प्रमोद सर की कविताएँ ::
ओड़िया से अनुवाद : सुजाता शिवेन
प्रत्युत्तर
मुझसे मेरे निस्सत्त्व ख़ालीपन की संज्ञा मत पूछो
मैं तुम्हारी प्रिय परिपूर्णता की क्लांति का बखान करूँगा
मुझसे मेरे नीले एकाकीपन का कारण मत माँगो
मैं तुम्हारे काले कोलाहल का परिचय दूँगा
मुझसे झड़ गए सपनों के शब्द मत पूछो
मैं हरसिंगार का रक्त दिखाऊँगा
मुझसे हार जाने का दुःख मत पूछो
मैं जीत जाने का इतिहास दूँगा
मुझसे मेरे अंहकार का मूल्य मत माँगो
मैं तुम्हारी झूठी चापलूसी का पसीना पोंछ दूँगा
मुझसे अपनी क्षमता की योग्यता मत माँगो
मैं अपने अक्षम अंहकार की कविता लिख दूँगा
मुझसे मेरी लाचारी का हिसाब मत माँगो
मैं बेहिसाब ऐश्वर्य का द्वार दिखा दूँगा
मुझसे मेरे प्रियतम नीरवता की पंक्ति मत माँगो
मैं अपरिपक्व ईश्वर की लाज दिखाऊँगा
तुम क्या जानना चाहते हो,
प्रिय बंधु!
किस साम्राज्य के दुःख का स्थापत्य
देखना चाहते हो!
सुनो!
भाग्य कभी खड़ा नहीं होता है
कठघरे में, चाहता नहीं
किसी का तर्क और स्वगत-कथन की प्यास
क्योंकि वह ख़ुद ही ढकेल देता है
औचित्यहीन विचार का जहर और अमृत!
लादकर चलता
एक दिशाहीन न्यायाधीश का जीवित शव
अंधा अविवेकी अनचाहा अवशेष!
जो अब तक बंकिम
और हमारे सारे असमर्थ सपने लेकर
टाँग देता है फाँसी पर
खेलता जाता
अपने अंतहीन प्रभुत्व का
वीभत्स नाटक!
मुझसे मेरे दुर्भाग्य का कारण मत पूछो
मैं तुम्हारे लाड़ले सौभाग्य का ख़ालीपन दिखाऊँगा
मुझसे मेरे दुःस्वप्न का आंतक मत पूछो
मैं तुम्हारे संभ्रांत सुस्वप्न का बचपना दिखाऊँगा
श्रावणी चाँद की पुकार
घनघोर बरसात की रात में
दीप एक जलाकर
किसे ढूँढ़ रहे हो कवि?
चुपचाप कविता में
उकेरते जा रहे हो किस निरीह दुःख का चित्र?
किस उदास फूल की महक में विभोर हो
किस नीरवता में पकती आ रही है रात
किस आहत बाँसुरी से बहता आ रहा है रक्त!
किसे ढूँढ़ रहे हो कवि!
किसे? किसे?
पूरी रात सपने के साथ जूझने में
तुम्हारे हाथ और पाँव में लगे हैं
जो रक्त के छींटे, उससे छुटकारा कहाँ है कवि!
श्यामल नीरवता के अबोध्य आकर्षण से कहाँ है मुक्ति!
और चाहे जो करो,
लहूलुहान होकर बटोरी गई
गिट्टी में से मत ढूँढ़ो उदासी
सुबह-सुबह जुटाए हुए हरसिंगार को
आधी रात को नदी की धार में
बहा मत दो…
निशार्ध में खिड़की खोलकर
श्रावणी चाँद को दी आवाज़ का
कहाँ है जवाब!
छुप-छुपकर बादलों की ओट से
वह पुकारेगा ही
प्रतीक्षा का टीका लगाकर
तुम चलना आगे की ओर…
और फिर चितकबरा
अँधेरे-उजाले का खेल
तैयार कर देगा तुम्हारे लिए नया सन्नाटा
जो तुम्हारी बाँसुरी की है फ़सल
घनघोर बरसात की रात में
दीप एक जलाकर
किसे ढूँढ़ रहे हो कवि?
किसे? किसे?
एक अपरिचित की आत्मकथा
जाओ मत
बैठो!
तुम ही सुन पाओगे
मेरे ग़ुस्सैल आत्मा की अंतिम अभिलाषा
मेरे सोए स्वप्न—मेरे पीड़ित अफ़सोस
पूछो मत मेरी कुशलता की ख़बर
देखो मत मेरे हाथों में लगे हुए
सूखे ख़ून के दाग़
हो सके तो सुनो!
मेरे अपरिचित,
रात की शीतल अस्पष्ट आवाज
पत्थर में रुक-रुक कर सुनाई देता
मेरे एकांत रुदन का अंतिम असमय
नहीं—बिल्कुल भी दुःखी नहीं हूँ मैं
कब से फेंक चुका हूँ पश्चाताप का मोह
ख़त्म हो चुका है आत्मा से विराग या अनुराग
सुनहरी शांति में सोते हुए सजा रहा हूँ विदेशी का घर
जोड़ना सीख रहा हूँ टूट गए पंछी का पर,
इतना कि मैं पहचान पाया हूँ मेरे बीते हुए कल की गोधूलि
ऊष्म ख़ून—माँ का रोना
मेरे आत्मीयता की असंबद्ध आयु
मेरे परम आत्मीय की हँसी और रंगोली…
मैं देख चुका हूँ कारागार के आसमान से
जगमगा रहे तारों को
दुपहर में समंदर से अरबियन छुरी की धार नहीं
बह रही है कोमल सूरज की नीली शीतल धारा
मैं पार कर चुका हूँ तुम्हारे अभिनय की देहरी
तुम्हारे पुनर्जन्म का विभूषित धोखा-मोह
मैं पार कर चुका हूँ तुम्हारे ईश्वरीय अवशेष
खुलकर दिख रहा है मुक्त जीवन का अंतहीन शोक
मैं जानता हूँ तुम्हारे सामर्थ्य की सीमा
और मेरी असीम अभिलाषा
मैं जानता हूँ तुम्हारे अहंकार की अखंड गरिमा
और मेरी निरीहता का नम आर्द्र इतिहास
चुंबन एक दोगी!
उससे पहले खोल दो अपने गले में झूल रहे
क्रूस का अंहकार
शरीर से बाक़ी बचे सफ़ेद आवरण
बाँधो मत झूठे आँसू की ज़ंजीर अकारण
याद रखो!
हम सभी के गले में है फंदा
सभी हैं क्रीतदास
सभी अपराधी
सभी शापग्रस्त
सभी छोटे बच्चे
सभी अपरिचित…
कठघरा सच है
आसमान के विविध रंग भी सच
बह रहा शीतल समुद्र भी सच
अतीत में आभूषित पुनर्जन्म सच
हृदयहीन नहीं हूँ मैं
हो सके तो एक बार आत्मा का आलिंगन दो
रक्त की गाँठ डालकर चुंबन एक दो!
सुनो!
उन्मुक्त पृथ्वी का एक बूँद अमृत
सोख ले सकता है कारागार जीवन के
एक युग का ज़हरीला भंडार
अपनी परछाईं को देख सकने का अद्भुत साहस
खोल दे सकता है अंतहीन जीवन का क्षणिक शाश्वत
उदास साँझ की सीमा पर लौट सकती है आलोक की दिशा
विषण्ण चेहरा पार कर सीमाबद्ध जीवन की असीम आकांक्षा
बंदीगृह, कठघरा, पक्षियों कि चहचहाहट
यही है हमारे जीवन की आख़िरी दशा
साथी बंधु अपनी परछाईं अपना अकेलापन
अंतिम यात्रा की राह में अकेला भरोसा!
कृतज्ञ मैं,
अभिलाषा क्या है पूछ रहे हो
सुनो!
उज्ज्वल पृथ्वी चाहे अँधेरों से हो घिरी हुई
अनन्य जीवन एक निरीह और दुःसाहसी
अपरिचित समुद्र का किनारा—परिचित आत्मा का कमरा!
इस कविता की पृष्ठभूमि में अल्बेयर कामू का उपन्यास आउटसाइडर है।
नष्टनीड़ की आत्मकथा
घरोंदे के टूट जाने से
पंछी कभी उदास नहीं होता बंधु
जहाँ भी हो, टहनी में या आकाश में
पंछी… पंछी ही रहता है
पूरा दिन पूरी रात
आँखों में आसमान लिए
गीत गाता रहता है
चोंच में चोंच भर चुप्पी लिए
एक बार कुहु की पुकार लगाई है जिसने,
तूफ़ानी रात में टूटे नीड़ की याद में
वह बुलाकर ला सकता है
छोटे शावक की नींद
पर याद रखो
सुबह से पहले
वह खोज चुका होगा पूर्वराग
खोज चुका होगा पथ और प्रतिश्रुति
कंपित होंठों से
तुम्हें जगा देने का
अनाहत नाद!
आज तक तुम जिए जा रहे हो
जो अवरुद्ध अभिजात्य
जो सुरक्षित भविष्य
ढूँढ़ते जा रहे हो जिस सुरक्षित
दूरी की संज्ञा
गढ़ते जा रहे हो जिस घिसे हुए
परिचय की प्रामाणिक साँझ
वहाँ कैसे नाप सकते बंधु
तुम्हारी दीवार के उस पार
उड़ रहे पंछी का मोल
तुम्हारे विकृत विलास के बंद पिंजरे को लाँघकर
सुन पाते कुहु… देख पाते फूल!
तुम क्या समझ पाओगे
नष्टनीड़ पंछी की आसमानी उड़ान
पतझड़ की ऋतु के बाद
कैसे खिल उठता है
तोते के रंग के पेड़ का
पुष्पित पवन!
तुम क्या सुन पाओगे
चुपचाप रो रहे
तुम्हारे पंछी का अंतिम राग
आख़िरी शब्द की निरीह प्रार्थना!
किस पर व्यंग्य कर रहे हो बंधु—
पंछी को!
फूल को!
स्वप्न को!
शब्द को!
नीरवता को!
याद रखो—
तुम्हारे लिए जो पागल का उद्भट प्रलाप है
मेरे लिए वह ईश्वर से ज़्यादा सच है
तुम्हारे लिए जो जली हुई ज़मीन का मोल है
मेरे लिए वह ज़िंदा रक्त का फूल है
तुम्हारे लिए जो असर्मथ पंछी का उजड़ा हुआ नीड़ है
मेरे लिये वह हरियाला सुंदर घर है
तुम्हारे लिए जो विलोप का कारण है
मेरे लिए वह संभावना का सेतु है
जीवन कभी भी जल नहीं जाता है बंधु
पूजा में नहीं लगने से फूल कभी बरबाद नहीं होता
जहाँ भी हो, पानी में या कीचड़ में
फूल… फूल ही रहता है
स्वप्न और महक ही देता है
नष्टनीड़ को देखकर
पंछी कभी उदास नहीं होता बंधु
जहाँ भी हो टहनी में या शून्य में
पंछी… पंछी ही रहता है
पूरा दिन पूरी रात
आँखों में आसमान लिए
गीत वह गाता रहता है…
कविता का मान
जानता हूँ
उद्धत ईश्वर की मुट्ठी में से
फंदा निकाल नहीं सकती है कविता
कि ठंडी साँस के घेरे को तोड़ नहीं सकती है,
विस्फुरण को दबा नहीं सकती
कि लकड़ी का एक टुकड़ा लेकर
रोटी सेंक नहीं सकती,
पर निरीह ईश्वर की मुँदी आँखों से
ख़ून की धारा बहा सकती है
रोते हुए ठंडी साँस के
सपने को बचा लेती है
जल चुके शव के हाथों में
फूल का गुलदस्ता देती है
सिंकी हुई रोटी के टुकड़े को
बाँटकर खाने की कला सिखा देती है
जीने के नाम पर
हम अब तक बोते जा रहे हैं
जिस ज़हरीले पेड़ की पौध को
कविता उसी पेड़ का आँसू है बंधु
खाने के नाम पर
हम छीन लाए हैं
जिस भूखे शिशु का रोना
कविता उसकी फुसफुसाहट है
भूख के नाम पर
हमने फेंक दी है
जिस पगली लड़की की साड़ी
कविता उसकी ही आँख का
एक गुच्छा स्वप्न है बंधु
यह देखो,
वीरान पेड़ की टहनी पर
कैसे कबूतर एक विलाप कर रहा है
घनी गहरी वीरान रात में कैसे अधीर होकर
श्रावणी वंशी बजा रहा है
प्राची नभ का चाँद पहनकर
पीलक पंछी
आम की डाल पर बैठा है
नदी किनारे श्मशान की सीमा पर
नागचंपा खिला है
हम बात कर रहे हैं
और ग़ुस्से और उदासी में से
निकल आ रहा सन्नाटा एक
जाने किस प्राचीन काल से
‘आ…’ ‘आ…’ कहकर पुकार रहा है!
महाकाल के भँवर के भीतर
कविता हमें राह दिखाती है बंधु
रो सकने का छंद सिखाती है
आधी रात को कच्ची नींद से उठकर
बचपन को पुकारने की भाषा सिखाती है
अनजाने, अनसुने जंगली चौराहे पर
एक-दूसरे से मिलकर
हँस सकने का साहस सिखाती है
आगे ही आगे
बढ़ चलने का सपना सिखाती है…
उठ सकोगे बंधु
इस घिर आए
सन्नाटे को पराया कर
कोलाहल की ओर जा सकोगे?
मैले श्मशान की भूमि पर
भूत नाच में मशगूल रहकर
बिता सकोगे रात?
हमारे पीछे के
अँधेरे कुएँ में
दोनों पत्तों को खोलकर खड़े
छोटे उस पौधे को
उखाड़ पाओगे?
कविता बिना जीवन कहाँ है बंधु!
तारा बिना कहाँ है आकाश!
संगीत के बिना पंछी कहाँ!
फूल के बिना बाग़ कहाँ!
स्त्री बिना पुरुष कहाँ!
फिर भी तुम
कविता के बारे में
बात नहीं करोगे, कहते हो!
हमारे आबाद होने की
आख़िरी निशानी को
मिटा देने को कहते हो!
***
प्रमोद सर (जन्म : 7 नवंबर 1968) ओड़िया भाषा के प्रसिद्ध कवियों में से एक हैं। उनके आठ कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनसे sakalsindur@gmail.com पर बात की जा सकती है। सुजाता शिवेन सुपरिचित अनुवादक हैं। उनसे sujata.shiven@gmail.com पर बात की जा सकती है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 20वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।