकों पर लग ही जाती है। मैं ‘आभार की महफ़िल’ छोड़कर समोसा ढूँढ़ने के लिए बाहर निकला जो कार्यक्रम की तरह ही ख़त्म हो चुका था।
पीयूष तिवारी हिंदी की बिल्कुल नई पीढ़ी के बेहद योग्य और सक्रिय सदस्य हैं। एक अत्यंत साधारण से कार्यक्रम की एक असाधारण रपट रचकर उन्होंने हिंदी में साहित्यिक रिपोर्टिंग को एक नई और अर्थपूर्ण ऊँचाई दे दी है। इस पर यह ध्यान देने योग्य है कि यह उनकी पहली ही विधिवत रपट है। यह वर्ष हिंदी में साहित्यिक रिपोर्टिंग के लिए एक अभूतपूर्व वर्ष सिद्ध होने जा रहा है। यह हिंदी में साहित्यिक रिपोर्टिंग की एक रचनात्मक विधा के रूप में वापसी है। यह सुखद है कि यह विधा कायरों और कमीनों के लिए नहीं है। यह चापलूसों और चमचों के लिए भी नहीं है। यह सुकुमार और सुकुमारियों के लिए भी नहीं है। वे इस विधा से दूर ही रहेंगे और सच्चे और दिलेर तरुण रचनाकारों के आगे-सामने पूरा मैदान पड़ा रहेगा। यह रपट अपने साथ इसे हटवा दिए जाने का संकट लेकर आई है। इसलिए हमने इसे एक बिल्कुल सुरक्षित स्पेस में सेव कर लिया है। हिंदी की सबसे शक्तिवाली सत्ता का उपहास उड़ाती हुई इस रपट का अब चाहकर भी कोई माई का लाल कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इसे पढ़कर वास्तविक रूप से ‘साहित्य के हस्तक्षेप’ ज्ञात होंगे। इसे पढ़कर चालू बातों से विरक्ति हो जाएगी। यह फिर से दुहराना ज़रूरी है कि इस प्रकार की रपटों की सही जगह किसी दैनिक अख़बार या किसी पत्रिका में नहीं होती और न ही गड़बड़ समझ और सतही पारस्परिकता से युक्त भयभीत ब्लॉग्स-पोर्टल्स-वेबसाइट्स में। हम साहित्यिक रिपोर्टिंग की आयु एक-दो रोज़ भर नहीं मानते हैं। हम पार्टियाँ ख़राब करने में यक़ीन रखते हैं और सत्ताओं को सिरदर्द देने में। पीयूष तिवारी से piyushtiwarii620@gmail.com पर बात की जा सकती है।
सारी सत्ताओं से परे एक अविनाशीय रिपोर्टिंग-गद्य-लय वाली सत्ता भी है, कि पीयूष के गद्य की लय और शब्द-चयन अविनाश मिश्र के आक्टोपस का विस्तार लगते हैं. गद्य की अपनी लय पा लो वड़चो वर्ना कदाचित एनो मीनिंग सू हो जावोगे.