कवितावार में यान्निस रित्सोस की कविता ::
अनुवाद : विष्णु खरे
दुर्लभ वाद्य-विनोद
उसने वस्तुओं, शब्दों और चिड़ियों को चाहना
बंद कर दिया था—
वे सब संकेत या प्रतीक बन गए थे
(इस नियति से लगभग कुछ भी नहीं बचा था)
इसलिए उसने अपना मुँह
मज़बूती से बंद रखना पसंद किया,
गूँगों और बहरों की तरह अजीब हरकतें करने लगा,
थिर, अबूझ, कड़वी और थोड़ी छिछोरी;
लेकिन ये भी,
कुछ बरसों के बाद,
संकेतों में बदल गईं।
***
यान्निस रित्सोस ग्रीक कविता के एक समादृत हस्ताक्षर हैं। उनकी कविता एक ओर व्यक्तिगत और आत्मकथात्मक है तो दूसरी ओर वह मानव और मानव के बीच समानता, एकता, भाईचारे और स्वतंत्रता से भी संबद्ध है। यहाँ प्रस्तुत कविता ‘आलोचना’ के अक्टूबर-दिसंबर-1983 अंक और ‘सदानीरा’ के 7वें अंक में पूर्व-प्रकाशित है। विष्णु खरे हिंदी के सुपरिचित कवि-आलोचक और अनुवादक हैं।