एलीसिया पार्तनॉय की कविताएं ::
अनुवाद और प्रस्तुति : यादवेंद्र
साल 1955 में अर्जेंटीना में जन्मी एलीसिया पार्तनॉय एक बेहद सक्रिय मानवाधिकार एक्टिविस्ट और कवि हैं. अर्जेंटीना के लोकप्रिय राष्ट्रपति जुआन पेरो की मृत्यु के बाद देश की सत्ता पर काबिज सैनिक तानाशाही ने बड़े पैमाने पर वामपंथी युवाओं की धरपकड़ और दमन का अभियान चलाया.
एलीसिया उन युवाओं में शामिल थीं जिन्हें सैनिक डेढ़ साल की बच्ची से अलग कर उठा ले गए और यंत्रणा शिविर में ठूंस दिया. ऐसे शिविरों में डाले गए लोगों पर औपचारिक तौर पर मुकदमा नहीं चलाया जाता था और उन्हें गुमशुदा की श्रेणी में रखा जाता था. शुरू के साढ़े तीन महीने एलीसिया की आंख पर निरंतर पट्टी बांधे रखी गई थी और बाद में भी उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी गईं. शिविर के अपने अनुभव को उन्होंने जब ‘द लिटल स्कूल’ शीर्षक से कलमबद्ध किया, तब दुनिया का ध्यान इन अमानवीय तौर-तरीकों पर गया. प्रतिकूल राजनैतिक सामाजिक परिस्थितियों ने उन्हें 1979 में देश छोड़कर अमेरिका बसने पर मजबूर किया, जहां सालों बाद वह अपनी बच्ची और पति से मिल पाईं. अमेरिका आकर उन्होंने अर्जेंटीना के दमित लोगों की मुक्ति के लिए काम और यूनिवर्सिटी में अध्यापन किया.
अन्य स्त्री लैटिन अमेरिकी लेखकों-कवियों की तरह ही एलीसिया भी राजनीतिक चेतनायुक्त कविताओं के लिए जानी जाती हैं और ‘रिवेंज ऑफ द एप्पल’ और ‘फ्लॉवरिंग फायर्स’ उनकी मूल स्पैनिश में लिखी कविताओं के अंग्रेजी अनुवादों के संकलन हैं.
बातचीत
मैं तुमसे कविता पर बात कर रही हूं
और तुम हो कि कहते हो
हम खाना कब खाएंगे
सबसे ज्यादा चुभने वाली बात यह है
कि सिर्फ तुम ही नहीं
बला की भूखी हूं मैं भी
यातना शिविर से बच निकली
मैं अपना गुस्सा साथ लेकर चलती हूं
गठरी-सा सीने से चिपकाए
वह एक मरी हुई मछली की तरह लुंज-पुंज है
और बदबू बिखेरता रहता है
कभी-कभार उससे फुसफुसाकर बातें भी कर लेती हूं
राह चलते लोग मुझे देख दूर छिटक लेते हैं
मुझे मालूम नहीं : मौत की दुर्गंध के चलते
वे मुझसे दूर भाग खड़े होते हैं
या कि मेरे बदन की गर्मजोशी से डरते हैं…
कहीं मेरा गुस्सा एक बार फिर से
सोए पड़े जीवन को सुलगा न दे!
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यादवेंद्र सुपरिचित अनुवादक हैं. मुंबई में रहते हैं. उनसे yapandey@gmail.com पर बात की जा सकती है.