कविताएँ ::
ऋत्विक्

कैसे लिखूँ?
नदियाँ बहती हैं
रुधिर की…
जब भी देखता हूँ स्वप्न!
युद्ध में मारे गए बच्चों की
लाश-सी गंध आती है,
जब भी चुनता हूँ पुष्प!
अकाल-ग्रस्त लोगों की भूख
कँपाती है रोम-रोम,
जब भी करता हूँ भोजन!
बेज़ुबान औरतों की चुप्पी
गूँजती है हृदय में,
जब भी सुनता हूँ संगीत!
मैं देखता हूँ
चुनता हूँ
सुनता हूँ
मैं पाता हूँ
सब तरफ़ छिपती फिरती
जिजीविषा को।
मैं साँस लेता हूँ
अनुभव करता हूँ
लिखता हूँ…
मैं कैसे लिखूँ प्रेम
जबकि मँडराते हैं गिद्ध—
मनुष्यता के मुर्दे पर।
अनुभव
यह कैसा अनुभव है?
क्या मैं सचमुच ही हो चुका हूँ
बूढ़ा?
वह भी केवल
जन्म के बीसवें साल में?
कैसे-कैसे भूत,
कैसे-कैसे पिशाच
स्वप्न में ले आते हैं बरात मृत्यु की,
करते उद्घोष ज़ोर-ज़ोर से
मेरे बुढ़ापे का!
(असंभव अन्याय है यह)
ओ जीवन!
कैसे? (सबसे ज़रूरी क्यों?)
तुम डूबते सूरज की भाँति
छोड़ गए बुढ़ापे की रात में
मुझे।
तुम कहाँ हो?
कुछ तो होगा इलाज तुम्हारे पास?
कुछ दवा-दारू?
कुछ भी?
जो बचा सके मुझे
बुढ़ापे के इन कीड़ों से,
स्मृतियों के खँडहरों से
और आकांक्षाओं की लहरों से
ये मुझे खोखला करते जा रहे हैं…
मुझे घेरता जा रहा है बुढ़ापा,
साथ ही
जीवन की आकांक्षा
फिर भयावह नृत्य स्मृतियों का,
वह भी,
जन्म के केवल बीसवें साल में!
सुनो!
सुनो!
सुनो!
मेरी पुकार…
समेट कर समस्त प्रकाश अपना,
तुम किस अँधेरी खोह में
छिपे हो? (लौट आओ)
ओ वर्तमान!
ओ जीवन मेरे!
अभी तो हुए हैं केवल
बीस ही वर्ष!
फिर किस शाप के वश में आकर
खो दिया तुम्हें!
(छिपे हो किस अँधेरी खोह में)
फिर-फिर
यह कैसा अनुभव है?
क्या मैं सचमुच ही हो चुका हूँ
बूढ़ा?
संभावनाएँ : हमारे बीच
कितनी संभावनाएँ हैं
मेरे बोले
और तुम्हारे द्वारा सुने गए
शब्दों के बीच
वे बन सकते हैं
हृदय भेदने वाले
घातक शब्द-बाण
या कोई मधुर गीत
या रह सकते है
अछूते तुम्हारे कानों को छू कर भी!
क़ुली की तरह
उठाए संभावनाओं का भार
मेरे शब्द पहुँच पाते हैं तुम तक!
कितनी संभावनाएँ हैं!
मेरे भेजे गए पत्रों
और तुम्हारे द्वारा पढ़े गए
पत्रों के बीच
शायद ग़लती से लगा हुआ
कोई अल्पविराम
लगा सकता है
पूर्णविराम हमारे प्रेम पर
या कोई विस्मयादिबोधक चिह्न
डाल सकता है तुम्हें विस्मय में
मेरी तबीयत को लेकर
संभावनाओं के डाकिये के हाथों
मेरे पत्र पहुँच पाते हैं तुम तक!
कितनी संभावनाएँ हैं
मेरे प्रेम में
और तुम्हारे अनुभव में
मेरा प्रेम
संसार की सब कोमलता रखते हुए भी
कठोर पत्थर-सा असहनीय हो सकता है
तुम्हारे अनुभव में
या शायद कोमलता से भी अधिक
कोमल!
संभावनाओं के ही बीच से
मेरा प्रेम पहुँच पाता है तुम तक।
कुछ भी हो सकता है तुम्हारे मेरे
भाग्य में
हमारे बीच कुछ भी तो रिक्त नहीं!
जो भी है
वह सब कुछ है
संभावनाओं के घेरे में—
अनुमानित!
आकांक्षित!
अभीप्सित!
इन तमाम छोटी-बड़ी संभावनाओं के बीच
विरह या मिलन—
दो अंतिम संभावनाएँ
होने या न होने को!
अँधेरे-घने कुहरे में
सब कुछ अस्पष्ट होते हुए भी
स्पष्ट है तो केवल एक शब्द—
भय
बापू, तुम्हारे बंदर
बापू,
याद हैं तुम्हारे तीन बंदर?
बदल दिए हैं तीनों ने
अपने-अपने कर्म और धर्म
बुरा जो न देखता था
वह अब
सब कुछ देखता तो है,
पर बोलता है केवल
तराज़ू में तौले गए
ताज़े-ताज़े शब्द।
बापू वह,
युधिष्ठिर की भाँति
बोलता है अर्द्धसत्य
(यह बात अलग कि
अधर्म के लिए)
दूसरा बंदर
बुरा जो न बोलता था
अब चुन-चुनकर देता है गालियाँ
अपने विपक्षी को
हे बापू!
उसकी वाक्-पटुता
प्रतिष्ठा देती है
खंडित सत्य को।
और तीसरा बंदर,
बापू!
उसने बनाए अनुयायी कितने
विचित्र-विचित्र।
वे सभी कानों में सीमेंट भर
उदासी का
सुनते हैं…
न अच्छा, न बुरा।
ऋत्विक् [जन्म : 2004] कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह राजस्थान के जालौर ज़िले में सांचौर के रहने वाले हैं और इस वक़्त सुबोध कॉलेज [जयपुर] में स्नातक तृतीय वर्ष के छात्र हैं। उनसे ritvikpandya2004@gmail.com पर संवाद संभव है।
बहुत सुंदर कविताएँ, कहे गये से अधिक न कहे गये से बोलती हुईं। शुभेच्छाएँ।