कविताएँ ::
समृद्धि मनचंदा
बहरा
बहत्तर गूँगी कविताएँ
मेरे कंठ में मकड़जाल बना
उल्टी लटकी हैं
अंदर इतने सनाट्टे के बावजूद
मेरी भाषा का
एक-एक शब्द बड़बोला है
इतना कुछ कह सकने के बाद भी
हम समझ नहीं पाते
समझा नहीं पाते
अपनी आँखों की तोतली बोलियों से
जस-तस कर अर्थ जुगाड़ते हैं
सच! हम बहरे हो चुके लोग चीख़ते बहुत हैं!
आपदा
प्यारी लड़की…
तुम्हारे पास अधिकतर
दो ही विकल्प होंगे
लड़ना या चुप रह जाना
तुम कोई भी चुनाव करो
भीतर कुछ मर जाएगा
जेठ
क्या पता? शायद जेठ की
इस मंथर दुपहर में
तुम किसी रूईदार ख़्वाब में
देख रही हो मुझे
जब मैं
ठोस पसीने में
दबा जा रहा हूँ
तुम्हारा ख़्वाब
मेरे होने की सबसे महफ़ूज़ जगह है
वहाँ फूल लगते हैं मुझ पर
ज़ंग नहीं लगता जान!
त्रिशंकु
कितने ही द्वार
बड़े उद्गार से
तोड़कर निकले
तंद्रा नहीं
हम भँवर थे
सब झकझोर कर निकले
न ज़मीन मिली
न नभ अपना
हम त्रिशंकु संसार छोड़कर निकले
पिंजरे
ओ पगली लड़की!
तुम पिंजरे की नहीं
जंगलों की हो
स्थिरता नहीं उत्पात चुनो
अपनी माँओं को जन्म दो
बेटियों को रीढ़
कोई पर्यावरणविद् कभी नहीं बताएगा
कि एक ज़िद्दी लड़की
दुनिया का सबसे लुप्तप्राय जीव है
समृद्धि मनचंदा की कविताएँ कहीं प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। वह दिल्ली विश्वविद्यालय से शिक्षा और समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर हैं। कुछ वर्ष दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस कॉलेज में पढ़ाने के बाद वह इन दिनों एक स्कूल में अध्यापिका हैं। उनसे samridhi.manchanda@gmail.com पर बात की जा सकती है।
त्रिशंकु और पिंजरे।
यह ऊर्जा कुछ अलग है। सदानीरा तक आना व्यर्थ नहीं जाता।
अच्छी लगीं , समृद्धि मनचंदा की कविताएं..
सदानीरा पर और पढ़ने की उत्कंठा हुई ..
Tumhari udan ko Mera salam……
Tum pinjare ki nahi jangalo ki ho…..
आपदा और पिंजरे! बहुत पसंद आयी। समृद्धि मै’म को बहुत शुभकामनाएँ