योगिनी सातारकर पांडे की कविताएँ ::
मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा

योगिनी सातारकर पांडे

इतिहास रचती जाती है स्त्री

कितना भी उलीचिए
अतीत का कीचड़-कादा
नहीं लगता है हाथ
अस्तित्व का निर्मल तल
न ही दिखाई देता है उद्गम
निर्मम पारदर्शी झरनों का

जीवन-प्रवाह के मूल की खोज में
आदिम होते जाते वक़्त
ज्ञात न हो कुछ भी
हथेली की रेखाओं के अर्थ
उसी तरह गुत्थियों में उलझा
स्त्री का अनाम इतिहास
नहीं दर्शाता है किन्हीं संकेतों को
रूढ़ार्थ से धारा में होने के
उसके उपेक्षित होते जाते वक़्त

सुनाता है वह कुल की कथाएँ
जोड़ता जाता हैं कई-कई संदर्भ
फाल के साथ चक्के के साथ हथियारों के साथ
और बिना किसी उल्लेख के ही
ख़त्म होती जाती है कहानी
भूमि की
चूल्हे की
और कोख की

युग-युग से खटती स्त्री का
प्रसव करते जाते आँचल का
वर्तमान से उसकी नाड़ को तोड़ते हुए
विकास की पदचापों पर
फैला बिखरा-बिखरा
स्त्री के क़दमों का बदहाल भटकाव

उधेड़ती जाती है एहसासों के वस्त्र
अनुभूतियो को भुलाकर
ख़ुद से उगे बढ़े पनपे पेड़ों को
जैसे तकती रहती है ज़मीन
वैसे देखती रहती है स्त्री
कोख से जने पाले-पोसे बच्चों को
आत्मनिर्भरता का उनका सफ़र
पहुँचता जाता है क्षितिज को भी लाँघकर
तब संस्कारों की जड़ों से
पहुँचाती रहती है जीवन-रस
उपेक्षा से भरी
अनुल्लेख से मरी
इतिहास से बेदख़ल की गई
फिर भी

सृजन से
सर्जकता से
सहनशीलता से
कष्टों से
इतिहास रचती जाती है स्त्री!

गहरे-गहरे मेरे भीतर

रूखी बंजर ज़मीन में
गहरे भीतर रिसती जाती है नमी
ऐसा ही कोई एहसास
मन के भीतर
अतल गहराइयों में

कहना चाहती हूँ मैं कुछ
बहुत पहले गुज़रे किसी समय की
एकांत की त्वचा पर घोंटी
दिनों के स्पर्श की एक लिपि
पर इस शहर की निर्लेप भीड़ पर
उठती भी तो नहीं
एकाध खरोंच
खोए हुए दिनों के निश्वासों की

नीले आसमान का एक कौर-सा टुकड़ा
कहाँ पर्याप्त होता है वर्तमान को मुट्ठी में लेने के लिए
और खुलती-झपकती जाती है कब से
मन के भीतर कोई एक खिड़की

नहीं संभव है अब रोकना अधिक समय तक
उफान मारता हुआ ऐसा कुछ
और आँखें भी तो अभ्यस्त नहीं हैं
अब किसी उजाले की
तो फिर यह तपती हुई धूप
क्या कर रही है यहाँ पर?

झुलसकर ये जड़ें धँसती जाती हैं
गहरे-गहरे मेरे भीतर
विश्राम के लिए ढूँढ़ती हुई-सी कुछ

नासमझी की किशोर उम्र में
गुम हो चुके सपनों को
तलाशती होंगी वे शायद।

मूक ठस्स अँधियारे में

किसे बताएँ उँगलियों पर भूले से रह चुके
तितलियों के रंगों के बारे में
किससे कहें चौराहे से गुज़र रहा था
दयनीय-सा एक बच्चा
रास्ते के बीचोंबीच लावारिस कुत्ते को लगी जानलेवा टक्कर
और अपनी ही धुन में दौड़ती गाड़ियों की क़तार
किसे दिखाएँ
चटकती धूप से झुलसे ठूँठ हो चुके पेड़ का अनाम दुःख
किससे बतियाएँ
किससे साझा करें बेहद पीड़ा से चुभता कुछ
शब्दों से जो रिसता जाता

किसे आवाज़ दे बुलाएँ समझाएँ सब
कब से बतिया रही हूँ फिर भी कोई आता नहीं है क्यूँ
शब्द निकलते नहीं हैं या विलीन हो जाते हैं बीच में ही
कान सुन नहीं पा रहे हैं या बने हुए हैं ऐसे ही
क्यूँ नहीं सुने जा रहे हैं शब्द आस-पास के कोलाहल में

पसीने से तरबतर जग उठी हूँ
तो उठती है कलेजे में जानलेवा धड़कन
कमरे में फैले मूक ठस्स अँधेरे में
मध्यरात्रि में…

दुःख : कुछ संदर्भ

एक 

जीते रहते हैं हम
दुःख की काली छाया को
जीवन भर
अपने साथ पाले हुए

कितना भी क़ैद कर लो
उसे तलघर में
पता होता है उसे
सुख की गुहा से बाहर पड़ने का
खुल जा सिमसिम का मंत्र

कितना भी दफ़ना दो गहरे तल में
खरोंच उठती रहती ही है दुःख की
किसी राजकन्या को चुभते
सात गद्दियों के नीचे दबे बाल-सी

कितना भी दबाकर रखिए
हरे-भरे दुःख को जीवन की किताब में
नहीं तब्दील होता है वह
सुख के पीपल के सुनहरे जालीदार पत्ते में

कितना भी सोचिए कि डूब जाए दुःख
नहीं नज़र आता है कहीं से भी
कोई बरमूडा ट्रैंगल
मिटा दे जो जड़ से दुःख को

दो

दुःख तो होता है हरियाली
नहीं होती है नष्ट जिसकी जड़ें
अमरता का श्राप लिए
उग आता है पुनः पुनः

दुःख होता है पेड़ बरगद का
साँसों की बरोहों से
अतीत को वर्तमान बनाकर
जन्म लेता है पुनः पुनः

दुःख है रात्रि
गुज़ारे नहीं गुज़रती
अस्तित्व के दोलक से
जगती पुनः पुनः

तीन

दुःख होता है
रास्ते किनारे का निरीह जीव मासूम-सा
अनाथालय का अनाश्रित बचपन सूना
सफ़ेद अकेलापन जवान विधवा का
मरणासन्न बुढ़ापा वृद्धाश्रम का

चार

दुःख
कितना भी सहिए
कितना ही छीलिए
खरोंचिए
नकारिए
लहूलुहान कर खोजिए
फिर भी
कण-कण में व्याप्त होकर
बचा हुआ एक शाश्वत सत्य

पाँच

दुःख
बाँधना है मुझे शब्दों में
उतारना है काग़ज़ पर
और देखना चाहती हूँ मैं
क्या कविता भी पालती होगी
दुःख की काली छाया शब्दों के साथ?

योगिनी सातारकर पांडे (जन्म : 1980) सुपरिचित मराठी कवयित्री और स्तंभकार हैं। उनका एक कविता-संग्रह ‘जाणिवांचे हिरवे कोंभ’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। उनसे yoginisatarkarpande@rediffmail.com पर बात की जा सकती है। सुनीता डागा मराठी-हिंदी लेखिका-अनुवादक हैं। उन्होंने समकालीन मराठी स्त्री कविता पर एकाग्र ‘सदानीरा’ के 22वें अंक के लिए मराठी की 18 प्रमुख कवयित्रियों की कविताओं को हिंदी में एक जिल्द में संकलित और अनूदित किया है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 22वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।

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