मलय रॉय चौधुरी की कविताएँ ::
बांग्ला से अनुवाद : सुलोचना वर्मा
अंतरटॉनिक
बीड़ी फूँकती हो अवंतिका
चुंबन में श्रम का स्वाद पाता हूँ
देसी पीती हो अवंतिका
श्वास में नींद की गंध पाता हूँ
गुटखा खाती हो अवंतिका
जीभ पर रक्त का स्पर्श पाता हूँ
जुलूस में जाती हो अवंतिका
पसीने में तुम्हारे दिवास्वप्न पाता हूँ
खसखस का फूल
कुचाग्र का तुम्हारे गुलाबी रंग अवंतिका
शरीर तुम्हारा हरे रंग से ढँका अवंतिका
खरोंचता हूँ निकलता है गोंद अवंतिका
चाटने देती हो, नशा होता है अवंतिका
हो दर्दनाक गिराती हो पेट अवंतिका
उत्सव
तुम क्या कभी श्मशान गई हो अवंतिका? क्या बताऊँ तुम्हें!
ओह वह कैसा उत्सव है, कैसा आनंद, न देखो तो समझ नहीं पाओगी—
पंचांग में नहीं ढूँढ़ पाओगी ऐसा उत्सव है यह
कॉफ़ी के घूँट लेता हूँ
अग्नि को घेर जींस-धोती-पतलून-बनियान व्यस्त हैं अविराम
मद्धिम अग्नि कर रही है तेज नृत्य आनंदित होकर, धुएँ का वाद्य-यंत्र
सुन कर जो लोग अश्रुपूरित आँखों से शामिल होने आए हैं उनकी भी मौज़
अंततः शेयर बाज़ार में क्या चढ़ा क्या गिरा, फिर टैक्सी
पकड़ सामान्य निरामिष ख़रीददारी पुरोहित की दी हुई सूची अनुसार—
चलना श्मशान काँधे पर सबसे सस्ते पलंग पर सोकर लिपस्टिक लगाकर
ले जाएँगे एक दिन सभी प्रेमी मिल काँधे के ऊपर डार्लिंग…
प्रियंका बरुआ
प्रियंका बरुआ तुम्हारे
होंठों का महीन उजाला
मुझे दो न ज़रा-सा
विद्युत नहीं है
कई साल हुए
मेरी उँगलियों में हाथों में
तुम्हारी उस हँसी से
ज़रा-सा बुझा दोगी क्या
मेरे जलते होंठों को
जब भी कहोगी तुम
कविता की कॉपी से
निकाल कर दे दूँगा तुम्हें
सुना है आग भी है
तुम्हारी देह के किसी खाँचे में
माँगते हुए शर्म महसूस करता हूँ
जुगनू का हरा
प्रकाश हो, तो भी चलेगा
दो न ज़रा-सा
होंठ जो सूख गया है
प्रियंका बरुआ देखो
कविता लिखना भी हुआ बंद
तुम्हारे कभी के दिए हुए
अंधकार में अब भी
डूब जाती है हाथों की उँगलियाँ
तुम्हारी उस हँसी से
ज़रा-सा बुझा दोगी क्या
मेरे जलते होंठों को
जब भी कहोगी तुम
कविता की कॉपी से
निकालकर दे दूँगा तुम्हें
विज्ञानसम्मत कीर्ति
पंखा टाँगने के उस ख़ाली हुक से
गले में नॉयलोन की रस्सी बाँध लटक जाओ
कपाट सटा कर दरवाज़े के पीछे
ऊँची तान पर रेडियो चला कर झटपट
साड़ी-साया-क़मीज़ खोल कर स्टूल के ऊपर
खड़े होकर गले में फाँसी की रस्सी पहन लेना
सारी रात अंधकार में अकेली लटकती रहना
आँखें खुलीं,
जीभ बाहर निकली हुई
दोनों ओर बेहोश दो हाथ और स्तन
जमी हुई षोडशी के शून्य पाँव के नीचे
पृथ्वी की छुआछूत से परे जहाँ
कई पुरुषों के होंठों ने प्यार किया है जिसे
उस शरीर को छूने में डरेंगे आज लोग
लटको, लाश उतारने के लिए हूँ मैं…
धनतंत्र का विकास-क्रम
कल रात बग़ल से कब उठ गई
चुपचाप अलमारी तोड़कर कौन-सा एसिड
गटागट पी कर मर रही हो अब
उपजिह्वा गल चुकी है दोनों गालों में है छेद
मसूढ़े और दाँत बहते हुए दिख रहे हैं चिपचिपे तरल में
गाढ़ा झाग, घुटने में हो रहा है ऐंठन से दर्द
बाल अस्त-व्यस्त, बनारसी साड़ी-साया
ख़ून से लथपथ, मुट्ठी में कजरौटा
सोले से बना मुकुट रक्त से सना रखा है एक ओर
कैसे कर पाई सहन, नहीं जान पाया
नहीं सुन पाया कोई दबी हुई चीत्कार
तो क्यूँ सहमति दी थी गर्दन हिलाकर
मैं चाहता हूँ जैसे भी हो, तुम बच जाओ
समग्र जीवन रहो कथाहीन होकर
मलय रॉय चौधुरी भूखी पीढ़ी आंदोलन और अकविता के दौर के प्रमुख बांग्ला कवि-आलोचक हैं। सुलोचना सुपरिचित रचनाकार-अनुवादक हैं। उनकी रचनाएँ और अनुवाद-कार्य हिंदी और बांग्ला के प्रतिष्ठित प्रकाशन-स्थलों पर प्रकाशित हैं। उनसे verma.sulochana@gmail.com पर बात की जा सकती है।
वाह सुलोचना
बहुत सुंदर कविताएँ और क्या अनुवाद। बार बार पढ़ा।
वास्तवमे यह सुलाेचनाजीका स्तुत्य कर्म है । वह ताे चाैधरीजी हरेक मानवीय साहित्यिक अान्दाेलन में सरीक हाेनेवाला सचेत कवि है । उनका कवितामें समाज अाै समय भलिभाँती छाया जाता है । उनका यह कविता पढाकर हमें जाे अानन्द मिला उसके लिए सुलाेचनाजी एमव सदानीराप्रति बहुत बहुत शुक्रिया … … …