कविताएँ ::
शिव कुमार गांधी
सिनहरी
एक
आसमान और मेरी जगह के बीच
गोल्डन ऐरा ऐकेडमी के
विशाल साइन-बोर्ड के पीछे
आठ मंज़िला इमारत
जो अनेक बंद खिड़कियों के साथ खड़ी है
इंसान-पेड़-पक्षी लगभग नदारद है के बीच
बौखलाए वाहनों से उखड़ी सड़क की उठती धूल है।
इस सिनहरी में सितंबर अट्ठाईस की शाम की जाती धूप
जो मेरी बालकनी के बोगनवेलिया के झरते गुच्छे पर
किसी उदास याद की तरह
गुज़रकर इमारत की बंद खिड़कियों पर छटपटा रही है
गोल्डन ऐरा ऐकेडमी के विशाल साइन-बोर्ड पर लगे बच्चों के चेहरे
शाम की इस धूल में अपना चेहरा बदल चुके हैं
धूप पसीने की गंध से भीगी पुरानी क़मीज़ की तरह
दृश्य की तनी पर ठस होकर पसरी है।
इंतिज़ार में अँधेरे के जिस पर
दूज का चाँद टूटे हुक-सा टँगा होगा
टिफ़िन में बचे खाने की बासी गंध जैसा
पूरी सिनहरी में गंधाता—
धरती को हक़ अदा करने की अदा में।
दो
त्रिभुजाकार पहाड़ों के तल बीच
गुज़रती नदी का बस आभास था
जल नहीं
बतख़ एक साइन-बोर्ड थी
छोटी-बड़ी रेखाओं के साथ आए
सूरज की तपन अधिक थी
दो-तीन झोंपड़ियों के आगे बने रास्तों पर से
लोग गुज़रकर कहीं जा चुके थे
झरे पेड़ों पर वी आकार के दो पक्षी टँगे थे स्थिर
भूरे बंजर पहाड़ों से घिरे किसी सरकारी स्कूल के कच्चे फ़र्श पर बैठे
चौथी कक्षा के बच्चों ने थैले में मुड़े-तुड़े काग़ज़ों पर
भविष्य की जाने किस उम्मीद में मटमैले रंग घिसे थे—
वर्तमान की छितराई सिनहरियों को डबडबी आँखों से देखते हुए।
तीन
बच्चे जिन रास्तों-पहाड़ों को पार कर
यहाँ एक छोटे से आँगन में बैठे हैं
जिसका नाम एक स्कूल है
बच्चों के माता-पिता
जिन रास्तों-पहाड़ों को पार कर
किसी चौराहे पर बैठे हैं
जिसका नाम एक शहर है
बच्चे आँगन में उचक-उचक पहाड़ों-पार देखते हैं
शहर की ओर जहाँ उनके माता-पिता
चौराहे पर काम के लिए विनती कर रहे हैं
माता-पिता शहर के चौराहों से
ख़ाली हाथ पहाड़ों-पार देखते हैं
जहाँ उनके अतीत में खेत बंजर पड़े हैं
जिनमें से होते हुए
बच्चे स्कूल जा रहे हैं
और स्कूल के आँगन में
चित्रकला की महज़ अलसाई-सी एक कॉपी है
जिसमें बच्चे रंगीन चॉक घिस रहे हैं
घुमक्कड़ रेखाएँ इधर-उधर भाग रही हैं
जिनमें उनके और उनके माता-पिता के आने-जाने के
कठिन रास्तों की छायाएँ तैरती हैं
महज़ कला की एक कॉपी
जिसमें रास्ते आड़ी-तिरछी रेखाओं में घिस चुके हैं
कॉपी की घुमक्कड़ रेखाओं पर
थक कर गिरे एक आँसू से
रास्तों के बीच तालाब-सा बन गया है
जिसके उपर मँडराते पक्षी
बच्चों के लिए जाने क्यों
एक उदास उम्मीद का
कोई अनजाना गीत गा रहे हैं।
अरसे बाद एक दोस्त को कविता सुनाना
मैंने कविता सुनाना शुरू किया ही था कि उसने कहा :
चलो छत पर चलते हैं, उमस कम होगी, चाँद भी आता होगा।
हमने उमस कम महसूस की। चाँद के आते हुए छत पर थोड़ा टहलते रहे।
उसने कहा :
पहले यह उधर गली के मुहाने पर होटल नहीं बनी थी, तब चाँद पहले ही आ जाता था।
अब चाँद से पहले चारों ओर की इमारतें पहले आती हैं।
हमारा घर थोड़ा बीच में रह गया। हवा कम आती है। काफ़ी दब गया जैसा महसूस करता हूँ।
तुम्हें याद है—जब कुछ बरस पहले तुम आए थे; जब आसमान के कितने हिस्से दिखाई देते थे, आवाज़ें भी कितनी अलग थीं।
अब गली में दिन भर गाड़ियाँ दौड़ती हैं।
यह जो सामने वाला घर है, वहाँ लोहे का काम होता रहता है… जब सुनो हथौड़े की आवाज़ सुनो।
लेकिन सुकून है कि हमने अपने घर के बाहर जो आम का पेड़ लगा रखा है, उसमें आम तो अभी नहीं हैं; पर हरा बहुत दीखता है, एक बचे हुए हरे की तरह।
शाम होती है।
लोहे का काम करने वाले पिता-पुत्र के झगड़े की आवाज़ें उनके लोहे के काम की तरह ही कठोर होती जाती हैं।
देर गए चाँद आ भी जाए तो अब वह मुझे अलग लगता है।
अमावस्या आराम देती है, प्रतीक्षा नहीं रहती।
दिन गर्म गुज़रते हैं।
रातें बैचेन।
यादें जैसे जिस्म के घाव।
आत्मा जैसे दीवार में ठुकी हुई कील।
समय जैसे रात में रोते हुए मेरी गली बाहर के कुत्ते।
उसने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा :
अब मुझे डर लगता है कि मैं कौन हूँ? तुम कौन हो?
मेरे कंधे पर उमस थी। थोड़ा अँधेरा घिर आया था। हम सायों से छत पर इधर से उधर डोल रहे थे। हमारी परछाइयाँ टकरा रही थीं। आम के पेड़ की परछाईं घर के आँगन को घेरे थी। बस्ती थी कि क्या पूरी पीली-सी रोशनी का झुटपुटा था।
मैंने उसका चेहरा ध्यान से देखा। हमारी नज़रें अरसे बाद मिली थीं जो कि नदारद थीं।
मैंने कहा :
चलता हूँ, कविता फिर कभी ही सही।
मेंढ़क
स्कूली दिनों में ही तुम्हें
आलपिनों से छेदकर
चाक़ू से तराश दिया गया था
बस इतना ही था तुम्हारा अस्तित्व—
पिलपिला!
चाक़ू
तुमने बहुतों के तमाम किए होंगे काम
कामना बस यही है कि तुम्हें तमाम करने को
काश! मुझे कभी एक दूसरे चाक़ू की ज़रूरत न पड़े।
ज़रूरत
हद से ज़्यादा तुम मेरी ज़िंदगी में हो
मेरी रीढ़ पर सवार
कंधों पर चाबुक चलाते हुए।
चाबुक
तुम उन कुछ शब्दों में से हो
जिनके उच्चारण मात्र से
पीठ पर नीले निशान दिखते हैं।
ग़ुब्बारा
चौराहों पर लाचार बच्चों के हाथों में
बिकते हुए तुम
ख़रीददार के हाथों में सजे हुए
एक शव जैसे लगते हो।
पतंग
तुम बचपन का
कितना झीना
कितना हल्का
चमकता दुख हो
अब भी मैं अपनी टूटी डोर लिए
अंतरिक्ष की ओर ताकता हूँ।
पार्क
जयपुर के नेहरू बाल-उद्यान में बंद पड़ी खिलौना-रेलगाड़ी को देख मन किया कि इसमें बैठ जाऊँ और मैं जाकर बैठ गया। यह एक खुली गाड़ी है, जैसे : नाव पानी में खड़ी हुई। इसके पीछे लगातार कोई हॉर्न देने वाला भी नहीं।
मैंने अपने आपसे पूछा कि कुछ शब्द हैं क्या कि अभी मैं जो महसूस कर रहा हूँ उसको ठीक-ठीक मुझे ही बता दें।
आदतन चकित था, रूआँसा था, धूप के टूकडों की तरह हल्की-सी ख़ुशी से भरा था। कौन मुझे देख रहा है—इस बात से तनिक चौकन्ना। पटरी पर झरे पत्ते थे—कोमल—मिट्टी में मिल जाने को तैयार। बैठने की जगहों पर धूल थी।
महसूस हुआ कि किसी अंतरिक्ष-यान में हूँ जो अभी यहाँ धरती पर इस पार्क में उतरा है।
अंतरिक्ष-यान में ही मुझे मेरा बचपन का घर याद आया।
मैंने ख़ुद को झक्की महसूस किया।
दुपहर के चार बजे कौन सब काम-धाम छोड़कर एक खिलौना-गाड़ी में बैठ अपने को खिड़की किनारे बैठा देखता होगा।
ऊपर पेड़, छनती धूप, गाती कोयल, इक्का-दुक्का लोग, कुछ अन्य पक्षी, एक बतख़ पानी में पानी पीती हुई अपनी चोंच को अपनी परछाईं की चोंच से मिलाती हुई और सड़क से आती सच की गाड़ियों की आवाज़ें।
यह मार्क शागाल का किसी चित्र जैसा दृश्य भी हो सकता था। मैं अंतरिक्ष-यान में हवा में उठा हुआ अपने बैठे हुए को खिड़की में देखता हुआ—सघन लाल, हरे और आसमानी के नीचे।
मैंने अपनी जेब से एक काग़ज़ निकाल उसकी पर्चियाँ बनाईं और एक-एक पर्ची पर शब्द लिखे—शागाल, अंतरिक्ष-यान, चकित, चौकन्ना, एक ढलती हुई दुपहर, बचपन का घर, बतख़, झरे हुए पत्ते—और इन पर्चियों को खिड़की पर सीट के आस-पास खोंस दिया और अपने आपको वहीं बैठा छोड़ उतरकर चल दिया।
मैंने दूर से देखा—उस खिलौना-गाड़ी के आस-पास जाने कौन-सी हवाएँ चलने लगीं और वे पर्चियाँ छोटे बच्चों-सी खिलखिलाने लगीं, उड़ने लगीं, जैसे इस बंद पड़ी गाड़ी ने कोई सीटी दी हो।
शिव कुमार गांधी से परिचय के लिए यहाँ देखिए : बस एक जीवन और | लीनी की डायरी | कुछ निगाहें, कुछ रेखाएँ