नज़्में ::
हुसैन हैदरी

Hussain Haidry poet
हुसैन हैदरी

दरिया-सा शाइर

मुझे लगता था हर शाइर
कोई तालाब है जिसमें
मुक़र्रर है फ़क़त उतना ही पानी
जितना भर पाए

कोई गहरा निकलता है
कोई उथला ही रहता है
किसी पर हंस आकर चंद लम्हे प्यास रखते हैं
किसी की वुस’अतों में कश्तियां भी तैर सकती हैं

मगर ये फ़िक्र है
तालाब जैसा है अगर शाइर
तो फिर वो धूप के मौसम में
पूरा सूख सकता है
जो उसकी तह में ज़िंदा मछलियां हों
मर भी सकती हैं
वो आने वाले कल में एक सहरा हो
मुनासिब है

भले कुछ लोग हैं
लेकिन
नहीं जो सोचते ऐसा
रियाज़त के पुजारी हैं
उन्होंने मुझको समझाया
के लफ़्ज़ों की रवांदारी
अगर मानिंद-ए-पानी है
तो फिर शाइर की मर्ज़ी है
के वो तालाब बनने से
बहुत पहले ही ख़ुद चुन ले
कि बनना है उसे दरिया

बहा दरियाओं-सा तो ज़िंदगी भर ही रवां होगा
किनारों पर जहां मुड़ जाए शहरों का निशां होगा
कभी परबत की पिघली बर्फ़ से भर जाएगा वो फिर
कभी बारिश में सूखे जिस्म को तर कर जाएगा वो फिर

कभी दूजे किसी दरिया से मिल जाएगा संगम पर
समंदर में भी जो डूबा थमेगा आख़री दम पर

किसी दरिया का पानी तोलना-गिनना नहीं मुमकिन
मुसलसल बहते रहने का
ज़ुदा मेयार है उसका
लबालब हर नफ़स रहना
यही पहचान है उसकी

सो फिर मैं राह चुनता हूं
इरादा सख़्त करता हूं

मुझे तालाब की तरह
कभी साक़ित नहीं रहना
मुझे दरिया ही बनना है
मुसलसल बहते रहना है
समंदर पर ही रुकना है

छिपकली

ख़ाकी रंग दीवारों
पर लटकती गांधीजी की
बड़ी-सी फ़ोटो के
पीछे से दुपहरी में
एक लंबी-भूरी-सी
छिपकली निकलती है

रेंग कर ख़मोशी से
इर्द-गिर्द फ़ोटो के
गश्त ये लगाती है
और जैसे ही कोई
कीट-पतंगा उड़ कर
पास से गुज़रता है
धर दबोच लेती है
पंख नोच देती है
मांस चबा जाती है
ज़िंदा निगल जाती है

फिर बड़े सलीक़े से
जैसे कुछ हुआ न हो
कोई भी मरा न हो
रेंगती हुई वापस
गांधीजी की फ़ोटो के
पीछे लौट जाती है

ट्रोल के नाम

तू ट्रोल बहुत ज़हरीला है
तुझे लगता है तू सही भी है
तुझे कमज़र्फ़ी इक हुनर लगे
तुझमें वो अक़्ल की कमी भी है

बूढ़ों की उम्र पे तंज़ करे
औरत की इस्मत बेच आए
तेरे लफ़्ज़ नुकीले पत्थर हैं
हर शख़्स को ज़ख़्मी कर जाएं

ईमान नहीं, कोई धरम नहीं
तेरे ज़हन में नफ़रत पलती है
तुझे अदब से गर समझाएं भी
तेरी ज़बां से गाली निकलती है

किसी और की फ़ोटो का पर्दा
चेहरे को तेरे छिपाए है
किसी और के नाम का दम भर के
तू झूठे किस्से उड़ाए है

तुझे लगता है तू राजा का
सबसे मज़बूत सिपाही है
तेरी जान की क़ीमत कुछ भी नहीं
राजा को सियासत प्यारी है

तुझे क्या समझाइश दे कोई
तुझे कौन ही अब मुंह लगाएगा
तेरा क़ातिल वक़्त बनेगा और
तुझे वक़्त ही अब दफ़नाएगा

एक रात के मुसाफ़िर

तीन बज रहे हैं और
देखता हूं मैं उसको
वो बग़ल में लेटी है
मुंह को फेर सोई है
उसने कुछ नहीं पहना
मैंने कुछ नहीं पहना
जिस्म फ़ासले पर है

थोड़ी देर पहले तक
फ़ासले न थे कुछ भी
सांस-सांस थे दोनों
होंठ-होंठ थे दोनों
लम्स-लम्स थे दोनों
जिस्म-जिस्म थे दोनों

तीन बज रहे हैं और
तक रहा हूं मैं उसको
है कमर तलक चादर
उंगलियों से मैं छू कर
ढूंढ़ता हूं तिल जिनसे
आशनाई है मेरी
एक तिल रफ़ाक़त का
एक तिल मोहब्बत का
मिल नहीं रहे वो तिल

नीली रौशनी वाली
रात भी है कमरे में
तंज़ कर रही मुझपे
है सवाल सौ उसके
‘‘नाम क्या है लड़की का?
किस नगर से आई है?
किस ज़बां में आलिम है?
उम्र क्या बताई है?
इश्क़ है तुम्हें इससे?
रूह-ओ-दिल मिले इससे?’’

तीन बज रहे हैं और
नींद से मैं ग़ाफ़िल हूं
रात के सवालों को
जज़्ब कर लिया मैंने
सब सवाल मुश्किल हैं
सब सवाल जायज़ हैं
जो बग़ल में लेटी है
मुंह को फेर सोई है
अब उसी से पूछूंगा
जब सुबह उठेगी वो

गर मैं पूछ पाया तो

हिंदुस्तानी मुसलमां

सड़क पे सिगरेट पीते वक़्त
जो अज़ां सुनाई दी मुझको
तो याद आया के वक़्त है क्या
और बात ज़हन में ये आई
मैं कैसा मुसलमां हूं भाई?
मैं शिया हूं या सुन्नी हूं
मैं खोजा हूं या बोहरी हूं
मैं गांव से हूं या शहरी हूं
मैं बाग़ी हूं या सूफी हूं
मैं क़ौमी हूं या ढोंगी हूं
मैं कैसा मुसलमां हूं भाई?
मैं सजदा करने वाला हूं
या झटका खाने वाला हूं
मैं टोपी पहनके फिरता हूं
या दाढ़ी उड़ा के रहता हूं
मैं आयत क़ौल से पढ़ता हूं
या फ़िल्मी गाने रमता हूं
मैं अल्लाह-अल्लाह करता हूं
या शेखों से लड़ पड़ता हूं
मैं कैसा मुसलमां हूं भाई?
मैं हिंदुस्तानी मुसलमां हूं
दक्कन से हूं, यू.पी. से हूं
भोपाल से हूं, दिल्ली से हूं
कश्मीर से हूं, गुजरात से हूं
हर ऊंची-नीची जात से हूं
मैं ही हूं जुलाहा, मोची भी
मैं डॉक्टर भी हूं, दर्जी भी
मुझमें गीता का सार भी है
इक उर्दू का अख़बार भी है
मिरा इक महीना रमज़ान भी है
मैंने किया तो गंगा-स्नान भी है
अपने ही तौर से जीता हूं
दारू-सिगरेट भी पीता हूं
कोई नेता मेरी नस-नस में नहीं
मैं किसी पार्टी के बस में नहीं
मैं हिंदुस्तानी मुसलमां हूं
ख़ूनी दरवाज़ा मुझमें है
इक भूल-भुलैय्या मुझमें है
मैं बाबरी का इक गुंबद हूं
मैं शहर के बीच में सरहद हूं
झुग्गियों में पलती ग़ुरबत मैं
मदरसों की टूटी-सी छत मैं
दंगो में भड़कता शोला मैं
कुर्ते पर ख़ून का धब्बा मैं
मैं हिंदुस्तानी मुसलमां हूं
मंदिर की चौखट मेरी है
मस्जिद के किबले मेरे हैं
गुरुद्वारे का दरबार मेरा
यीशू के गिरजे मेरे हैं
सौ में से चौदह हूं लेकिन
चौदह ये कम नहीं पड़ते हैं
मैं पूरे सौ में बसता हूं
पूरे सौ मुझमें बसते हैं
मुझे एक नज़र से देख न तू
मेरे एक नहीं सौ चेहरे हैं
सौ रंग के है किरदार मेरे
सौ क़लम से लिखी कहानी हूं
मैं जितना मुसलमां हूं भाई
मैं उतना हिंदुस्तानी हूं
मैं हिंदुस्तानी मुसलमां हूं

***

इंदौर में जन्मे और आईआईएम इंदौर से ही स्नातक और चार्टर्ड अकाउंटेंट हुसैन हैदरी ने साल 2015 के दिसंबर में एक कंपनी के वित्त प्रमुख के रूप में नौकरी छोड़ दी और तब से वह पूर्णकालिक गीतकार और पटकथा लेखक बन गए हैं. वह मुंबई में रहते हैं. ‘क़रीब क़रीब सिंगल’ और ‘मुक्काबाज़’ में लिखे उनके गीत अपनी अर्थमयता की वजह से इस शोर में बेहद सराहे गए हैं. ‘हिंदुस्तानी मुसलमां’ शीर्षक उनकी नज़्म सोशल मीडिया पर लिखित और वाचिक दोनों ही संदर्भों में वायरल हुई. यहां प्रस्तुत नज़्में उर्दू से हिंदी में उन्होंने ख़ुद लिप्यंतरित की हैं. उनसे hussainhaidry@gmail.com पर बात की जा सकती है. यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 19वें अंक में पूर्व-प्रकाशित.

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