महाप्रकाश की कविताएँ ::
मैथिली से अनुवाद और प्रस्तुति : बालमुकुंद

महाप्रकाश [1946-2013] मैथिली के समादृत कवि-कथाकार हैं। उनके कवि की निर्मिति में जितना उनका समय है, उतना ही उनका निजी भी। इस निजी में उनकी राजनीति, संघर्ष, प्रेम, घृणा, वासना, भय सब शामिल हैं। उनका कवि इस निजी और सामाजिक के द्वंद्व में नहीं फँसता है। उनकी कविताएँ मानवीय संवेदना, समय और अस्तित्व के गहन प्रश्नों के इर्द-गिर्द रची-बसी हैं। उनका सरोकार गंभीर और व्यापक है। उनकी कविताएँ एक साथ जितनी सामाजिक हैं, उतनी ही आंतरिक भी। एक ओर जहाँ उनकी कविताओं में समय और समाज का उजला-स्याह पक्ष अपनी समस्त राजनीति और विद्रूपता के साथ उपस्थित होता है, वहीं दूसरी ओर मानव-जीवन की जटिलताएँ, आंतरिक संघर्ष और आत्म-चिंतन की गहरी छाप दिखाई देती है। मैथिली कविता की परंपरा में इसकी जड़ें तलाशने पर एक ओर यात्री-जीवकांत जैसे कवि मिलते हैं, तो दूसरी ओर राजकमल चौधरी। महाप्रकाश के स्वर में इन स्वरों की अनुगूँजें शामिल हैं। वह इसमें अपनी भाषा और कहन से अपनी तरह का नवाचार करते हैं और यही उन्हें सबसे अलग और ख़ास बनाता है। ‘कविता संभवा’ और ‘संग समय के’ शीर्षक से उनके दो कविता-संग्रह दृश्य में हैं। इसके साथ ही ‘सागर-मुद्रा’ नाम से कहानियों का भी एक संग्रह प्रकाशित है।

महाप्रकाश

उल्लास से करेंगे स्वागत

प्रतिदिन सुबह-सुबह
निर्भीक, निर्द्वंद्व मैनाओं का एक झुंड,
मेरे घर-आँगन में उतर आता है
कोलाहल मचाता हुआ

किसी घाघ अफ़सर-सा
चारों दिशाओं में चक्कर लगाता है
और अंततः ढूँढ़ ही लेता है—
अन्न का कोई टुकड़ा
आँगन में पड़ा कोई कीट
फिर उसे देर तक खाता है
और बेधड़क उड़ जाता है

वह वापस आएँगे
फिर से करेंगे वही सारे कर्मकांड
मेरे सामने ही चलेंगे अकड़कर
और मैं विवश—
उल्लास से करूँगा उनका स्वागत।

मैं काल-जर्जर वृक्ष पर बैठा जटायु

हिमालय से उतरता है पक्षियों का झुंड
मेरे गाँव-प्रांतर में
शरद के स्वागत में हर वर्ष
अनेक रंगों में फैल जाता है
हरीतिमा के आँचल में शब्द-संगीत
और वातावरण में वैभव लुटाता है

किंतु काल-जर्जर सेमल का वृक्ष
मात्र आश्रय है मेरे लिए
यहाँ न सार्थक शब्द, न फूल, न सुगंध
केवल आशा, केवल प्यास
आँखें दीप की तरह कम्पित

उत्तर की ओर मुँह किए,
फुनगी पर बैठा हूँ प्रतिक्षण-प्रतिपल
आकाश की तरह खुला हूँ मैं
कि कभी तो तुम आओगे
हिमालय की उत्तुंग चोटी या घाटी से उतरकर,
मुक्त अपने पंख फैलाए
चोंच में लिए कोई संगीत, कोई शब्द
कभी तो तुम आओगे

मैं काल-जर्जर सेमल के वृक्ष पर
जटायु बना बैठा हूँ।

तुम लौट जाओ

अनधिकृत सम भाव
तुम्हारी आँखों में उभरती हैं
मेरे प्रति असहाय
पतझड़ की छाँव-सी
यहाँ-वहाँ बिखरती हैं
तुम लौट जाओ

मैं अपनी आवाज़ को
अपने आंतरिक समर को
किसी बीमार रोशनी में
शीर्षासन-सा लटकाऊँ?
क्या यही चाहती हो
तुम लौट जाओ

गुलाबी ख़ुमारी की सारी सुबहें
दैहिक नाव की यात्रा
मुट्ठी भर इजोरिया का प्रत्याशी—
मैं नहीं हूँ
तुम लौट जाओ

जेब में साँप क्यों देती हो
बरसात की सुबह नहीं,
उदास शाम क्यों देती हो
नास्तिक ध्रुव पर काले हंस का बसेरा
पथरीले रास्ते का दावेदार—
एक, दो, हज़ार-बाज़ार
तुम लौट जाओ

इस वर्षा में

इस वर्षा में जलती है देह,
शीशा पिघलता है रक्तवाहिनी
नलिकाओं में। कनपटी पर बरसता है
सूर्यपिंड। खजुराहो की प्रतिमाएँ
बदल गई हैं अँधेरी
मरुभूमि में। नंगे पाँव मैं यूँ ही
चलता रहूँगा। बारिश होती रहे
बारिश को होने दिया जाए।

रंग से अलग क्या है?

रंग सबसे पहले आकाश में उतरा
पूरा जन्म मैं रंग का रूप निहारता रहा
धीरे-धीरे रंग मेरी आँखों में
सपना बनकर ठहर गया
एक सांगीतिक लय का संसार
मेरी साँसों में रच गया
रंग मेरा इष्ट है
और क्या है रंग से अलग?

अंतिम पहर में चाँद

नीले बिस्तर पर सोई कौन है यह बुढ़िया
फैलाए हुए अपनी केशराशि चारों ओर
डूबी अतीत की नींद में
अब तक नशे में धुत्त
अस्फुरित स्वर में बोलती हुई—
कौन-सी कथा बार-बार?

हार्डिंग पार्क

पैरों तले बिछी हरी दूब
मूँगफली तोड़ती उँगलियाँ
आँखों की बाढ़ में डूबता अकेलापन
दिमाग़ में सागर-प्रिया की अँगूठी

चलो चलें, मीनाक्षी!
बहुत बीमार लगता है अब यह शहर!

तुम्हारी आँखों में साँझ

दिन भर के व्यवहार, कार्य और संबंधों से
निकली जो काई—वह तुम्हारी आँखों में
समाहित हो गई। और मैं भ्रमवश
उसे साँझ समझकर उदास हो गया।

समय-शेष का प्रश्न

भविष्य के किस अँधेरे गह्वर से
समय मुझे पुकार रहा है
और मैं—
चलता जा रहा हूँ क़दम-दर-क़दम
डगमग-डगमग

पता नहीं कहाँ छूट गया
विश्वास का रास्ता
प्राण और निविड़ निजत्व का
प्राणांत बनकर कहाँ टूट गया

तब भी शेष-निःशेष की निस्तब्धता
वाचाल हो उठी है
मेरे अंतर्मन में—
फिर वही समय-शेष का प्रश्न :
क्या होगा…

पता नहीं किस गह्वर से
समय मुझे पुकार रहा है।

यात्रा और यात्रा

कितनी ही बार मुझे लाँघना पड़ता है
बालू भरे अनंत समुद्र और अथाह नदियों का वेग
बिसरा हुआ कोई गाँव अचानक स्मरण हो उठता है
और कोई दर्द और एक बूढ़े सेमल के वृक्ष पर बैठा
पक्षियों का जोड़ा।
उगता सूरज। ऊपर नीला आकाश।
नीचे गाँव। पंख फैलाता फूल और एक गंधप्रवाह नदी।

मेरा मन एक असहाय पक्षी का बच्चा,
आँखें बंद। किस किरण ने खोल दीं आँखें?
अचानक मैं हर्षोत्फुल्ल क्यों हो गया?
भागता रहा, लगातार दिशाओं को धाँगता हुआ
हँसता, अनंत नील की घाटियों में खो गया।

खो गए शब्द। साथ नहीं दिया कोई संगीत।
मृत शब्दों का एक बड़ा जुलूस मेरे चेहरे के चारों ओर,
नीली दरार खींच गया। खींचता गया।

मैं दिग्भ्रमित वापस लौट आया हूँ
किनारे पर मनु। किंतु मैं अब चिल्लाऊँगा नहीं
न लूँगा कोई नाम। न कहूँगा कोई शब्द
मुझमें ही अंकुरित होगा अर्थ।
लोगों के कहने से क्या अब ऋतु पागल हो जाएगी?

परकीया के प्रति

अब भी खिलते होंगे बंशीवट के फूल
अब भी बहता होगा नदियों में पानी
—अविराम
अब भी छप्पर पर कुचरता होगा
—कौआ
अब भी हाथों से छिटक जाती होगी
—कंघी
पर अब नहीं होगी किसी को मेरी कसम
न सपने में, न जागते हुए
—मेरी प्रतीक्षा
आईने में निहारती अपने गीत-गंध-पर्वत
किसी को कहाँ करता होगा पुलकित
—सिर्फ़ मेरा नाम!


बालमुकुंद मैथिली और हिंदी साहित्य में सक्रिय नई पीढ़ी के मेधावी व्यक्तित्व हैं। उनसे mukund787@gmail.com पर संवाद संभव है। उनके अनुवाद और प्रस्तुति में विकास वत्सनाभ की कविताएँ यहाँ पढ़ सकते हैं : मैथिली कविता के ‘विकास की परंपरा’

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