संदीप शिवाजीराव जगदाले की कविताएँ ::
मराठी से अनुवाद : प्रकाश भातम्ब्रेकर
बाँध के जल-तल में समोयी देहरी की ओर
आँधी-तूफ़ान में भी उठकर खड़े बोसीदा बरगद की तरह
कितनी ही वृद्धाएँ मौजूद हैं गाँव की परिधि में
वे टकटकी बाँधे रहती हैं
हाँफते-कराहते
पूरी जद्दोजहद से इस पड़ाव तक
लाई अपनी गृहस्थी की ओर
पानी में डूबे अपने हरे-भरे अतीत की
जुगाली कर
आँखों की नमी पोंछती हैं
पल्लू के कोने से
बरसों-बरस के इस पराएपन को
कड़वे घूँट की तरह
भीतर ही भीतर जज्ब किए
लहूलुहान घावों की आहें,
पोटलियों में समेटकर लाई गृहस्थी
टूटे-फूटे कनस्तरों, घड़े-मटकियों का
अपना असबाब
अपने घरबार को बाँध के जल-थल में
पहुँचते देखना
गाँव की समूची हस्ती को शीश नवाकर
आख़िरी बार आँखों में समो लेना
नई मिट्टी में पैर जमाने की
पुरज़ोर कशमकश
इस अमूल्य धरोहर के साथ
पल-पल मौत का इंतज़ार कर रही
ज़िंदगी के रू-ब-रू होना…
यही है उनके वर्तमान का सच
उनकी आँखों का पानी थमता नहीं
नमी मिटती नहीं और
नज़र भी धुँधलाई-सी है
किसी की आहट-संवाद से ही
वे महसूस करती हैं उसके सामीप्य को
पीठ कुबड़ा गई है
हाथ की लकुटी का ही सहारा है
फिर भी चलती-फिरती हैं
बाक़ायदा
उनके थके-हारे क़दम
आज भी खींच लाते हैं उन्हें
बाँध के जल-तल में समोए
उनके घर की देहरी की ओर।
कांधे पर ढो रहा हूँ मैं लाश अपने गाँव की
एक
मैंने एक गाँव को दम तोड़ते देखा है
मुर्दा बने एक गाँव से
जीते जी बाहर निकल आया हूँ मैं
नक़्शे पर बनी सर्पिल नीली रेखा
जो कभी गोदावरी थी
मेरे गाँव का जल-जीवन…
उस पर खींची गई आड़ी रेखा
जो पहाडी दीवार बन खड़ी हो गई
तो अब गाँव की साँस घुटने लगी है
आप पिछले किसी भी सफ़हे पर ग़ौर कीजिए
उस दिन देर रात लाल क़िले की प्राचीर से
कबूतर छोडे गए आसमान में
उसके बाद से ही
नदी किनारे बसे गाँवों पर
गाज गिरना शुरू हुआ
मिट्टी से हर तरह सराबोर होकर
उसकी सोंधी महक को
बरक़रार रखने की जद्दोजहद करता रहा मैं
अपने निवाले में से
ढोंर-डांगर, पंधी-परिंदे, कीड़े-मकोड़ों के लिए
दाना-पानी का हिस्सा बचाता रहा
भीषण अकाल के दौर में भी
मुट्ठी-बुकोटा भर दाल-आटा
भूखों-वंचितों को मयस्सर कराता रहा
पसीने की कमाई को सोना
और मुफ़्त की पूँजी को लीद मानता रहा।
दो
तन-बदन से चिपटी-लिपटी धोरारि मिट्टी समेत
ज़िंदा रहने की कशमकश पर
पूरा यक़ीन था मुझे
मुझे पूरा यक़ीन था कि
रात की स्याही यक़ीनन मौत को शह देगी
और गाँव के चूल्हों में आग
बरक़रार रहेगी
किंतु मेरे दादा-परदादा ने
और उनसे भी पूर्व-पीढ़ियों के फ़र्माबरदारों ने
ईंट-रोड़े का जुगाड़ कर
बसाया था जो गाँव
उसने एक आड़ी रेखा की हद में
दमघोंटू सिसकियों-कराहों के साथ
दम तोड़ दिया
लट्टुओं की लक़दक़ रोशनी की गवाही से
मंद-शीतल फ़व्वारों की फुहार में
कईयों को भीगते-मदमाते
देखा है मैंने
तब से सावन-भादों बने मेरे नैन
अभी भी झर रहे हैं
अब दुनिया के किसी भी नुक्कड़-कोने में
अपनी जड़ों की खोजबीन में जुटा
पाएँगे आप मुझे
ऊसर-बंजर पर बनी टपरी तले
पुनर्वसित ‘ड्रीम सिटी’ की मरीचिका में
पुनर्जीवित होने के झूठे सपने सँजोते हुए
गाँव ने भले ही दम तोड़ दिया हो
किंतु वहाँ के बाशिंदे
भला इतनी आसानी से
कैसे मिटने देंगे अपनी हस्ती को!
तीन
यानी मुझे आप कहीं भी
फंदे में झूलता हुआ पाएँगे
क्या आपको लगता है
कि मैं ज़िंदा हूँ?
महज़ धौंकनी चलती रहने से
इंसान ज़िंदा कहलाएगा?
ताउम्र उसे एक जीती-जागती
लाश को ढोना पड़ेगा
ऐसा ही एक इंसान हूँ मैं
अपने जले-झुलसे कांधे पर
अपने ही गाँव की लाश ढो रहा हूँ
डगर-डगर…
एक नोटिस का सच
आप आते हैं
और थमा जाते हैं एक नोटिस
मेरे हाथ में
चंद रूपल्ली दे मारते हैं
मेरे मुँह पर
यह कहकर,
‘यह रक़बा अब हमारा हो गया है
इस पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं रहा’
आप आगंतुक हैं
अपरिचित हैं
आपके चेहरे पर उद्दंडता का भाव हैं
और गर्व भी
तथा बेशर्म बेहयाई भी
मुझे उखाड़ फेंकने पर आमादा हैं
किंतु नहीं जानते आप कि
मिट्टी का जुनून क्या होता हैं!
मिट्टी के संग ओर-पोर
मृण्मय हो गया हूँ मैं
ग्रीष्म में ज़मीन के तप्त होने के दौरान
उस तपिश की झुलसन के
रू-ब-रू होता रहा है मेरा पूरा बदन
वर्षा-ऋतु में बीज अंकुरित होने के दौर में
एक कोंपल उग आती थी
मेरे भी अंतस में
समूचे कृषि क्षेत्र में लहराती पवन
समोयी होती थी मेरी साँसों में
मेरी इस संपूर्ण धरोहर को
क्या अलग कर सकेंगे आप
इस बाँध के पानी से?
ठसाठस हलहलाए भुट्टे में
बराबर का हिस्सा रहता था
पंछियों-परिंदों का भी
इसका हर्ज़ाना कैसे चुकाएँगे आप?
पंछियों की ये आहें
भला चैन से रहने देंगी आपको?
मैं जानता हूँ कि
कपास को
पी.एम. के महँगे लिबास में
आलू को कुरकुरे वेफ़र में
तथा धान की बाली को
बीयर की झाग में तब्दील
करने की फ़िराक़ में
आएँ हैं आप यहाँ
लेकिन पता है आपको?
कि काली माँ की सतह पर
घनी हरी चादर
बिछाया करता था मैं
और उस हरीतिमा को साझा करता था
हर ज़रूरतमंद के साथ
और ऐसा करिश्मा करना
यक़ीनन आपके बस का नहीं।
संदीप शिवाजीराव जगदाले सुचर्चित मराठी कवि हैं। प्रकाश भातम्ब्रेकर सम्मानित मराठी लेखक और अनुवादक हैं। संदीप शिवाजीराव जगदाले से और परिचय के लिए यहाँ देखें : मेरा गाँव पानी में बसता है