नीरव पटेल की कविताएं ::
गुजराती से अनुवाद : मालिनी गौतम
नामशेष
किस शैतान शिल्पी ने जन्म लेते ही
गोद दिया है मेरा नाम मेरे माथे पर
वृक्ष के तने की छाल में कुरेदते हो इस तरह
मेरी रक्तवाहिनियों में चाकू डुबो-डुबो कर
तुम क्यों मेरी संज्ञा को खोदते रहते हो?
मैं तो भूल ही जाना चाहता था अपना नाम
इसीलिए तो एक बार आधी रात को
घर-गांव छोड़कर निकल भागा था शहर की ओर
यहां आकर मैंने
मेरे नाम का स्तुतिगान करने वाली झाड़ू के डंडे पर फहराया था
इंकलाब का ध्वज
मेरे नाम की रचना करने वाले एक-एक अणु को
मैंने पिघला दिया है यहां के कास्मोपॉलिटन कल्चर के घोल में
मेरे नाम की केंचुली उतार कर
मैं किसी अनाविष्कृत तत्व की तरह
बन गया हूं निर्मल और नवीन
माइक्रोस्कोप की आंख भी अब मुझे नहीं पहचानती
पर गिद्ध जैसी तुम्हारी आंख की चोंच
क्यों बार-बार मेरे नाम के मुर्दे शरीर को कोंचती रहती है?
अरे, मुझे तो भय है कि
मेरी चिता के साथ भी क्या नहीं मरेगा मेरा नाम?
फुलवारी
हुकुम हो तो सिर-माथे पर
लेकिन फिर फूलों को क्या कहेंगे?
महक थोड़े ही मर जाएगी?
और इनको फूल कहेंगे?
गंध थोड़े ही खत्म हो जाएगी?
गांव होगा वहां फुलवारी तो होगी ही
ये फूल सदियों से अंधकार में सड़ रहे थे
कभी चांदनी रात नसीब होती तो कुमुदनी की तरह पनपते
कभी रातरानी की तरह चुपके-चुपके खुशबू फैलाते
कभी छुईमुई की तरह चुपचाप रोते
लेकिन इस सदी के सूरज ने जरा दया-दृष्टि की
इसलिए टपाटप खिलने लगे
रंग तो इनका ऐसा निखरा कि तितलियों को भी प्रेम हो जाए
सुगंध तो ऐसी फैलाई कि मधुमक्खी भी डंक मारना भूल जाए
सर्वत्र फैल गई है इन जंगली फूलों की खूशबू
संसद में, सचिवालय में, स्कूल-कॉलेजों में
जैसे इनके उच्छवास से ही
सारा वातावरण प्रदूषित है
यह तो ठीक है कि
गांव होगा वहां फुलवारी तो होगी
पर अब यह फूल-फजीहत ज्यादा सहन नहीं होगी
राष्ट्रपति के मुगल गार्डन में भले ही ठाठ-बाट से रहें ये फूल
पर ये फूल नाथद्वारा में तो नहीं ही रह सकते
गांधी जी ने भले इन्हें माथे पर चढ़ाया हो
कुचल दो, मसल दो, इन अस्पृश्य फूलों को
लेकिन फूलों के बिना पूजा कैसे करेंगे?
इच्छाओं के झूले कैसे झूलेंगे?
भद्र पेट देवता को कैसे रिझाएंगे?
इन फूलों की महक से तो पुलकित है
अपना पाखाना जैसा जीवन
ये तो पारिजात हैं इस पृथ्वी के
रेशम के कीड़े की तरह
खूब जतन से संभालना पड़ेगा इस फुलवारी को
गांव-गांव और शहर-शहर में
इसलिए माई-बाप सरकार का हुकुम हो तो सिर-माथे पर
लेकिन फिर फूलों को क्या कहेंगे?
महक थोड़े ही मर जाएगी?
और इनको फूल कहेंगे?
गंध थोड़े ही खत्म हो जाएगी?
गांव होगा वहां फुलवारी तो होगी ही
अनपढ़ होता तो अच्छा होता
विज्ञान पढ़ते-पढ़ते
न्यूटन का सेब गिरते देख
मुझे पहला विचार उसे खाने का आया था
समूह जीवन का पाठ सीखने जाते समय
हरिजन आश्रम रोड़ पर कांच के आलीशान मकानों को देखकर
मुझे पहला विचार
उन पर पत्थर मारने का आया था
रिसेस में लगती प्यास को दबाते-दबाते
सीवान पर प्याऊ के मटकों को देखकर
मुझे पहला विचार
कुत्ते की तरह एक पैर ऊंचा करके
उनमें मूतने का आया था
सियार घूमते-घूमते शहर में जा पहुंचा
अचानक ही रंगरेज के हौज में गिर गया
रंगीन होने से खुश-खुश हो गया
और जंगल में जाकर राजा की तरह रौब करने लगा
पकड़े जाने पर सीख मिली
—इस विषय के—
एक से अधिक अर्थ निकलते हैं
ऐसी कहानी लिखने के बजाय
मुझे आखिरी विचार अनपढ़ रहने का आया था
पढ़-लिखकर अपमान के प्रति चेतनायुक्त होना
और निष्क्रियता को पोषित करना इसके बजाय
अनपढ रहता तो अन्यायी के सिर पर प्रहार तो करता
या दारू पीकर अपमान का घूंट तो निगल जाता!
मुझे मनुष्य नहीं बनना
जंतु बनकर जीना मंजूर है
मुझे मनुष्य नहीं बनना
मैं कम से कम इंद्रियों में काम चला लूंगा
मैं अमीबा बनकर जी लूंगा
मुझे नहीं चाहिए पंख
मुझे नहीं छूना आकाश
मैं पेट के बल सरकूंगा
सांप या छिपकली बनकर
चाहे आकाश में उड़ जाऊं
घास या रजकण बनकर
अरे, मैं फ्रूजो के टापू पर
फ्राइड बनकर रह लूंगा
पर मुझे मनुष्य नहीं बनना
मुझे अछूत मनुष्य नहीं बनना
मुझे हिंदू मनुष्य नहीं बनना
मुझे मुस्लिम मनुष्य नहीं बनना
***
नीरव पटेल गुजरात के प्रसिद्ध दलित कवि हैं. वह गुजराती और अंग्रेजी दोनों में लिखते हैं. यहां प्रस्तुत कविताएं गुजराती में प्रकाशित उनके कविता-संग्रह ‘बहिष्कृत फूलों’ से ली गई हैं. उनसे neerav1950@gmail.com पर बात की जा सकती है. मालिनी गौतम हिंदी कवयित्री-अनुवादक हैं और गुजरात की दलित कविता पर शोध कर रही हैं. उनसे malini.gautam@yahoo.in पर बात की जा सकती हैं. यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 19वें अंक में पूर्व-प्रकाशित. कवि की तस्वीर Goethe Institut/Bombay Film Factory के सौजन्य से.