कविताएँ ::
जसवंत सिंह

जसवंत सिंह

दोस्ती का घटनाक्रम

एक दिन मैं नाराज़ हो जाऊँगा
इतना नाराज़ कि बातचीत बंद हो जाएगी
तुमसे, तुमसे भी और तुमसे भी

मैं एक-एक करके
सबसे नाराज़ हो जाऊँगा
बिना किसी वजह के
हम एक दूसरे को घूरते हुए
पास से निकल जाएँगे
लेकिन बोलेंगे नहीं
घूरेंगे ऐसे जैसे हममें
वर्षों की दुश्मनी हो
फिर एक दिन किसी जगह पर
जान-पहचान के लोगों के बीच मिलेंगे
और हाथ मिलाते हुए
हाल-चाल पूछेंगे—
नपे-तुले वाक्यों में

फिर सप्ताह दो सप्ताह में
मिलने का सिलसिला शुरू होगा
फिर मिलेंगे
फिर हालचाल पूछेंगे
और एक दूसरे पर
व्यंग्य करते हुए निकल जाएँगे

महीनों तक यही चलता रहेगा
धीरे-धीरे हम इतने अपरिचित हो जाएँगे
इतने अपरिचित कि
जब कोई एक के सामने
दूसरे का ज़िक्र छेड़ेगा तो कहेंगे—
इसे तो मैं भी जानता हूँ
बस इतना…

यह दोस्ती टूटने का घटनाक्रम है
दोस्ती के टूटने का नहीं… घिसने का—
घिसकर ख़त्म होने का

टूटे हुए में जुड़ने की गुंजाइश रहती है
लेकिन घिसकर ख़त्म हुई दोस्ती में
दोस्त दुबारा कभी दोस्त नहीं बन पाते
दोस्तों से बिछड़ने का
यह सबसे बुरा क्रम है
हम इसी क्रम से गुज़रेंगे।

सिलसिला

एक दिन एक लाश
आँगन में पड़ी मिल जाएगी
दूर कहीं छोटे बालोंवाली लड़की
कंघी कर रही होगी
नेता सच्चे वादे कर कर रहे होंगे
एक दिन बहुत कुछ
अस्त-व्यस्त हो जाएगा
और सब कुछ ठीक हो जाएगा
एक दिन अच्छे लोगों से
मिलने का सिलसिला
ख़त्म हो जाएगा।

मातृभाषा

हिंदी मेरी मातृभाषा है
हालाँकि वह मेरी माँ को
समझ में नहीं आती
फिर भी हिंदी मेरी मातृभाषा है

शायद यह मातृभाषा
शब्दों और अर्थों के अधीन नहीं
सिर्फ़ भावनाओं के अधीन है
या फिर मेरी भावनाएँ ही इसमें लीन हैं

हिंदी मेरी मातृभाषा है
फिर भी पहले-पहल स्कूल जाते वक़्त
मैं रो रहा था कि
वहाँ पर हिंदी बोलनी होगी

हिंदी मेरी मातृभाषा है
लेकिन जब अध्यापक सवाल पूछ रहे थे
तब मैं चुप रहा
क्योंकि वह हिंदी में बोल रहे थे
और जवाब देने के लिए
मुझे भी हिंदी में बोलना पड़ता
बहुत बाद में मुझे मालूम हुआ कि
मातृभाषा वो होती है जो पहले-पहल
किताबों में पढ़ाई जाती है
हालाँकि किताबों में अब भी वही लिखा है
जो पहले से सुनते आ रहे हैं
कि मातृभाषा माँ की भाषा को कहते हैं
लेकिन मैंने माँ से नहीं
अध्यापकों से सीखा था
मातृभाषा हिंदी को

हमसे कहा गया कि
वो भाषा मातृभाषा नहीं है
जिसमें बहनें तीज के दिन गीत गाती हैं
वह भाषा जिसमें
मेरे जन्म की बधाइयाँ दी गई थीं
मेरी मातृभाषा नहीं है
वह भाषा जिसमें गाँवों में लोग
एक दूसरे को ओळखाण1पहचान, परिचय। देते हैं
मातृभाषा नहीं कहलाती

मैं मातृभाषा हिंदी सीखते-सीखते
उस भाषा को भूल गया हूँ
मेरी ज़ुबान लड़खड़ाती है
उस भाषा के शब्द बोलते-बोलते
लेकिन मेरी माँ नहीं भूली है
उस भाषा को
मेरी शादी के वक़्त गीत
उसी भाषा में गाए जाएँगे
यहाँ तक कि मेरी मौत के बाद
मेरे चाहने वाले
उसी भाषा में पार खणेंगे2पार खणेंगे (विलाप-रीति)। लेकिन वो भाषा
मेरी मातृभाषा नहीं है।

हमारी मातृभाषा हिंदी है
समूचे राजस्थान की मातृभाषा हिंदी है
यह घोषणा दिल्ली से हुई है
इस बात को हमने मान भी लिया है
क्योंकि दिल्ली से हुई
घोषणा के ख़िलाफ़ बोलना
देश को तोड़ना कहलाता है

मैं यहाँ घर से
सैकड़ों किलोमीटर दूर
मातृभाषा हिंदी पढ़ने आया हूँ
इसलिए नहीं कि
दिल्ली से घोषणा हुई है
बल्कि इसलिए कि
मुझे लगभग मर चुकी
उस भाषा को बचाना है
जिसे मातृभाषा तो नहीं कहते है
लेकिन उसे मेरी दादी बोलती थी
और माँ भी…

कविता

कविता के साँचे में ढला सूरज
पागल नहीं है
वह आग भी उगलता है
और धूप भी

कविता के साँचे में ढले बादल
आँसू थूकते हैं

कविता के साँचे में ढले उदास लोग
सच में उदास होते हैं

कविता चमारों की गली में रहती है
कविता बाजरे की रोटी बनाती
लड़की के पास बैठती है
हाथ से सिली गादी पर

किसी ज़माने में
किसी लड़के ने
किसी लड़की से माँगी
कॉपी लौटाने से पहले
उस पर कविता लिखी थी
—तीन शब्दों में—
तुम
अच्छी
हो


जसवंत सिंह की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह इन दिनों हैदराबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. कर रहे हैं। उनसे jaswantsinghsodha53@gmail.com पर संवाद संभव है।

5 Comments

  1. Bhupendra नवम्बर 22, 2024 at 4:49 पूर्वाह्न

    ❤️

    Reply
  2. Piyush Kumar नवम्बर 22, 2024 at 4:57 पूर्वाह्न

    ❤️❤️

    Reply
  3. Mahipal Dan नवम्बर 22, 2024 at 5:27 पूर्वाह्न

    बढ़िया लिखा हैं भाई जसवंत ! दोस्ती और मातृभाषा दोनों कविताएं अच्छी हैं । बधाई

    Reply
  4. Mahesh tewatiya नवम्बर 22, 2024 at 7:56 पूर्वाह्न

    बहुत उम्दा लिखा है ।।

    Reply
  5. Saif नवम्बर 22, 2024 at 8:10 पूर्वाह्न

    उम्दा कविता

    Reply

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