मनीषा जोषी की कविताएँ ::
गुजराती से अनुवाद : सावजराज
विलोप
जल-तलस्थित शैवाल में उगी हुई
सुंदर वनस्पतियों में छिप जाने के लिए दौड़ती
मत्स्य-समूह के बीच से
पकड़ लो मुझे, बाहर निकालो
शेर, दौड़ाओ मुझे हिरन की तरह
भेड़िए, नोच खाओ मेरी अंतड़ियाँ
चींटिंयो, उठा ले जाओ मेरे सारे चीथड़े, मांस
जंगल में चहुँओर फैले
भूख के साम्राज्य में
मैं अदृश्य हो जाना चाहती हूँ
फाड़ खाओ मुझे
यही एक रीत बची है
मेरी भूख मिटाने की
जेल
मैं जेल की काल-कोठरी में रखी बर्फ़ की एक सिल्ली हूँ
तेज़ धूप में रखने से भी न पिघले ऐसी ठोस और सख़्त
नित एक नए क़ैदी को हाथ-पैर बाँधकर
मुझ पर लिटाया जाता है
वह बहुत छटपटाता है, पर मुँह से एक हर्फ़ तक नहीं निकालता
और कुछ देर में ही मर जाता है
आख़िर में दूसरे दिन सिपाही उसे उठा जाते हैं
मैं ठंडी, स्थितप्रज्ञ पड़ी रहती हूँ
उसके न क़बूले गए गुनाह मुझमें समा जाते हैं
मैं ऐसी ही अकथ्य, अधिकाधिक ज़िद्दी बनती जाती हूँ
मुझमें से एक क़तरा बर्फ़ भी
पानी बनकर नहीं बहती
कारागृह की फ़ौलादी सलाखों के पीछे
सख़्त पहरे के बीच मैं पड़ी हूँ
जेलर अपना पैर मुझ पर टिका कर, थका हुआ खड़ा है
उसके जूतों की कीलें मुझे नोचती हैं
फिर एक नया क़ैदी आकर मुझ पर लेटता है
मरता है, लेटता है
मरता है, लेटता है…
नरपिशाच
आदमखोर नरपिशाच जैसी भूख लगी है
मन करता है
कि दरख़्त पर बैठे इस अकेले गिद्ध की
प्रेयसी बन जाऊँ
बड़ी, गर्वीली पाँखें फैलाकर
उसके संग अगोचर प्रदेशों में उड़ती रहूँ
और जहाँ भी मृत्यु दीखे वहाँ रुक जाऊँ
कितने सारे क़िस्म-क़िस्म के मुर्दों का भोजन!
और यह एक शव मेरे उस प्रेमी का है
जिसे लाख चाहने के बाद भी पा न सकी थी
जीवन में कभी नहीं था चखा ऐसा
तृप्ति की डकार मिली है मुझे
इस गिद्ध की प्रेयसी बनकर
समयातीत
हिमालय की हिमशिलाओं से पिघल रहा समय
उस एक क्षण में कितना मृत और कितना जीवंत?
उस समय को किस मानदंड से नापूँ?
बर्फ़ीली गुफाओं में बस रहे
पहाड़ी जानवरों के पदचिह्नों में
या फिर पिघलकर बहते पानी में बह गए उनके नवजात बच्चों में?
समय वैसे तो रुक गया था
जब तुमने मुझसे कहा था—
मैं तुम्हें बहुत चाहता हूँ
लेकिन फिर
साथ रहते-रहते
आधी रात को नींद खुल जाती है
और हम जागते पड़े रहते हैं बिस्तर में—
अपने-अपने एकांत में
तभी वह रुका हुआ समय
शयनखंड के फूलदान में सजाए
लिली के फूलों की भाँति
स्थिर नहीं हो गया?
भूखे शेर के पंजों में समा जाता समय
और सूख रहे किसी पोखर के तल में
प्यासे हाथी की फैलाई सूँढ़ में समाया हुआ समय—
समय मिलता है मुझे, विदेह, अनेक रूपों में
लेकिन कभी वह आता है, देह धर
किसी निर्वस्त्र योगी की तरह
भिक्षु बनकर खड़ा रहता है मेरे द्वार पर
और मैं एक शालीन गृहिणी
उसकी देह को ग़लती से भी देख न लूँ
इसलिए परशाल के द्वार की आड़ में
नज़रें झुकाकर
बाहर रख देती हूँ, उसके लिए भोजन की थाली
वह चला जाता है
मुझे ‘अखंड सौभाग्यवती भव, शतम् जीवम्’ आशीर्वाद देकर
और मेरी आँखें भटकती रहती हैं उसके पीछे-पीछे
वह कहाँ पहुँचा होगा अब?
कहीं सोया होगा वह, किसी वृक्ष की छाँव में?
कितना पुराना होगा वह वृक्ष?
क्या वह वृक्ष जान पाता होगा उस निर्वस्त्र योगी के स्वप्न?
उसके स्वप्नों में रहती परिणीताओं को?
युगों-युगों से परिणीत वे शालीन गृहिणियाँ
ताकती रहती होगी काल को
अपने अपने रसोईघर में चूल्हों के पास खड़ी होकर
मैं अपने रसोईघर में उबलती दाल की ख़ुशबू से सराबोर समय को देख रही हूँ
और निश्चित समयांतराल पर दाल में मिलाती जाती हूँ कोकम और गुड़
फिर कभी लौटेगा वह योगी?
या फिर हमेशा के लिए चला गया होगा हिमालय में?
मैं अपने कमरे की ऊष्मा में भी
महसूस कर रही हूँ हड्डियाँ गलाती ठंड
समय फिसल रहा है
मेरे बदन पर से
सर्दियों में रूक्ष होकर गिर जाती त्वचा की तरह
या काल फँस गया है
हिमपशुओं के जिस्म पर बिछी हरी-भरी रूँओं में?
मैं नहीं बाँध सकती समय को
और समय
मुझे नीचे पटक कर
छा गया है मेरे ऊपर
मेरी साँसें फूल रही हैं
पर मुझे पसंद है
उसका मुझ पर होना
***
मनीषा जोषी सुपरिचित गुजराती कवयित्री हैं। यहाँ प्रस्तुत कविताएँ हिंदी अनुवाद के लिए उनके ‘कंदरा’ और ‘कंसारा बजार’ शीर्षक कविता-संग्रहों से ली गई हैं। ‘समयातीत’ शीर्षक अंतिम कविता अभी असंकलित है। सावजराज युवा कवि, लेखक, पत्रकार, अनुवादक और यायावर हैं। गुजरात में कच्छ के लखपत में रहते हैं। उनसे sawajraj29292@gmail.com पर बात की जा सकती है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 20वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।