संदीप शिवाजीराव जगदाले की कविताएँ ::
मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा
मेरा गाँव पानी में बसता है
कोई पूछे नहीं मुझसे मेरा पता
नहीं बता पाऊँगा मैं
किस ठौर था मेरा गाँव
कहाँ से आया हूँ
कितने रास्ते निकल चुके हैं
इन क़दमों के नीचे से
गाँव-खलिहानों तक हहराता आया था पानी
धड़ से ऊपर तक भरने लगा
घबराहट से भागने लगा मैं
जिस-तिस से पूछता रहा
आख़िर मुझे ही किसलिए भगाया गया?
कहाँ है मेरा गाँव?
इस जगह पर कैसे बसाऊँ मैं
अपना घरबार?
हाड़तोड़ मेहनत कर खपता रहा
पत्थरों को बाँध तक लाया
नहर-पोखर खोदे
मेरे घर-द्वार पर से गुज़रा पानी
दूसरों की फ़सलों को पिलाता रहा
पर किसी ने पैर रखने तक की नहीं बख़्शी ज़मीन
कई-कई मोड़ों-पड़ावों से गुज़रकर
चलता रहा अनवरत
किसी मिट्टी ने नहीं लगाया सीने से
ग़ैर बनकर रह गया
इस पानी में
बसी हुई हैं
मछलियाँ
केकड़े
मगरमच्छ
कछुए
और
मेरा गाँव भी
डरा-सहमा रहता हूँ
कोई पूछ न बैठे मेरा पता…
नदी ने खूँटा डाल दिया है मेरे पैरों में
मेरे गाँव को डुबोकर
आगे बढ़ती नदी
पहुँच चुकी है इस गाँव में भी
यह गाँव जो जाना जाता है
सातवाहन, चक्रधर, एकनाथ और ईंट-भट्टियों के लिए
मैं गोदावरी के तट का एक गाँव छोड़कर
आ बैठा हूँ उसी के तट पर बसे इस गाँव में
बरसों से चल रहा हूँ इसके प्राचीन रास्तों पर से
पर यह पराई माटी
मेरे तलुवों से लिपटती नहीं है
मेरे पैर अपने गाँव की धूल को बिसरते नहीं हैैं
किसी श्रद्धालु के द्वारा पात्र में डाली गई
गिन्नी को हज़म कर जाए
उस तरह लील लिया
गोदावरी ने मेरे गाँव को
फिर मैंने कितने हाथ-पाँव मारे कि
जहाँ हूँ वहीं पर तर जाऊँ
जो सामने आया उसे अपनाता गया
सारी जड़ों को भूल चुका-सा मैं
निस्संग होकर बसर करता रहा
पूरी तरह छीले जा चुके तने का पेड़
ठूँठ बनता जाता है धीरे-धीरे
उसी तरह मुरदार बनता गया मैं
पर रक्त में भीग चुकी जड़ों को
कहाँ संभव हुआ
पूरी तरह से खदेड़कर फेंक देना
उगती रहीं वे पुनः पुनः
मैं ढूँढ़ रहा हूँ
शायद कहीं नज़र आ जाए नदी में
मेरे दादा-परदादाओं की राख
पानी को जो यह चढ़ चुका है मटमैला रंग
कहीं मेरी सैकड़ों पीढ़ियों की राख की बदौलत तो नहीं आया होगा?
उन्होंने धोए होंगे नदी में उतरकर
पसीने से तरबतर अपने बदन
तब पानी में उतरी उनकी घुटन
क्या अब भी शेष होगी इस पात्र में कहीं पर?
ऐसे कई अनसुलझे सवालों के झुंड
उग आए हैं मेरे भीतर
हमसे ही किसलिए बैर निकाला?
कहते हुए हज़ारों बार लताड़ा मैंने नदी को
क्या नदी बैर पालती है मन में इंसान के लिए?
नदी ने उम्र भर के लिए
खूँटा डाल दिया है मेरे पैरों में
अब हिलना संभव नहीं है कहीं पर
मन बाँध की तरह
एक ही जगह पर धँसा हुआ है।
संदीप शिवाजीराव जगदाले मराठी की नई नस्ल से वाबस्ता कवि हैं। उनकी कविताओं में विस्थापन की अंतर्वस्तु और तड़प है। उनकी कविताओं की एक किताब मराठी में ‘असो आता चाड’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी है। यहाँ प्रस्तुत कविताएँ हिंदी अनुवाद के लिए इस संग्रह से ही चुनी गई हैं। उनसे sandipjagdale2786@gmail.com पर बात की जा सकती है। सुनीता डागा मराठी लेखिका-अनुवादक हैं। वह मराठी-राजस्थानी-हिंदी से परस्पर और नियमित अनुवाद के इलाक़े में सक्रिय हैं। इस प्रस्तुति से पूर्व उनके अनुवाद में ‘सदानीरा’ पर मराठी कवि श्रीधर नांदेडकर, मंगेश नारायणराव काले और लोकनाथ यशवंत की कविताएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अतिरिक्त समकालीन मराठी स्त्री कविता पर एकाग्र ‘सदानीरा’ के 22वें अंक के लिए उन्होंने मराठी की 18 प्रमुख कवयित्रियों की कविताओं को हिंदी में एक जिल्द में संकलित और अनूदित किया है।
बहुत खूब