अरुण कोलटकर की कविताएं ::
अनुवाद और प्रस्तुति : प्रतिभा
कोल्हापुर महाराष्ट्र में जन्मे अरुण कोलटकर (1 नवंबर 1932 – 25 सितंबर 2004) मराठी उत्तर आधुनिक कविता के महत्वपूर्ण कवि हैं. कोलटकर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट से कला के विद्यार्थी रहे. अपने लिखे को प्रकाशित करवाने से वह हमेशा झिझकते रहे, यही कारण था कि साल 1955 से मराठी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में कविता लिखने वाले इस कवि के 2002 तक मात्र दो संग्रह प्रकाशित हुए थे. केवल जिस वर्ष उनकी मृत्यु हुई उस वर्ष यानी 2004 में उनके पांच कविता-संग्रह प्रकाशित हुए.
कोलटकर की शुरुआती मराठी कविताएं प्रयोगात्मक रही हैं, जिन पर यूरोपीय प्रभाव देखा जा सकता है. ये कविताएं सामाजिक परिस्थितियों एवं सांस्कृतिक मापदंडों के दोगले और खोखलेपन पर करारी चोट करती है, यही वजह है कि इनका कवि बहुत से साहित्यिकों की आंख की किरकिरी भी बना रहा.
कोलटकर की कविताएं एक ही समय में अप्रत्यक्ष, सनकीपन की हद तक व्यंग्यात्मक, अंधेरी, भयावह और उतनी ही कोमल और आकर्षक हैं.
आज की परिस्थितियों में उनकी कविता की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है और वह उक्ति सही मालूम होती है कि लेखक की मृत्यु के बाद उसकी दूसरी उम्र प्रारंभ होती है. कोलटकर की मृत्यु के बाद उनके कार्यालय से उनके द्वारा लिखे पन्नों का जो जखीरा मिला है उससे यह पता लगता है कि कोलटकर का पूरा लेखन अभी प्रकाशित ही नहीं हुआ है और जितना प्रकाशित हुआ है, उस पर भी कोई समग्र विचार अभी तक मराठी-समीक्षा में आया नहीं है. दो भाषाओं में प्रगट होने वाले इस कवि के अस्तित्व के इतने अलग-अलग संदर्भ और आयाम हैं कि इन पर समग्र-समीक्षा कब होगी, कुछ कहा नहीं जा सकता. लेकिन कवि स्वयं के लिए ही कह गया है :
Whether half my work will always remain invisible
like the other side of the moon
वामांगी
एक दिन यूं ही मंदिर चला गया
लेकिन विट्ठल का कहीं अता-पता नहीं था
रखुमाई के बगल में बस एक खाली ईंट रखी थी!
मैंने भी सोचा चलो रखुमाई तो रखुमाई ही सही
किसी के भी पैरों पर सिर रखने से मतलब है बस
पैरों पर रखा सिर यह सोचकर फिर से उठा लिया
कि आज नहीं तो कल
फिर मुझे ही इसकी जरूरत पड़ेगी
और चलते-चलते यूं ही
रखुमाई से पूछा
विट्ठल कहीं दिखाई नहीं देते
कहां गए है?
रखुमाई चौंकी
कहां गए हैं मतलब?
मेरे बगल में नहीं खड़े हैं क्या!!
मैंने फिर से एक बार देखा
और पूरे विश्वास के साथ कहा
नहीं!
वहां तो कोई नहीं!
वह बोली
नाक की सीध में देखते हुए
जन्म बीता
बगल का मुझे थोड़ा कम ही दिखाई पड़ता है
पथरा गई हूं
गर्दन जरा नहीं हिलती अब
कब आते हैं? कब जाते हैं?
कहां जाते हैं? क्या करते हैं?
मुझे कुछ भी नहीं पता
कांधे से कांधा जोड़े
हमेशा बगल में खड़े होंगे विट्ठल
यही सोचकर मैं पागल
खड़ी रही
आषाढ़ी-कार्तिकी पर
इतने लोग आते हैं!
कैसे किसी ने कभी बताया नहीं मुझे?
आज अचानक
जैसे दौड़कर मिलने चला आया है मुझसे
अट्ठाईस युगों का अकेलापन…
पंढरपुर महाराष्ट्र का एक सुविख्यात तीर्थस्थान है. भीमा नदी के तट पर बसा यह तीर्थस्थल शोलापुर जिले में स्थित है. यहां भगवान विट्ठल का विश्वविख्यात मंदिर है. भगवान विट्ठल को हिंदू श्रीकृष्ण का एक रूप मानते हैं. विट्ठल और रुक्मिणी दोनों अलग-अलग मंदिरों में स्थापित हैं. आषाढ़ी एकादशी पर दोनों मूर्तियों को एक साथ रखकर उनकी पूजा की जाती है.
भीगी बही
मत रहने दो इस बही को सूखा
मेरी बही भीगे
स्याही फूटे
ये शब्द पिघल जाएं
मेरी कविताओं की लुगदी बने
और इस नदी के किनारे घास चरने वाली
भैंस के दूध में
मेरी कविताओं का अंश मिले
चैतन्य
चैतन्य ने कहा
जेजुरी के कंकर भी
अंगूर के समान मीठे होते हैं
उसने एक कंकर उछालकर
मुंह में डाला
और अगले ही पल
ईश्वर को बाहर थूक दिया
तुम कौन हो
तुम कौन हो?
उसने पूछा
वह सोने से पूर्व
जहां उतारकर रख देती थी वह
अपनी नग्नता भी,
मैं उसे उसके उसी शयनकक्ष से
एक बार भगा ले आया था
मेरे ही आगोश में वह जागी
लेकिन उसने मुझे पहचाना नहीं
मैं उसका प्रश्न समझ गया
लेकिन वह भाषा नई थी
मैंने उसे झूठा ही कोई नाम बताया
और फिर से एक नई पहचान हुई
कोई रो रहा है
कब से कोई रो रहा है
कोई रो रहा था रात भर
युगों-युगों से रो रहा है कोई
क्या तुम ही हो
पर क्यों रो रही हो
अविरत
किस बात पर रोती हो
किसी ने कुछ कहा?
मारा किसी ने?
कहीं दर्द हो रहा है?
चुभ रहा है क्या कहीं कुछ?
क्यों रो रही हो अकेली
यहां
इस अरण्य में बैठकर
या तुम ही हो यह अरण्य
रोता हुआ
कोंपल
परंपरा
मां है हम सभी की
स्वीकार है
उसके गर्भ में हम पले
मानता हूं मैं
पर बाहर आते ही
नाल काट देनी पड़ती है कि नहीं?
जन्म भर उसे कमर में लपेट कर तो
घूम नहीं सकते न?
परंपरा
मां है हम सभी की
उसका दूध
हमने पीया खुशी से
बिना कोई तकरार किए
उसमे डीडीटी और डायोक्सीन की मात्रा
कम ज्यादा रही होगी
फिर भी मीठा समझकर पीया
जन्म भर के लिए यह दूध काफी नहीं होगा
ऐसा सोचा भी था क्या किसी ने?
परंपरा
मां है हम सभी की
उसकी गोद में हम खेले
मल-मूत्र किया
मार खाई उसकी
जिद की उससे
गुस्सा भी हुए उस पर
सोये उसी की बांहों में
पर एक दिन पहलू से निकलना पड़ेगा
यह कब सोचा था?
सोना पड़ेगा एक दिन
एक अलग बिस्तर पर
किसी अजनबी औरत के साथ
यह सपने में भी सोचा था क्या?
परंपरा
मां है हम सभी की
पर प्रत्यक्ष मां भी हो अगर
बिल्कुल वास्तविक
सौतेली-वौतेली नहीं तब भी,
वह अगर मर जाए
तो तुरंत उसे श्मशान ले जाकर
हम जलाते ही हैं
बीमार हो तो
उसकी सुश्रुषा करते है
पैरों में दर्द हो तो
दबाते हैं उसके पांव
पर मरने के बाद उसे शीघ्रातिशीघ्र
घर से बाहर कैसे निकालें
यह एक विचार ही सबके दिमाग में रहता है
मय्यत कितने बजे निकलेगी
और कहां से?
बस यही एक सवाल बना रहता है
अमरावती वाली बुआ की लड़की को सूचना दी कि नहीं?
मामा के आने तक रुकना है या नहीं?
कंधों पर ले जाना है कि शववाहिनी बुलानी है?
या हाथगाड़ी ले आएं?
डेथ सर्टिफिकेट लाए कि नहीं?
अखबार में खबर दी या नहीं?
संदेश कौन लिखेगा?
अग्नि-संस्कार करें उसका विधिपूर्वक?
या बिजली वाली भट्टी में डाल दें उसे?
पंडितजी को कितनी दक्षिणा दें?
फोटो इनलार्ज करने दिया या नहीं?
कितनी कॉपीज करवाई हैं?
जहां उसकी मृत्यु हुई
वहां जलते दीये में पर्याप्त तेल है या नहीं?
वगैरह, वगैरह, वगैरह…
कितने प्रश्न खड़े हो जाते हैं उसके मरने के बाद
और बाद में भी!
कौवे ने तुरंत उसका पिंड छुआ या नहीं?
बैंक में उसके नाम का खाता बंद किया क्या?
अस्थि-विसर्जन कहां करें?
पर उसके मरते ही देह को घर से बाहर कैसे निकालें
यही प्रश्न महत्वपूर्ण होता है
पर परंपरा के मामले में!
वह मर गई या केवल कोमा में है
और यदि कोमा में है तो क्या हमेशा ऐसी ही रहेगी?
या उसके कोमा से बाहर आने की संभावना है?
यह बूझना
बड़े से बड़े विशेषज्ञ को भी असंभव लगता है
उसे डेथ सर्टिफिकेट देने को
कोई जल्दी से तैयार नहीं होता
और अगर वह ऐसे ही जीवित रहने वाली हो
तो उसे वैसे ही जीवित रखेंगे?
इंडेफिनेटली
कृत्रिम उपायों से!
(वह सारा खर्च कौन करेगा?)
कि सारी नलियां निकाल ले
और जरूरी हो तो इंजेक्शन से
हवा का एक बुलबुला उसके खून में छोड़ दें?
इस बारे में निर्णय लेना भी सरल नहीं होता
पर एकाध कोई
इस तरह घुला-मिला होता है अपनी मां से
और इतना तीव्र होता है उसका मातृ-प्रेम
कि उसे बर्दाश्त ही नहीं होता
मां का यूं मरना
और अपने को अकेला छोड़
मां का घर से बाहर चले जाना
वह स्वीकार ही नहीं करता
अपनी मां की मृत्यु
और न किसी को बताता, सूचित ही करता है
इस बारे में
उसके मुर्दे को रखता है घर में
दुर्गंध फैलने के बाद भी
और अगर बहुत ज्यादा चतुर और कुशल हुआ
तब वह उस मुर्दे में भरता है भूसा
हिचकॉक साहेब की ‘सायको’ के एंथोनी पार्किंस की तरह
उसे सुलाता है रोज रात बिस्तर पर
अच्छे से रजाई-वजाई ओढ़ाकर
उठाता है सुबह
चोटी करता है उसकी
गप्प मारता है उसके साथ
घंटों तक उसकी आवाज में खुद से बात करता है
कभी चिल्लाता भी है खुद पर
उसे गोद में उठाकर घूमता है घर भर में
इस कमरे से उस कमरे
सीढ़ियों से ऊपर-नीचे
रॉकिंग चेयर पर बिठाकर रखता है उसे
तलघर में
ओढ़ाकर सुंदर-सी शॉल
कोई जवान
भले ही अप्सरा न हो
पर साधारण और मुख्यतः
भूसा न भरी हुई औरत अगर देखता है वह
तब उसके भीतर की मां क्रोध में उबलने लगती है
ये छिनाल! ये रांड!
अब मेरे बच्चे को बहला-फुसलाकर अपने शिकंजे में ले लेगी
और मुझे कचरे की तरह निकाल बाहर करेगी
इस डर से मां रसोई की छुरी लेकर
उस रांड का अचार बना डालती है
और उसके भोंदे शरीर में
चिरंतन भूसा न होकर
चिपचिपा और भड़कीले रंग का द्रव पदार्थ भरा है
यह सिद्ध करके दिखाती है
वह रक्त का एक खड़ा हुआ तालाब है
त्वचा से ढका हुआ
जिसे कहीं से भी काटो या छेद करो
तो उसमें से उबकाते हुए पदार्थ के अलावा
दूसरा कुछ बाहर नहीं आता
यह अपने लाडले को दिखा देती है
बंद जगहों पर कैद चमगादड़ की तरह
छुरी यहां वहां फड़फड़ाती हुई घूमती है
अंतिम दृश्य में चिरंजीव
पागलों के अस्पताल में दिखाई पड़ते हैं
जहां बालश्री
और माताश्री
संपूर्ण एकरूप हो चुके होते हैं
एंड देन दे लिव
हैप्पिली
एवर आफ्टर…
***
यहां प्रस्तुत कविताएं अरुण कोलटकर के ‘भिजकी वही’ और ‘जेजुरी’ कविता-संग्रह से अनूदित और ‘सदानीरा’ के 18वें अंक में पूर्व-प्रकाशित हैं. प्रतिभा हिंदी कवयित्री और अनुवादक हैं. इन कविताओं के अनुवाद उन्होंने मराठी और अंग्रेजी से किए हैं. प्रतिभा भोपाल में रहती हैं. उनसे minalini@gmail.com पर बात की जा सकती है.