सुबोध सरकार की कविताएँ ::
बांग्ला से अनुवाद : अमृता बेरा

सुबोध सरकार

मारांगबुरु1संथाली आदिवासियों के लौकिक देवता

उस दिन तुम्हें पहली बार देखा, जिस दिन
मैं सिर पर पुआल लिए पार हो रहा था पुरुलिया
और तुम हाथ में पानी की बोतल लिए, बैग में कॉपी-किताबें भर
इमली के चटखारे लेतीं पार हो रही थीं दुनिया
सिर का बोझ फेंक मैं मुँह फाड़े देख रहा था तुम्हारे शैम्पू किए बाल
साबुन मली पीठ, परियों जैसे पाँव
मैंने मन ही मन कहा, कैसा देखने में होता है शैम्पू और साबुन?
तुमने एक सेकेंड रुक कर कहा था; आओ, दिखाती हूँ।

मैं जंगल में आया, लगा मेरा मारांगबुरु मैं ही हूँ
मैंने पलाश पर चढ़, पलाश की चोटी पर चढ़ मुट्ठी भर सूरज की किरणें तोड़
तुम्हें दीं, तुमने कहा; थैंक यू, मैंने पूछा, इसका मतलब?
तुमने कहा, इसका मतलब तुम हो निरे बुद्धू
‘फिर भी तुम यिशु जैसे दिखते हो’ कहकर मेरी आँखों को चूम
तुम भाग गईं, झरने को फलाँग कर भागीं, जंगल से भागीं, पृथ्वी से भागीं
मैं दो भैसों की पीठ पर दोनों पैरों से उठ खड़ा हुआ, हेई सँभालो,
सुनो—

मेरे पेट में विद्या नहीं; मेरे पेट में रोटी नहीं, लेकिन मैं राजा हूँ
घटांग्चू… मैं भैंसों का राजा, गायों का राजा, जंगली बिल्ली, ख़रगोशों का राजा
थैंक यू पृथ्वी, थैंक यू।
लेकिन ये मुझे क्या हुआ, तुम्हारे बिना मैं सो क्यूँ नहीं पा रहा था?
मुझे अँग्रेज़ी सिखाओ, बांग्ला सिखाओ, कम्प्यूटर सिखाओ
तुमने मुझे दुमंज़िला घर दिखाया, गाड़ी दिखाई, लाइब्रेरी दिखाई
दुनिया इतनी बड़ी है? मैं तो जानता था दुनिया
मुर्मू2संथाली आदिवासियों का एक उपनाम मुहल्ले से शुरू होकर तपशीली3संथाली अनुसूचित जाति पर ख़त्म हो जाती है
मैं ज्येष्ठ के महीने में नदी में पानी पीने गया
नदी ने अजगर की तरह लपेट लिया मुझे।

कहा, पानी पीयो। पानी के साथ मैंने घोंघा-कस्तूरा, मोबाइल,
शराब, सब पिया। इसके बाद हमारी पलाश के जंगल में मिलने की बात थी, नहीं हुआ
उसके बाद जले गिरजाघर के पीछे मिलने की बात थी, नहीं हुआ
हाईवे की चाय की दुकान पर मिलना था, नहीं हुआ
एक महीने बाद अचानक तुम आईं, कहा भागो वे लोग तुम्हें जले
गिरजाघर की तरह
जलाकर मार देंगे। क्यूँ मारेंगे मैंने क्या किया है?
हम सब एक दिन पुआल में जन्म लेते हैं, फिर एक दिन पुआल को
आग लगाते-लगाते दुनिया को जला डालते हैं।

कलकत्ता भाग आया, फ़ुटपाथ पर बैठा हुआ हूँ इकतीस साल से
इकतीस साल नहाया नहीं, इकतीस साल से तुम्हें देखा नहीं,
अगर एक बार तुम्हें देख पाता, एक बार, तो फिर
इसी एसप्लेनेड में दो टैक्सियों की छत पर दोनों पैरों पर खड़ा हो कहता
हेई सँभालो
रोटी देने की ज़रूरत नहीं, बाँधिए अपने-अपने कुत्ते
मैं ही हूँ दुनिया का आख़िरी मारांगबुरु।

दोएल4वेग्टेल पक्षी

जब दोएल कैलिफ़ोर्निया से आई
मैं तब भी नहीं जानता था उसके पिता का नाम रॉबिन्सन,
माँ का नाम बनलता सेन है।
तुम बनलता सेन की बेटी हो? सोचो तो,
यह मैं किसके साथ बैठ कर बियर पी रहा हूँ?
उसने मेरे पैकेट से सिगरेट लेकर अपने
अधरों के बीच स्थापन कर कहा, डैम इट।
मैंने बियर पीते-पीते देखा
उसके होंठों के बीच सिगरेट नहीं
जैसे अमेरिका और एशिया के बीच से निकल रहा था धुआँ।

पार्क स्ट्रीट के फ़्लोरियाना से हम चल पड़े कॉलेज स्ट्रीट की तरफ़
पीठ से बलखाते उतर रहे थे उसके खुले केश
मैंने कहा, सुनो, क्या मैं छू सकता हूँ तुम्हारी विदिशा को?
उसने कहा, शिट्, फिर से बनलता सेन?
मैंने वेलिंग्टन पर टैक्सी रोकी, जहाँ शहर सजाने आया करती हैं
पहाड़ी लड़कियाँ, एक पहाड़ी शाल ख़रीद दोएल को उपहार देते हुए पूछा,
क्या, पहनोगी तो?
उसने सबके सामने लिपट कर मुझे चूमा, कहा—थैंक यू।

फिर आया पुस्तक मेला, लिटिल मैगज़ीन की हर टेबल पर
फुसफुस-फुसफुस, मैंने वेलिंग्टन में किसे शाल ख़रीद कर दिया
एक तरुण कवि कुछ कहने आया, मैंने उसे कहा, सुनो
शाल दिया है, डंडा नहीं, इसका मतलब
सॉनेट लिखा है मैंने, अब तक विलानेल5उन्नीसवीं सदी से प्रचलित उन्नीस लाइनों में लिखी जाने वाली कविता की एक शैली नहीं।

दोएल कैलिफ़ोर्निया लौट गई
अपने हिस्से की धूप छोड़ गई पार्क स्ट्रीट में, मैं भी भूल चुका हूँ
लेकिन भूल नहीं पाया हूँ, पच्चीस साल पहले उसके पिता रॉबिन्सन,
माँ बनलता सेन असल में उसे ले गये थे मदर टेरेसा होम से।

दोएल, फिर आना अगले साल,
निशा और विदिशा नाम की दो कॉर्निशों के बीच खड़े होकर
हम बियर पीएँगे।

वह कौन है?

तुम्हारे-मेरे सौ साल के प्रेम के बीच
जो आकर खड़ा हुआ है
मतलब श्रीलंका और म्यांमार के बीच
उसका चेहरा एक ओर से ढका है
उसके हाथ में दस्ताने हैं
अँगूठे और तर्जनी के बीच में है एक इंजेक्शन
उसे कभी किसी दिन किसी से प्यार नहीं हुआ।
किसी औरत ने कभी उसे नहीं कहा, आओ।

तुम्हारे-मेरे बीच आज वह आकर खड़ा हुआ है
मतलब एक हिजड़े और फ़क़ीर के बीच
मैंने अभी काले शीशे से ढकी गाड़ी से उसे
तुम्हारे घर के सामने उतरते देखा
यह आदमी अब सीढ़ियाँ चढ़ तुम्हारे
तिमंज़िले घर पे पहुँचेगा
अभी, तुम्हारे घर की कॉलिंग-बेल बजाएगा,
तुम दरवाज़ा खोल दोगी।

तुम्हारे और मेरे बीच क्यों कोई आदमी आकर खड़ा होगा?
मैं मार्केस पढ़ता हूँ, इसलिए वह ओरहान पामुक पढ़ेगा?
मैं बीथोवन सुनता हूँ, इसलिए वह वैग्नर सुनेगा?
मैं जानुसी6पोलेंड के सुप्रतिष्ठित फ़िल्म-निर्देशक क्रिज़्सतोफ़ ज़ानुसी देखता हूँ, इसलिए उसे तारकोव्स्की7मशहूर रूसी फ़िल्म-निर्देशक देखना होगा?
चीन में लोकतंत्र नहीं है उससे मुझे क्या?
और इस बात को लेकर क्या हम दोनों, खाने की प्लेटें फेंक
एक-दूसरे को मारेंगे?

क्यों कोई आदमी तुम्हारे और मेरे बीच आकर खड़ा होगा?
जब धधकती हुई बस जल रही थी,
मैंने उस आदमी को श्यामबाज़ार के मोड़ पर
काला शीशा नीचे उतार तस्वीर खींच ले जाते हुए देखा था।
मैंने उस आदमी को सबसे बड़े संवाददाता के साथ
जादवपुर की सबसे छोटी चाय की दुकान पर देखा।
उस आदमी का कोई नाम नहीं,
उस आदमी की कोई संतान नहीं
लेकिन वह एक बैटरी को परखने के लिए काश के जंगल में
सारी रात बैठा रहा था।

जिस आदमी का कोई नाम नहीं वो क्यों
हमारे बीच आकर खड़ा होगा? तुमने उसका पासपोर्ट देखा है कभी?
राशन कार्ड? एटीएम? ड्राइविंग लाइसेंस?
मैंने उसे मुहल्ले की बस्ती में नारंगी देते हुए देखा है
उसका नाम कोई नहीं जानता, वो असल में है मिस्टर नोबडी।
उसका काम है तुम्हारे-मेरे बीच झगड़ा लगा कर खिसक जाना
वह तुम्हारे फ़्लैट में घुसेगा, तुम्हारे थोड़े से उघड़े क्लीवेज की ओर देखेगा
लेकिन तुम्हें कोई बुरा प्रस्ताव नहीं देगा
हम क्या इतने बेवक़ूफ़ हैं, हम क्या बाग़ बाज़ार के रसगुल्ले हैं?

हमारे भीतर जितनी भी ईलिश8हिलसा मछली ज़िंदा है अब तक
जितना हरा धनिया, कलौंजी और सरसों का तेल बचा हुआ है
वह आदमी सब सफ़ाचट कर साँझ के साये में खो जाएगा
और हम उजड़े पंछियों की तरह जले हुए घर की छत पर उतरेंगे?
या फिर जले घर के भीतर खड़े हो एक-दूसरे को चूमेंगे?

मृत्युदिवस
पिता को

सूर्यास्त से पहले मैं मैदान में जाकर खड़ा हुआ
मैदान में बस एक ही पेड़ है, चिड़ियाँ नहीं
पेड़ के भीतर से एक सज्जन निकल कर आए, धोती पहने हुए
मैंने कहा—बहुत दुबला गए हैं, तब मैं
आठवीं कक्षा में पढ़ा करता था, कम वेतन की नौकरी थी आपकी
बड़ी बहनों को लेकर रहा करती थी अशांति, झगड़ा। अब हम
काफ़ी अच्छे हैं, अगले महीने नए घर में जा रहे हैं
हो सके तो साथ चलिए—यूँ ही हँसी-मज़ाक़ में माँ से परिचय
करा दूँगा, वह पहचान ही नहीं पाएँगी।

डामर

मेरी सात दिनों की सातों बनियानें धुली रहें
पहनी हुई बनियान मैं पहन नहीं पाता।

सुबह से दूध का पैकेट फ़र्श पर पड़ा हुआ है
यह क्या कोई घर है?

इसको लेकर अब तक पाँच दफ़े मोहल्ले के लड़के आ चुके हैं, क्या चाहते हैं वे?
हद है! कह दो मैं घर पर नहीं हूँ।

बहुत दिन हुए मैंने किसी चिड़िया की आवाज़ नहीं सुनी
बस सिर का पिछला हिस्सा खुजाता रहता है, घाव तो नहीं हो जाएँगे?

मेरी दवाइयाँ कहाँ हैं? क्या खाने की मेज़ पर नहीं रखनी चाहिए?
वहाँ से तो कहीं खो नहीं सकती हैं न!

नल में पानी आधा घंटा भी नहीं रहता, मकान मालिक को कहना होगा
लेकिन यह मुझसे नहीं होगा, मकान मालिक से बात करने के लिए मैं पैदा नहीं हुआ हूँ।

इसी बीच एक दिन मैं न जाने कहाँ से डामर मल कर घर लौटा
सारी रात तुम मेरे हाथ-पावों से वो डामर पोंछती रहीं।

लेकिन मैं तुम्हें धमकाने लगा, आह! नहीं पोंछना है तुम्हें, हटो
इस तरह रगड़-रगड़ कर मेरी चमड़ी उतार लोगी तुम?

बहुत दिनों से मैंने किसी चिड़िया की आवाज़ नहीं सुनी
बहुत दिनों तक चिड़िया की आवाज़ न सुनने से इंसान का एक हिस्सा ख़राब हो जाता है।

मेरे लिए तुम मत रोओ, मेरे दोनों ही हिस्से ख़राब हो चुके हैं
मेरे शरीर से अब और किसी दिन नहीं मिटेगा डामर।

चाँद

बिहार से भाग कर आई नारंगी सिंदूर लगाए सोलह साल की लड़की
पार्क स्ट्रीट के फ़ुटपाथ से चाँद को देख कर कहती है—
‘‘यह साला मेरे मर्द की तरह हरामी है, पीछा ही नहीं छोड़ता’’
एक शराबी जा रहा था, चाँद के बारे में बेवड़ों की राय साफ़ है
उन्हें आसमान में कभी एक चाँद नहीं दिखता, हमेशा दो दिखते हैं
जब पुलिस बेवड़े को पकड़ने आई; बेवड़े ने कहा—क्यों फिर से धर-पकड़ाई
एक चाँद तुम लोगों का, एक हमारा।

लेकिन कवि, ख़ासकर आधुनिक कवि जो हैं कुछ ज़्यादा आशावादी
उनका ख़याल है अगले पचास सालों में चाँद की धरती पर
खोले जाएँगे छोटे-छोटे स्कूल, जहाँ सिलेबस में शामिल की जाएँगी उनकी कविताएँ
चाँद पर होने वाले कवि-सम्मेलन में वे आमंत्रित हो कविता-पाठ करने जाएँगे
जो चाँद पर कविता पढ़ने जाएँगे, चाँद विरोधी लघु पत्रिकाएँ
उन्हें गालियाँ देंगी

हम यह भूल चुके हैं चाँद की रोशनी उसकी अपनी नहीं
जैसे हम भूल गए हैं कम्युनिस्ट घरों की लड़कियों की होती हैं कुछ अवदमित इच्छाएँ
उनकी ज़िंदगी ऐसी है जैसे उपर सस्ती साड़ी भीतर महँगी ब्रा
जो अमीर हैं उन्हें चाँद की परवाह नहीं
सहजन की फली-सी एक ग़ुस्सैल अध्यापिका ने कहा : चाँद और लड़की
इन दोनों को देख कर आप लोगों का दिमाग़ ठिकाने नहीं रहता
एक सर्वहारा किसान नहा रहा था गोधूलि-बेला के पोखर में
चाँद सीधा उतर आया सर्वहारा के पोखर में, लिपट गया सर्वहारा से
सर्वहारा भी लिपट गया चाँद से, तो क्या इसे ही कहते हैं
चाँद के बदन पर चाँद का लगना?

चाँद को लेकर हम जितना भी मज़ाक़ क्यूँ न करें
जिसके जीवन में एक टुकड़ा चाँद की रोशनी नहीं पहुँची है अब तक
वह जीवन बहुत दुख भरा है,
उस जीवन में न चाँद की यह पीठ है, न ही वो पीठ।

तितलियों का गाँव

हर राह पर तितली, लोग कहते थे तितलियों का गाँव
शुक्ल तिथि, चाँद के सड़क के दोनों ओर
धान के खेत, जैसे हो चाँदनी चौक
पर महामारी की आशंका से वे छोड़ गए हैं गाँव।

तितलियाँ हो गई हैं विलीन
कट चुके हैं धान, इस बार नहीं आया त्योहार
मर्द नहीं रहते इस गाँव, आँगन-आँगन के बीच नहीं बचा प्यार
भाई नहीं हैं, बस रह गईं हैं बहनें चार।

नहीं होगी अबकी भाई दूज
नहीं होगा दहलीज़ों पे कोजागरी चाँद
लक्ष्मी न पधारें अगर तो क्या होगा
पाँव रचकर लक्ष्मी के कहती हैं चारों बहनें
आओ फिर भी, आओ फिर भी, पड़ूँ तुम्हारे पाँव।

तितलियाँ हो गई हैं विलीन
अछूत का पानी नहीं चलेगा कह जल गईं छतें जिन घरों की
झाँकते देखा उन जली छतों से कद्दू के फूलों की छाँव
बाद इसके भी क्या बचाओगे नहीं तुम यह गाँव?

भूत-राक्षस

मछलीवाले कविता नहीं पढ़ते
शहद बेचने वाले भी नहीं पढ़ते कविता।

निराश युवक, भई तुम भी मत पढ़ना
नितिन गडकरी नहीं पढ़ते कविता।

कविता के प्रकाशक कविता नहीं पढ़ते
जो कॉलेज में पढ़ाते हैं, वे भी नहीं पढ़ते कविता।

तो क्या भूत पढ़ते हैं सारी कविताएँ?
क्या राक्षस ख़रीदते हैं कविताओं की किताबें?

वेश्या कैसी होगी

चिरहरित देश में वह है एक कहानी।

संध्याजल से उठ खड़ी हुई किसी नाव की तरह अकेली
बस्ती में उसका नाम है पुष्पा।

क्या छोटी बहन जैसी है पुष्पा?
क्या बड़ी दीदी जैसी है पुष्पा?
विधवा बुआ जैसी?

संध्याजल से उठ कर वह आवाज़ देगी—
‘‘कल्लू, एक कुल्हड़ चाय दे जा”
चिरहरित देश में वह है एक कहानी।
‘‘थू:, चाय है या घोड़े की मूत?’’ लहजे से पता चलता है
उसके स्टोव पर चढ़ी भाजी में लगी हुई है आग।

लेकिन वह कैसी होगी?
कभी वह हुआ करती थी घोड़ी, पूँछ थी उसकी
जितना ज़्यादा होता जिसकी पूँछ का रुआब, उतनी ही सुंदर होती है वह,
लेकिन अपने गर्भगृह में उसे कोई नहीं घुसाता।

एक जलता हुआ स्टोव और उसका प्रतिपक्ष एक वेश्या
लेकिन अभी-अभी
वो नदी को लात मार नदी पथ से लौट रही है शहर में।

मज़ाक़

आपने गिलहरी को डाल पर छोड़ दिया, शरीर पर दे दिए रोयें
और लड़की को भेजा कॉलेज में, लड़के के बारह बजाने के लिए रची
प्रकृति, आपने ऐसी और भी ग़लतियाँ की हैं।

तथागत, आपसे

एक

कोई अगर तुम्हें शरद की सुबह जूता मारे
तुम क्या करोगे तथागत?

तथागत ने कहा—
हेमंत के नियमानुसार जूते का क्षय होना तय है
मेरी भी बदले की भावना कम हो जाएगी वसंत के आते-आते।
लेकिन जिसने मुझे जूता मारा था,
पिछले तीन हज़ार वर्षों से उस जूते की कील
कुरेद रही है उसे…
‘‘फिर लौट आया है शरद, क्या जूता नहीं फेंकोगे?’’

दो

कोई अगर तुम्हारे मुँह से निवाला छीन ले
तुम क्या करोगे तथागत?

तथागत ने कहा—
जिसके पास रोटी है वह रोटी छीनने नहीं आता
जिसके पास नहीं है उसे खाने दो।
अगर खाने नहीं देते तो
इसके बाद जिनके पास रोटी है, वे हो जाएँगे एकजुट
जिनके पास नहीं है वे बना लेंगे दूसरा दल
छिड़ जाएगी फिर आपस में जंग।
वैसे जानते हो जिनके पास रोटी है, जीतेंगे वही।

तीन

अगर कोई रंडी आकर कहे, तुमने मेरे जिस्म से खेला है
तुम क्या करोगे, तथागत?

तथागत ने कहा—
मैं उसका वज़ीफ़ा बढ़ा सकता हूँ,
उसके लिए इमारत बनवा सकता हूँ,
लेकिन उसे अपनी पीठ पर लिखना होगा :
‘‘मैं दुनिया का पहला पेशा हूँ
आदमज़ाद, मुझसे डरो, मेरी इज़्ज़त करो, मुझे तबाह करो’’

फिर तथागत ने कहा—
पर किसी ने मेरी बात नहीं सुनी।

चार

अगर बदज़ात-बदमाश तुम्हें अगवा कर ले जाएँ
और तुम्हें बात न करने दें तो
तुम क्या करोगे तथागत?

तथागत ने कहा—
बात न करने दें तो बच जाऊँगा, कुछ नहीं बोलूँगा
इतने दिनों तक बात करके भी क्या हुआ?
लेकिन बात करने दें तो कहूँगा
मुझे बोलने दो।

पाँच

अगर तुम्हारे सामने वे किसी युवक को
रास्ते पर पटक कर मारें
क्या करोगे तुम तथागत?

मैं भी उनके साथ दो-चार हाथ लगाऊँगा,
जड़ दूँगा दो-चार घूँसे
फिर कहूँगा, अब छोड़ दो उसे
बंदे को ज़िंदा रहने दो
तुम भी ज़िंदा रहो।
जो मार रहे हैं और जिसे पीटा जा रहा है
दोनों को ही ज़िंदा रहना है।

छह

अगर वे आकर कहें, सुजाता को आपने छुपा रखा है
उसे हमारे हाथों सौंप दें
क्या करोगे तुम तथागत?

तथागत ने कहा—
मैं उससे प्यार करता हूँ
उसे शीर कहकर बुलाता हूँ
मैं किस तरह घर से निकाल सकता हूँ उसे?
अच्छा मेरे एक सवाल का जवाब दो
क्या तुममें से कोई है,
जो उससे प्यार करता है?

गले में ठर्रा उड़ेल एक ने बढ़कर कहा :
मैं उससे प्यार करता हूँ

दूसरे ने आगे आकर कहा :
अबे चल, उस से मैं प्यार करता हूँ।

तथागत ने कहा—
तीन हज़ार सालों से देखता आ रहा हूँ
तुम सब लड़ना जानते हो,
प्यार करना नहीं।

सात

क्या एक औरत एक साथ दो पुरुषों से प्यार कर सकती है
तुम्हारी क्या राय है, तथागत?

तथागत ने कहा—
इससे धातु दुर्बल हो जाता है,
अनाज की भी क्षति होती है;
लेकिन इसे ही तो कहते हैं,
दोनों पैरों पे खड़े होना।

आठ

क्या एक पुरुष दो औरतों से एक साथ प्यार कर सकता है?
क्या है राय तुम्हारी, तथागत?

तथागत ने कहा—
पुरुष एक साथ कई लड़कियों से प्यार करता है,
लेकिन जिसे वह सचमुच चाहता है;
जिसके लिए तड़पता है, सो नहीं पाता
वह लड़की उसे प्यार नहीं करती।

नौ

क्या बादशाह अपनी ताक़त की ज़ोर पर
किसी को धक्का देकर गिरा सकता है?
तुम्हारी राय क्या है तथागत?

तथागत ने कहा—
जो धक्का देता है, उसके पास ताक़त है
जो धक्का खाकर नहीं गिरता, उसकी क़ूवत और भी ज़्यादा है

दोनों ही पानी की दो बूँदें हैं, जलकुंभी के पत्ते पर
हवा का रुख़ जिस ओर है, उसी के आसरे है जलकुंभी का पत्ता
यही है बनावट बल-बूते की।

दस

क्या यौन-संगम के अलावा कोई और बड़ा सुख नहीं है दुनिया में
तथागत ने कहा—
नहीं।
जंग के मैदान में, रात के वक़्त
सेनापति और सेनापति का बेटा
एक ही ख़ानाबदोश लड़की के घर गए, अलग-अलग।

तथागत ने कहा—
लेकिन और एक बात है
जिस दिन वह सेनापति अंधा हो लाठी लेकर सड़क पार करेगा
उससे पूछना, वह कहेगा :
सड़क पार करने से बड़ा सुख नहीं है दुनिया में।

ग्यारह

दुश्मन का सम्मान करना उचित है?
क्या राय है तुम्हारी तथागत?

तथागत ने कहा—
जो तुम्हें ख़त्म करने के बारे में सोच रहा है
जब तक वह ख़ुद ख़त्म न हो जाए तब तक उसकी
इज़्ज़त करो।

यहाँ तक कि अगर दुश्मन की लाश सड़क पर पड़ी हो तो
उसे सम्मान से उठा कर ले आओ छाँह में
उसे नहलाओ।

हो सके तो छुपके ग़ुस्लख़ाने में जाकर अपने आँसू पोंछ आओ।

तथागत ने आगे कहा—
वह तुम्हारा दुश्मन हो सकता है
लेकिन इंसानियत के नाते उसका भी कुछ अधिकार था।
क्या वह तुम नहीं दोगे?

पागल का फागुन माह

फागुन मेरा माह है
फागुन है तुम्हारा मास
जिसे फागुन कहा गया है
उसे कहता हूँ मैं सर्वनाश।

फागुन उन्मादना है
फागुन है घातक
लड़कियाँ अबीर हों तो
लड़के हो जाते हैं पागल।

पहले था लाइन मारना, आज है सब ऑनलाइन पे
किससे प्यार करूँ मैं, नहीं लिखा है किसी आईने में।
स्क्रीनशॉट पर टूटता है प्रेम, पलाश में ही जमती है प्रीति
मिलते हैं व्हाट्सएप पर, क्या लिखता है कोई प्यार की चिट्ठी?
फागुन मेरा माह है, पागल है फागुन मास
अच्छा लगता है पागल होना, लगता है अच्छा सर्वनाश।

प्रेम का गगनतल

आँखों में अटका आँसुओं का जल
वही है मेरे प्रेम का गगनतल।
रखो मेरे सीने में आग रख दो अपना सिर
वही है मेरी गाथा सप्तशती।
जब हो मेरा मन ख़राब
जब मैं हो जाऊँ भाप
अपना घर छोड़ मैं तब आऊँगा तुम्हारे पास।
तुम्हारी आँखों का थोड़ा-सा जल—
है प्रेम का गगनतल।
आँखों के रुके आँसुओं में तैरूँगा मैं
बिन रुलाई कैसे प्रेम करूँगा मैं?

लिटिल मैगज़ीन मेले में

एक साक्षात्कार में
एक प्रतिष्ठान-विरोधी, ग़ुस्सैल कवि ने
मुझसे पूछा—
क्या आप साठ पार कर चुके हैं,
यू आर ऑन द रॉन्ग साइड ऑफ़ द बेड
इस उम्र में आपका कोई सपना है?

प्रतिष्ठान-विरोधी, ग़ुस्सैल कवि को मैंने कहा—
द रॉन्ग साइड इज़ माई राइट साइड
अब मेरा एक ही सपना है
मैंने साठ पार किया है
लेकिन मैं एक तीस साल के
तरुण कवि-सा लिखना चाहता हूँ।
ग़लतियाँ करना चाहता हूँ।
आकाश में प्रेम को ले उड़ना चाहता हूँ
आग्नेयगिरी पर खड़ा होना चाहता हूँ
क्या होगा ज़िंदा रहकर यदि स्वप्न न देखूँ?

मेरा देश

जहाँ मेरा घर था
अब वहाँ है नहीं
जहाँ मेरा गाँव था
अब वहाँ है नहीं
जहाँ था शिऊलितला
अब वहाँ है नहीं
जहाँ थीं अज़ान की सीढ़ियाँ
अब वहाँ हैं नहीं।

यहाँ मेरा देश था
अब यहाँ है नहीं
यहाँ घृणा है, इनकी नफ़रत है, उनकी नफ़रत है
हाँडी में भात घृणा से खदबदाता है, सीना फटता है नफ़रत से
घर पीठ पर लादे, बच्चों को ले चल पड़ा हूँ मैं।

जहाँ फटा तकिया था, वहीं सुख था, शायद
इतनी अतिशयता वसुंधरा को मंज़ूर नहीं।

मासी

मासी आई थी कटवा से
नौ साल पहले,
मेरे और बेटे रोरो के लिए
खाना पकाती थी वह।
मासी फिर वापस नहीं लौटी कटवा
मासी हल्दी पीसा करती थी
लगता था, माँ पीस रही हो हल्दी रसोईघर में
दाल में पंचफोड़न का छौंक
चनमना उठता था
छह सौ स्क्वायर फ़िट का छोटा-सा फ़्लैट
लगता था सारी दुनिया की माँएँ
बना रही हैं खाना
अपने बच्चों के लिए।
दरअसल पंचफोड़न की सुगंध ही है ज़िंदा रहने की गंध।
मासी फिर वापस नहीं लौटी कटवा।
जबकि पिछले नौ बरसों में रोरो से नाराज़ हो
कम से कम अट्ठारह बार कह चुकी थी वह—
‘‘मैं अपने बेटे के पास वापस चली जाऊँगी
देख लो कोई और कामवाली’’

कई रातों को मासी
अपने बेटे से मोबाइल पर बात करती
पोते-पोतियों से कहती थी—
‘‘पूजा में मैं नहीं जा पाऊँगी
मैं न पकाऊँ तो ये लोग खा नहीं पाएँगे
रोरो को कौन परोसेगा भात?’’
खाते-खाते हम एक साथ कह उठते
मासी, आज मेथी का पराठा बना है लाजवाब।
मासी चुप रहती
और मैं देखता रहता
एक घर की माँ
कैसे बन गई है
दूसरे घर की माँ।

चे, आज तुम्हारा जन्मदिन है

चे, तुम बोलीविया के जंगल के घास थे
दुनिया में मनुष्यों के आने से पहले
आई थी घास
दुनिया से मनुष्यों के जाने के बाद
हारमोनियम पर उग आएँगे घास।
चे, तुम बोलीविया के भयानक जंगल में थे।
तुमने क्यूबा के किसी घास के
कानों में कहा था
चलो जल उठते हैं।
चे
तुम काकद्वीप के बिन्ना-घास के
जलपाईगुड़ी के टाइगर ग्रास के,
मारांगबुरु के बाबुई घास के
कानों में कहते रहे, चलो जल उठते हैं।
दुनिया इतनी सुंदर न होती
यदि यदि यदि यदि
यदि यदि यदि
यदि
घास न जल उठती।

ज़ख़्म

कॉलेज में जाते ही अगर
किसी दूसरी विचारधारा के छात्र को पीटना पड़े
मुँह तोड़ देना पड़े अगर
लोहे की रॉड, चेन चलानी पड़े अगर
कॉलेज में जाते ही अगर
कॉलेज में जाते ही अगर
कॉलेज में जाते ही अगर
मार कर फोड़ना हो भिन्न मत
अनेक पथ और अनेक मत अगर मिल नहीं पाएँ
गंगा, यमुना, तीस्ता अगर मिल ही न पाएँ
वे तो संतान हैं, मेरी संतान, तुम्हारी संतान
उनके सिर उखाड़ फेंकिए
संविधान क्यों है देश में?

सोना

तुम्हारा ऋणी हूँ
तुम्हारे जैसी आग मैंने
और नहीं देखी।
तुम्हारी तरह जला कर
कोई तो नहीं जलता है।
तुम्हारी तरह बुझाने पर
कोई तो नहीं बुझता है
इस तरह, इस तरह, इस तरह
कोई प्यार
तो नहीं कर पाता है।
इस तरह, इस तरह, इस तरह
कोई मार तो नहीं पाता है।

रिपब्लिक डे

पब्लिक और रिपब्लिक के बीच बह गए चाँदनी में
हमारे सुख, हमारी बावन इंच उदासी।

कौन हमारी कटी पतंगें लाकर देगा?
कौन बता सकता है कृष्ण नगर से आख़िरी ट्रेन कितने बजे है?

पब्लिक और रिपब्लिक के बीच चाँदनी में
खड़े हैं मेरे पिताजी
पिताजी का हाथ पकड़ रखा है मेरी माँ के दाएँ हाथ ने
माँ के सिर पर है तुलसी का पौधा।
माँ तुम अपने लंबे जीवन में रिपब्लिक डे
कैसे बिताती थीं?

जितनी बार तेरे पिता की तस्वीर से धूल पोंछती थी
उतनी बार हाथों में ख़ून लग जाता था।

देश हमें देश तो न दे सका
बड़े धूमधाम से मनाने को एक रिपब्लिक डे दिया है।

और माँ,
ख़ुद ही अब एक तुलसी का पौधा हैं।


सुबोध सरकार [जन्म : 1958] सुविख्यात बांग्ला कवि-लेखक हैं। उन्हें ‘द्वैपायन ह्रदेर धारे’ [कविता-संग्रह] के लिए वर्ष 2013 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह संग्रह अभी हाल ही में ‘द्वैपायन सरोवर के किनारे’ शीर्षक से हिंदी में अनूदित हुआ है; प्रकाशक है—साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली और अनुवादक हैं—अमृता बेरा। अनुवादक के अनुसार यहाँ प्रस्तुत कविताओं में से कुछ कविताएँ ‘द्वैपायन सरोवर के किनारे’ से हैं और कुछ कविताएँ अलग-अलग पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। अंतिम आठ कविताएँ अब तक कहीं प्रकाशित नहीं हुई हैं। कवि से subodhsarkar@gmail.com पर संवाद संभव है। अमृता बेरा सुपरिचित और सम्मानित लेखक-अनुवादक हैं। वह हिंदी, बांग्ला और अँग्रेज़ी तीनों भाषाओं में परस्पर अनुवाद और स्वतंत्र लेखन में सक्रिय है। अनुवाद-कार्य की उनकी अब तक दस किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनसे amrujha@gmail.com पर संवाद संभव है।

1 Comments

  1. Dr.Harpreet Kaur जनवरी 30, 2025 at 10:56 पूर्वाह्न

    बहुत दिन बाद बहुत जानदार कवितायें पढ़ी हैं | दुश्मन का सम्मान करना उचित है?
    क्या राय है तुम्हारी तथागत?

    तथागत ने कहा—
    जो तुम्हें ख़त्म करने के बारे में सोच रहा है
    जब तक वह ख़ुद ख़त्म न हो जाए तब तक उसकी
    इज़्ज़त करो।

    यहाँ तक कि अगर दुश्मन की लाश सड़क पर पड़ी हो तो
    उसे सम्मान से उठा कर ले आओ छाँह में
    उसे नहलाओ।

    हो सके तो छुपके ग़ुस्लख़ाने में जाकर अपने आँसू पोंछ आओ।

    तथागत ने आगे कहा—
    वह तुम्हारा दुश्मन हो सकता है
    लेकिन इंसानियत के नाते उसका भी कुछ अधिकार था।
    क्या वह तुम नहीं दोगे?

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