सारिका उबाले की कविताएँ ::
मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा
एकवस्त्रा
मैं रजस्वला
बैठी हूँ देह को समेटकर
घर के पिछवाड़े कोठरी में
युगों से प्रतीक्षारत।
मैं अन्नपूर्णा
ऊपर से परोसे पानी के गिलास को
औंधा कर रखा है मैंने
दूर से ही धकेली खाने की थाली
अच्छे से चबा-चबाकर ख़त्म कर
माँजकर रख दी है मैंने
सूखी!
बिस्तर को भी रखा है मैंने
सावधानी से लपेटकर
आते-जाते कोई छूकर भ्रष्ट न हो…
मैं रजस्वला
मैं ध्यान रखती हूँ
मेरी छाँव न पड़े
पापड़-बड़ी-अचार-सेवइयों पर
नहीं जाती हूँ मैं किसी पूजा-पाठ में
छुआछूत कि कहीं अपवित्तर न हो जाए
सब कुछ
मैं पक्का जानती हूँ कि
पिछले जनम के कुकर्मों का ही फल है
यह स्त्री का जनम
मेरे हाथ के स्पर्श से
सूख न जाएँ हरे पेड़
अत: बचती हूँ मैं
आँगन में घूमने से
आज घर में है कोई अनुष्ठान
अतः तीसरे दिन सिर पर
पानी उड़ेला है मैंने।
मैं रजस्वला
मेरे पेट और जाँघों में है
भयावह ऐंठन
पिंडलियों पर उभर आई है
पीड़ाओं की हरी-नीली शिराएँ
पृथ्वी के खिलने से
अंकुर के उगने की उथल-पुथल
और कमर में जानलेवा दर्द।
सिर को ढँक कर
हाथ-पैरों को मोड़े
पड़ी हूँ मैं एक तरफ़
शांत
जैसे भू-माता के पेट में
ग़ायब हो जाए सीता!
मैं रजस्वला
गाती हूँ सृजन का गीत।
भरे दरबार में
आँचल को खींचकर
अंतःपुर से बाहर लाने वाले
ये हाथ किसके हैं?
करुणा
मैं
आदम और हव्वा के
अनुभव के पश्चात की
पाँचवी अनुभूति
करुणा।
मैं
एक भी ऋतुस्राव को
व्यर्थ न गँवाकर
निरंतर फलने वाली
कोख।
मै
पाँच-पाँच पतियों को
सिर्फ़ पुत्र ही
प्रदान करती हुई
एक-वचना मैं।
मैं
नियोग के लिए
आतुर
नपुंसक पति की
एकनिष्ठ पत्नी।
मैं
हर दिन एक ही एक खेल
बिना थके खेलती
बनती हूँ अभिसारिका
पेट की ख़ातिर।
मैं
सोलह सावन का पुण्य
बटोरकर
जलती हुई सती
मैं।
मैं
रौंदती हर छह माह में
अपनी ही कोख का अंश
इसलिए कि
नहीं है पुरुष वह।
प्रसव
आजकल
नहीं मिटते हैं दुःख
कविता को प्रसूत करने के बावजूद।
दर्द के अँधेरे गर्भ में
आसानी से हाथ लग जाती थी कविता
सृजन के सुख से
फीकी पड़ जाती थी वेदना
अब ऊब गई हूँ
प्रसूति को लेकर ही
तुममें समाहित होने की
पागल आतुरता
सिर्फ़ झुलाती रहती थी
फिर यकायक
नज़र आ गए तुम
मेरी संपूर्ण देह में ही।
तुम्हारी आँखें विलसती हुई
मेरी आँखों में
हाथों में हाथ
बरस गए तुम पूरे के पूरे
मुझमें धुआँधार
अब सोचा है मैंने
गर्भ में ही सहेज लूँ तुम्हें
प्रसव-वेदनाओं को झेलते हुए
ताकि खेलते रहो तुम
मेरे अंग-अंग में
नहीं प्रसूत करना है
कभी भी।
थकन
एक
पूरी तरह निचोड़कर रख देने वाली
थकन
अम्लान अम्लान अम्लान!
खुरच-खुरचकर निकाले
कत्थई भूरे टुकड़े
आख़िरी
कूड़ेदान में लाल-लाल
डेटॉल में डूबे
गीले रूई के फाहे।
एक लाल मर्कट
अधखुली आँखों के सामने
दाँत निपोरकर
भयावह ज़ोरदार तमंचा पीटता हुआ
चाबी के ख़त्म होने तक।
एक
रैपर में लिपटी
आँखों को मिचकाती
गुलाबी गुड़िया।
अधसिले
लाल-हरे
मुलायम बिछौने का धागा
मैं उधेड़ती रहती हूँ चोंच से।
चीर-फाड़ कर काटा गया गर्भाशय
रिसता रहता है अविरत
उस मटमैले-लाल
अजस्त्र प्रवाह में
तैरती पृथ्वी को
एक हाथ से तौलकर
मैं थूकती हूँ
व्यवस्था के मुँह पर
अब कभी भी…
कुछ भी…
नहीं जनने का निश्चय करते हुए।
वलय
कुहासे का
एक शुभ्र वलय बनकर
तुम जाती रहती हो ऊपर-ऊपर
घरों के धुएँदान से
ऊपर और ऊपर।
तुम्हारी देह के सभी व्रण
मेरे पास रखकर
तुम विलीन होती हो नीले बादल में
तुम विलीन होती हो सफ़ेद बादल में
तुम विलीन होती हो सघन
श्यामल मेघ में
पर नहीं बरसती हो तुम
मात्र घूमती रहती हो जड़ता से
प्रसव-पीड़ा को सहती हुई
जाती रहती हो दूर-दूर
अब क्या होगा इस
वीर्यवान पुरुष का?
कई वर्ष हो गए
नहीं मिलती है
एक भी सुरक्षित गुफा
कई वर्षों से नहीं उतरता है
मेरा कैफ़
चलो अब मैं नकारता हूँ
यह बाज़ी-बाज़ी का खेल
खिड़कियों के सभी घर हुए तुम्हारे
अब तो आ जाओ
और मेरे पास हैं जो
तुम्हारे ज़ख़्मों के निशान
ले जाओ फिर से।
ग्लोबल
तपती धूप में
जलता हुआ पलाश
करता है इशारे
उसके पास जलकर बुझी हुई
मेरे सपनों की राख
बचाए रखने के लिए शायद।
कहते हैं कि
राख से निकलता है
फ़ीनिक्स
पर
सभी चिड़ियों-परिंदों का
कौर पचाया है
इन गगनचुंबी टॉवर्स की
पाशविक तरंगों ने
राजहंस के उगले
रत्नहार की तरह
थोड़े ही होता है
सभी का नसीब?
चार पैर और
पंख हैं ऐसे सभी
धीरे-धीरे
समेट रहा है आकाश
अपने भीतर
और यह दरारें पड़ी
ज़मीन भी है तैयारी में
बचा हुआ सब
अपने में समा लेने को।
निष्णात
होती है एक कली
हरे-हरे सावन की
मुलायम-सी मलाई
होती हैं उसकी
बिल्लौरी आँखें
आसमान में घूमती
होती है एक मशीन
साँसों को गिनने वाली
उसे समझती है
साँसें उसकी
होता है एक इंज़ेक्शन
सिर्फ़ कलियों को ही
चुनने वाला
और
और होता है एक शस्त्र
साँसों को
रक्त-मांस को
हज़ारों टुकड़ों में
बदलने वाला
होता है एक डॉक्टर
निष्णात निपुण
ढीठ
निर्लिप्त
उसी तरह एक
डॉक्टरनी भी
बड़ी कुशलता से
सब साफ़ करती है
हाथों से!
सूनी दुपहरी में मैं
गुज़रती है दूर से
एक मोटरसाइकिल
दाएँ से बाईं ओर
या बाएँ से दाईं ओर
दूर से ही सुनाई देती है
उसकी आवाज़—
कुछ अस्पष्ट-सी…
सुनाई देती है
घर की घड़ी की टिकटिक—
स्पष्टता से।
भौंकती रहती है
पड़ोस की कुतिया
कई किलोमीटर की दूरी से
आती हुई गंध से
या चुपचाप रास्ते से
गुज़रने वालों पर
यूँ ही बिलावजह।
सारे काम निपटाकर
कोई तो
कपड़े धोने का
आख़िरी काम करते हुए
सुनाई देता
सिर्फ़ चूड़ियों का खनकना
और झाग में कपड़ों को
घिसने की गीली आवाज़
काफ़ी दूरी पर
रास्ते से गुज़रती
पुरानी साइकिल की चेन की
ज़ंग खाई चरमराहट
पड़ोस के घर में
स्त्रियों की आवाजाही
चहल-पहल!
कॉलोनी के
किसी घर के गेट के खुलने की खड़खड़ाहट
सागवान के सूखे पत्तों की सरसराहट।
गोलेवाले की सीटी
और कबाड़ी की आवाज़…
शांत घर में बैठी
सुनती हूँ मैं सब—
सूनी दुपहरी में।
कल रात में
उससे पहले की रात्रि में
दो रातों से पहले की रातों में
और एक माह पूर्व आते
रात्रि के सपने का अर्थ ढूँढ़ती हुई
या फिर वर्तमान के चेहरे पर
बार-बार तुम ही क्यों आते रहते हो—
भूत बनकर…
भविष्य को बैचेन बनाने के लिए!
सारिका उबाले (जन्म : 1977) सुप्रसिद्ध मराठी कवयित्री हैं। ‘कूस’ और ‘शिर:स्नाता’ उनके प्रमुख कविता-संग्रह हैं। उनसे sarikaubale077@gmail.com पर बात की जा सकती है। सुनीता डागा मराठी-हिंदी लेखिका-अनुवादक हैं। उन्होंने समकालीन मराठी स्त्री कविता पर एकाग्र ‘सदानीरा’ के 22वें अंक के लिए मराठी की 18 प्रमुख कवयित्रियों की कविताओं को हिंदी में एक जिल्द में संकलित और अनूदित किया है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 22वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।