कविताएँ ::
राजेश कमल

राजेश कमल

स्त्री का बुदबुदाना

अगर ईश्वर जैसा कोई सहकार है
तो उसे ही मालूम होगा
कि क्या कहा तुमने

अगर नहीं है
तब कहावतों में भी नहीं कहा जा सकता
कि ईश्वर ही जानता होगा

बेवजह घंटों से सोच रहा हूँ
कि क्या बुदबुदाया तुमने

ईश्वर

हे ईश्वर!
तुम्हारे पास तो रंग-बिरंगे पोशाक थे
स्वादिष्ट मिठाइयाँ थीं
रसीले पकवान थे
महल भी आलीशान थे

तस्वीरें तो यही बताती हैं
किताबों में यही लिखा है
ज्ञानियों ने भी ऐसा ही कहा है

फिर
तुमने जो बनाई दुनिया
वहाँ जो रहे इंसान
क्यूँ रहे नंगे
क्यूँ खाया कंदमूल
क्यूँ भटके जंगल-जंगल

अगर सब तुम्हारा ही माल था
तब ये क्या कमाल था

सच-सच बताना ईश्वर—
दुनिया तुम्हारी ही रचना है
या तुम दुनिया की रचना हो?

रौशनी

सुना है
रौशनी का बँटवारा होगा
चाँदनी में हिस्सेदारी होगी
किसी को मद्धम किसी को तेज़
किसी को काला किसी को सफ़ेद
किसी को दिन किसी को रात
किसी को छत किसी को आस्माँ
किसी को ज़मीं तो कोई बेज़मीं
कोई ऊपरवाले की नेमत
तो कोई कुत्ते की औलाद माना जाएगा
सुना है रौशनी
क़ुदरत की मिल्कियत नहीं रह जाएगी
हस्तिनापुर ने ख़त्म कर दिया है
सूर्य का एकाधिकार
अब वह बाँटेगा रौशनी…
जाति देखी जाएगी
धर्म देखा जाएगा
रंग देखे जाएँगे
भाषा देखी जाएगी
और न जाने क्या-क्या देखा जाएगा
फिर मंडियों में सज जाएगी रौशनी
अम्बानी आएँगे, अडानी आएँगे
हिंदुस्तानी आएँगे, जापानी आएँगे
सब बेचेंगे रौशनी
अब यही सोच रहा हूँ
वो जो रोटी-दाल में उलझा है
वो जो रोज़ी के सवाल में उलझा है
वो जो दफ़्तर-अस्पताल में उलझा है
कहाँ से लाएगा जुगाड़
कि दो जून रौशनी ख़रीद ले

कौवे

कबूतरों का इलाक़ा था कभी
सफ़ेद कबूतरों का
कौवे भी यदा-कदा दिख जाते
कभी चील भी
कभी बाज़ भी
कभी रंग-बिरंगी चिड़ियाँ
लालक़िला हो या राजपथ
यही नज़ारा
पर इन दिनों
बदल गए हैं नज़ारे
जिधर देखो कौवे ही कौवे
हर शाख पे कौवे
हर बाम पे कौवे
हर नाम में कौवे
हर काम में कौवे
कबूतर बिल्कुल नदारद
जैसे ही मुल्क में कौवों की तदाद बढी
हर जगह गूँजने लगा—
काँव-काँव
जब तहक़ीक़ात की तो पाया
इनमें कुछ नक़लची हैं
जैसे तोते
कुछ बेचारे हैं
जिन्होंने बहुसंख्यकों के दबाव में भाषा बदल ली
और कुछ अकलची
जो हवा का रुख़ देखकर मुँह खोलते
हद तो तब हो गई
जब इस बार गया गाँव
भागा उलटे पाँव
वहाँ
कोयल भी कर रही थी
काँव-काँव

टमाटर

वो हर थाली में होता है
हर भनसे में होता है
हर भोज में होता है
कभी खेत में पड़े-पड़े सड़ जाता है
कभी सिर्फ़ ख़ास थालियों में ही आता है
कभी लाल टुह अपने मौलिक रंग में होता है
तो कभी जय श्री राम हो जाता है
कभी कभी तमाशाइयों का हथियार भी हो जाता है
कभी प्लेट में पड़े-पड़े बेकार हो जाता है
टमाटर टाइप के लोगों को किसी से बैर नहीं होता
किसी से दुश्मनी नहीं होती
सबसे यारी
बस्स आप उसे अपने भनसे में रखिए
चाहे वो शाकाहारी हो या मांसाहारी
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
रहेगा वो एक किनारे चुपचाप
अपने अंत के इंतज़ार में
चटनी बना
भरता बना
या कभी
कच्चा चबा लिया गया

रोहिंग्या

सारी वसुधा को
कुटुंब मानने वाले मुल्क के
नायकों
क्या
भूखे
नंगे
रोते
बिलखते
बेघर
बीमार मनुष्यों के लिए
अपने घर के दरवाज़े बंद कर लोगे
क्या किसी से उसका मज़हब
पूछ के हाथ मिलाओगे
क्या किसी से गले
उसकी जाति पूछ के लगोगे
क्या मुहब्बत
पता-ठिकाना पूछ के करते हो
इन सवालों के सामने
ख़ामोश रहोगे
हकलाओगे
या ढीठ बन जाओगे
अब क्या बचा है
मिटा भी डालो
जो अपने घर के दरवाज़े पर लिखा है
अतिथि देवो भव:

ईश्वर तुमपे भारी है हत्यारा

गांधी को गोडसे ने नहीं मारा
कलबुर्गी, दाभोलकर, पानसरे और
गौरी लंकेस को भी
उसने नहीं मारा जिसने चलाई गोली
किसी को उसकी सद्भावना ने,
तो किसी को उसकी क़लम ने मारा
किसी की नफ़रत ने तो क़तई नहीं
वंचितों की हत्या आत्महत्या थी
बेरोज़गारों की आत्महत्या कायरता थी
किसानों की मौत का कारण कदापि सरकारें नहीं थीं
उन्हें तो नपुंसकता ने मारा
अख़लाक़ की हत्या गोश्त के कारण हुई
पहलू ख़ान की हत्या तो हुई ही नहीं
पुलिस ने कहा, अदालत ने कहा
सबने कहा
उसे तो किसी ने नहीं मारा
है ईश्वर
सुना था तुम्हारा डंडा दिखाई नहीं देता
यहाँ तो हत्यारे की शक्ल ही दिखाई नहीं देती
कैसी लीला है प्रभु
तुमपे तो भारी है हत्यारा
बहुत ही भारी!

राजेश कमल हिंदी कवि-लेखक हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें :  बेहतर है कि डर को रोमांच पढ़ा जाएमोह कमज़ोरों की भावना थीआपदाग्रस्त

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