बेबी शॉ की कविताएँ ::
बांग्ला से अनुवाद : अमृता बेरा

देश
मैं कश्मीर हूँ इसलिए फाड़ देता है मेरा भारत मुझे
आग तापते हाथ सेंकते हैं रोटियाँ अँधेरे में जलते हुए
बदन बहुत मांसल है, तुम भी मुझे काट-काटकर
सजाओ अपनी नश्वर भूख, अधिकृत भूमि चाट-चाटकर
तब तक खाते रहो, जब तक न विस्फोरण कर दूँ
जितना तुम मुझे खाते हो, उतना मैं भी खाना जानती हूँ
जिस तरह मुझे खाते हो, मैं जानती हूँ श्रम और पुरुष ने
खेतों में छोड़े हैं हिंसा के कीट, मेरी आज़ादी
अब तुम्हारे युद्ध से टूट, पड़ी हुई है रक्तहीन।
मुझे कश्मीर जान चीर-फाड़कर खाया, तुमने भी भारत—
मेरे रहनुमा, मेरे पुरुष, अधिकार
केवल तुम्हारे मुँह पर सजता है प्रिय, जितना चाहो काटो—
आग में लिटाओ, तपते तवे से सजाओ मुझे;
बहुत भूख है तुम लोगों को, तुम मेरी आज़ादी खाओ।
उत्पीड़ित
मुझे कश्मीर समझ जितनी बार चाहो,
मिल जाता है बलात्कार का लाइसेंस।
तभी तमाम स्त्रियों का नाम है कश्मीर।
सभी स्त्री-देह आसिफ़ा हैं अब।
यह कौन-सा समय है बताना
यह कौन-सा स्टेशन है…
मेरे टनल को भेदता चला जाता है
टैंकों का लश्कर।
मातृमुख
प्रसव किया है मैंने।
देखा है मैंने जलता चेहरा, कटे गाल।
स्तब्ध योनिपथ।
यह कैसी नारी का जन्म है!
यह कौन ईश्वरी है, यह कैसा रूप है उसका! मैं—
और कोई शिशुजन्म नहीं लूँगी इस देश में।
यह दुनिया शिशुओं के लिए नहीं है। कुहासे में
न जाने कौन है देववाणी! न जाने कौन है ईश्वर!
मैं थूकती हूँ। देखती हूँ गुहामानव की तरह
बहुतों ने नफ़रत को वैसे आज भी नहीं समझा है।
मैं काट देती हूँ नाड़ी। क़ब्र में दफ़नाती हूँ
अपनी ईश्वर-योनि।
देखती हूँ किसी उन्माद की तरह
कलकत्ता शहर मृत किसी नारी की देह पर चला रहा है हल।
उपत्यका
उपेक्षा, धृष्टता के साथ लिखकर रखती हूँ
मैं ही कश्मीर हूँ
गुच्छों में खिला रहता है संविधान
ख़ून से सनी सड़कों पर
आयत की आँखें जान लिखकर रखती हूँ नियंत्रण-रेखा
मैं ख़ुद का ही करती हूँ बलात्कार, आईने में।
बाज़ पक्षी और उसके शिकार की आँखों में
सजाती हूँ मंत्रों का धूप… कहती हूँ यह लो…
मेरी सिसकारी, स्तन, योनि!
यदि तुम ध्वनि हो, तो मैं हूँ प्रतिध्वनि।
मध्यप्राच्य
यह जन्म असल में सीरिया है
पूरे शरीर में है काई की घ्राण
ग्रीस का नाविक
कभी देकर गया था टूटी मूर्ति,
मृत संतान की देह…
सारी संकेत वाहिनियाँ,
गुप्तचर ज़रूरत के समय
कुरुक्षेत्र से रथ के भग्नांश चुरा
फिर चीख़-पुकार में
मॉस और फ़र्न की देह से उठा लाते हैं पथ
उड़ जाता है टूटे पंखों वाला पक्षी
ज़ख़्मी पाँव, गर्भ क्षुधार्थ।
पानी में बहता है देश, राजनीति
सीने में जली गंध लिए चलती है
मृत नगरी की चिता
मीलों बिछाया हुआ बारूद
शताब्दी की चुभती छाया
हँस उठती है नगर-प्रांतों में
बजते हैं अद्भुत ध्वंस के गीत
यह शहर ख़ून से भीगा सीरिया है
यह देह अस्ल में सीरिया…
उत्सर्ग
मानो एक टूटी सड़क पड़ी हुई है हमारे देश में
वह सड़क कहीं नहीं जाती है,
रह-रहकर दमघोंटू खाँसी उठती है—
क्षय रोग क्या लौट आया है?
अँगीठी का जलता धुआँ
सब कुछ ढक देता है आकर।
आतंकवाद लौटा लाया है महामारी।
कहाँ जाकर रोग से मुक्ति पाएँगे?
कहाँ है डॉक्टर?
अस्पतालों से सुनाई देता है हिंसा का उल्लास—
पूजा होगी अब की बार। होगी नरबलि। ख़ून चूसते हैं
जिनकी है प्रबल प्यास। ठिठक जाती है अँधेरे में साँस।
कहीं नहीं जाएगा कोई। रोग से अब कहीं नहीं है
मुक्ति। नहीं है जल। ग़ायब है दवाओं की ज़िंदगी।
आती है तेज़ाब की गंध। उन्मादों ने कर लिया है दख़्ल।
यह मेरा देश नहीं है।
यह देश शायद किसी अंधे की आँख का पानी
हुआ करता था कभी। आज जिसे जहाँ जाना है जाओ—
ख़ून से लिथड़ा कश्मीर बन, पड़ा हुआ है मेरा भारत!
बेबी शॉ बांग्ला की सुप्रसिद्ध और सम्मानित कवि-लेखक-अनुवादक हैं। वह हिंदी में भी लिखती हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : कोमलता के पक्ष में कोई सत्य नहीं है
यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के समकालीन बांग्ला स्त्री कविता अंक में पूर्व-प्रकाशित। अमृता बेरा से परिचय के लिए यहाँ देखिए : बहुत दिनों तक चिड़िया की आवाज़ न सुनने से इंसान का एक हिस्सा ख़राब हो जाता है