केकी एन. दारूवाला की कविताएँ ::
अनुवाद और प्रस्तुति : शिवम तोमर
अँग्रेज़ी में भारतीय कविता की एक महत्त्वपूर्ण हस्ती केकी एन. दारूवाला का गए सितंबर की 26 तारीख़ को 87 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। 1937 में लाहौर में जन्मे दारूवाला की कविता-यात्रा तीन दशकों तक चली और इस दौरान उनके कई उल्लेखनीय कविता-संग्रह आए। ‘अंडर ओरियन’ (1970), ‘अपैरिशन इन अप्रैल’ (1971), ‘क्रॉसिंग ऑफ़ रिवर्स’ (1976), ‘विंटर पोएम्स’ (1980), ‘द कीपर ऑफ़ द डेड’ (1982), ‘लैंडस्केप्स’ (1987), ‘ए समर ऑफ़ टाइगर्स’ (1995), ‘नाइट रिवर’ (2000) और ‘द मैप-मेकर’ (2002) उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं।
भारत-विभाजन के दौरान उनका प्रारंभिक जीवन काफ़ी उथल-पुथल से गुज़रा, जिसने उनके दृष्टिकोण और उनकी कलात्मक अभिव्यक्ति को गहराई से प्रभावित किया। विस्थापन, पहचान और मानवीय स्थिति जैसे विषय उनकी कविताओं में गहरे रचे-बसे हैं… जो अक्सर व्यक्तिगत और सार्वभौमिक दोनों दृष्टिकोणों से जुड़े होते हैं। दारूवाला की भाषा जीवंत और प्रभावशाली है, जो पाठकों को भौतिक और रूपक दोनों प्रकार के स्थलों में खींच ले जाती है। स्थान और समय की गहराई को पकड़ने की उनकी क्षमता, चाहे वह ऐतिहासिक कथाएँ हों या समकालीन चिंतन, उन्हें अन्य कवियों से अलग बनाती है।
दारूवाला अपनी कविताई का श्रेय अपनी व्यापक यात्राओं को देते हैं। उनका काव्य-कैनवस भारत सहित इंग्लैंड, यूगोस्लाविया, हेलसिंकी, स्टॉकहोम, वोल्गोग्राड और मॉस्को जैसे स्थानों तक फैला हुआ है। यह वैश्विक परिप्रेक्ष्य, उनकी गहरी जड़ें जमा चुकी भारतीय संवेदना के साथ मिलकर, उनकी कविता को एक अनोखा रंग देता है।
भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) में दारूवाला का करियर उनके साहित्यिक व्यक्तित्व में कई परतें जोड़ता है; जिसमें प्रशासन, न्याय और स्वतंत्रता के बाद के भारतीय समाज के सामाजिक-राजनीतिक परिवेश की झलक मिलती है। उनके अनुभव उनके लेखन को प्रामाणिकता और सामाजिक जागरूकता की गहरी भावना से भर देते हैं।
अँग्रेज़ी में भारतीय लेखन में दारूवाला के योगदान को व्यापक रूप से मान्यता मिली है। उनके संग्रह ‘द कीपर ऑफ़ द डेड’ के लिए उन्हें 1984 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया और बाद में राष्ट्रमंडल कविता पुरस्कार भी मिला।
सामाजिक जागरूकता के कवि, भाषा के कुशल शिल्पकार और वैश्विक साहित्यिक परिदृश्य में एक विशिष्ट भारतीय आवाज़ के रूप में उनकी विरासत आने वाली पीढ़ियों के कवियों और पाठकों को प्रेरित और प्रभावित करती रहेगी।
— शिवम तोमर
पलायन
पलायन हमेशा मुश्किल होते हैं
किसी भी सूखे या महामारी
या ख़ुद सन् सैंतालीस से पूछ लीजिए
चाहे तो अभिलेखों में देख लीजिए
अगर पलायन न होते
तो क्या चिंतन-मनन के लिए पर्याप्त इतिहास होता?
समय में पीछे जाना भी
उतना ही मुश्किल होता है
जो अब भी सरगोधा, झेलम और मियाँवाली के
चक्कर लगाया करते हैं
पूछिए उन लोगों से
कि पुरानी ईंटों में से झाँकते अजनबी लोग
कैसे बा-मुरव्वत होकर कहते हैं :
सर, यह अब भी आपका ही घर है!
जब आप उस समय के बारे में सोचते हैं
जिसे अब समय कहना ठीक नहीं
(क्यूँकि वह पत्थर की तरह
ठोस और अपरिवर्तनीय है,
उसमें जीवन की नब्ज़ नहीं है)
मन विषादग्रस्त हो जाता है
बिल्कुल सावन की उन घटाओं की तरह
जो बिना बारिश के आकाश में छायी रहती हैं
माँ पूछा करती थी :
क्या मुझे नानी याद हैं?
कि कैसे मैं रसोई के चक्कर लगाया करता था
कि कैसे मैं नानी के हाथों सिंके पकौड़ों को
प्लेट में ठंडाने का समय दिए बिना ही
उठाकर भाग जाया करता था
क्या मुझे नानी बिल्कुल याद नहीं हैं?
मेरी स्मृति की आवेगहीनता देखकर
माँ का उतरा हुआ चेहरा और उतर जाता है
अब मेरे सपनों में आकर
कोई मुझसे सवाल करता है :
क्या मुझे माँ याद है?
मुझे समझ नहीं आता
इस सवाल का सामना कैसे करूँ
वर्षों के बीच पलायन करना भी
उतना ही मुश्किल होता है
सलाख़ें
प्रिय, यदि तुम पिंजरे की तलाश में हो
तब तुम्हें दूर जाने की ज़रूरत नहीं है
क़ैद की इच्छा करो
और तुम क़ैद हो जाओगे
ज़ख़्म खोजोगे
तो ज़ख़्म ही पाओगे
यहाँ तक कि रौशनी भी
एक जेल बन सकती है
सात सलाख़ों वाली
अग्नि-स्तोत्र
शाम के झुटपुटे में घाट पर जलती चिता
स्फुरदीप्ति हो रही थी
एक भूतिया छाया उसमें से निकलकर
राहगीरों को भयभीत कर रही थी
हड्डियों पर चाँदनी झर रही थी
एक सवेरे घाट पर टहलते हुए
उस धूसर राख को देखा
जो सब कुछ निगल जाती है
अग्नि की लालिमा भी
और अग्नि की निर्दयता भी
अधजले अंग अग्नि की दुष्टता के साक्षी थे
मेरे पिता ने कहा :
तुम्हें वह आधी जली हुई उँगलियाँ
और हड्डियों के ठूँठ दिख रहे हैं?
अग्नि कभी-कभी अपना कर्त्तव्य भूल जाती है!
मैं एक पारसी—
मेरी छोटी-सी उँगलियाँ एक गाँठ में भिंच गईं
मैंने अग्नि को विस्मृति के पाप से
बचाने की क़सम खाई
तब से बीस साल हो गए
अग्नि ने फिर वह भूल कभी नहीं की
इसी दौरान मैंने अपने पहली संतान को
अग्नि के हवाले किया
क्यूँकि निकटतम दख़मा* एक हज़ार मील दूर था
तब अग्नि-स्तोत्र ने मुझसे कहा :
मैंने तुम्हे माफ़ किया
मैं टूट चुका था
लेकिन अपनी बची-खुची उद्दंडता को समेटकर
मैंने अग्नि को क्षमा-पाप से बचाने की क़सम खाई!
*दख़मा : पारसियों का क़ब्रिस्तान। पारसी रिवाजों में मृत देह को अग्नि के हवाले करने की जगह प्राकृतिक रूप से विघटित होने के लिए छोड़ दिया जाता है।
द्रौपदी
द्रौपदी की व्यथा अनंत है
कुछ लोगों के रक्तस्रावित नक्षत्रों में लिखा होता है
शोषित होना
पहले पांडवों के द्वारा
एक नहीं बल्कि पाँच-पाँच
फिर कौरवों द्वारा
एक-पाँच नहीं बल्कि पूरे सौ
और अब लाखों फ़ेमिनिस्टों के द्वारा
एक साधारण अवलोकन पर असाधारण विचार-विमर्श
ऊँची इमारतें मुझे आकर्षित करती हैं
ख़ासकर वे जो आसमान को
दो हिस्सों में काटती हुई प्रतीत होती हैं
मुझे लंबी-लंबी कहानियाँ पसंद हैं
भले ही वे सच न हों
मैं उन्हें आधे सच और आधे झूठ के
घालमेल से बनी कहानियों के मुक़ाबले
अधिक पसंद करता हूँ
मुझे बड़े पैमाने पर चीज़ें चाहिए
अधिकतम आयाम चाहिए
स्थान और रौशनी का बोध चाहिए
मुझे रेलगाड़ी चाहिए
जिसकी बड़ी-बड़ी पीली आँखें
रात को अपनी रौशनी से
छेदती हुई बढ़ती चली जाती हैं
समुद्री-साही
प्यारी-सी रोएँदार इल्लियाँ
छछूंदर आदि ठीक हैं…
लेकिन मेरा दिल राजसी फूलों वाले पेड़ों
काई की विस्तृत पट्टियों
और ज्वलंत परजीवी के लिए तरसता है
लेकिन जब तुम
जो अभी भी गिलहरी की तरह युवा
गोधूलि की तरह संक्षिप्त
दुपहर की छाया की तरह क्षणभंगुर हो
पूछती हो कि
मैं तुमसे प्यार क्यों करता हूँ
तो मुझसे कोई जवाब देते नहीं बनता!
समसामयिक विषयों पर रामलीला
जागो, क्योंकि सूरज ने अफ़रा-तफ़री में
नेहरूवादी निकम्मों को
उनकी घिसी-पिटी दिनचर्या में लगा दिया है
समय के काकभुशुण्डि के पास
फड़फड़ाने के लिए बस थोड़ी-सी मोहलत है
क्यूँकि यह कौवा-राजा का विजय दिवस है
आप कहते हैं—
हर सुबह हज़ारों नारे लेकर आती है
लेकिन कल के नारों का क्या?
‘सबका विकास’
और ‘सबका साथ’ कहाँ है?
और ‘घर वापसी’ का क्या हुआ?
ख़ाकी कमरबंद और गेरुआ पैंट में
रैंकबद्ध खड़े ईमानदार लोग
जो अपने राष्ट्रवाद को अपनी बाँह पर पहनते हैं
यमुना के तट पर उनकी चिल्लाहट गगन भेद रही है
श्री-श्री की वजह से क्षतिग्रस्त हुए यमुना के तट?
उन्हें पर्यावरण को हुए नुक़सान के प्रति हर्जाने के रूप में
पाँच करोड़ रुपये का जुर्माना देने को कहा गया था!
वह बिना एक पाई चुकाए निकल लिए
और वह साध्वी जिसकी साइकिल पर रखे बम को
देख लेने पर चश्मदीद को शाप मिला
भारतीय क्षितिज में सूरज की तरह चढ़ी हुई है
और चुनावों में विजयी हो रही है
उसका झुकाव उन पुराने हत्यारों की ओर है
जो इतिहास के कूड़ेदान में गोडसे के साथ पनपते हैं
राजनीति में करकरे के प्रति नफ़रत
और गांधी के हत्यारों के प्रति प्रेम को
शायद ही कभी पाप के रूप में देखा जाता है
चलिए मान लेते हैं कि
उन्होंने बोफ़ोर्स में पैसा कमाया
और सीबीआई अब तक
क्वात्रोची से कुछ उगलवा नहीं पाई
आप कहते हैं—
हर सुबह हज़ारों घोटाले लेकर आती है
कल के घोटालों को भूल जाओ
राफ़ेल के बारे में क्या ख़्याल है, मेरे प्यारो?
और दिवालिया अंबानी को वह उपहार?
दिल्ली के टुकड़े-टुकड़े होने का क्या?
सेंट्रल विस्टा के मिट्टी-बजरी में तब्दील होने का क्या?
इससे किसे लाभ होगा—
किसी देसाई को या पटेल को?
या फिर नव नीरव मोदी को?
इस बीच गांधी परिवार ने
उन तेईस लोगों के ख़िलाफ़ जीत हासिल की
जिनके द्वारा लिखी शिकायत ने
उन्हें अलार्म-घड़ी की तरह
झकझोर कर जगा दिया।
शिवम तोमर से परिचय के लिए यहाँ देखिए : अगर तुम प्रेमियों की अन्यता से निपटना सीखना चाहती हो तो बिल्लियाँ पालो
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