अर्जुनदेव चारण की कविताएँ ::
राजस्थानी से अनुवाद : राजेंद्र देथा
तुम कब जीवित थीं
तुम कब जीवित थी मेरी माँ
मेरा पिता ले आया पराई स्त्री!
और तुम्हारा ‘पत्नी’ होने का भ्रम
टुकड़ों की भाँति बिखर गया
तुम तो उसी दिन मर गई थी माँ
माँ! तुम्हारा आत्मज,
तुम्हारी छाती पर
पैर रखता आया
अपनी पहचान को लेकर
अब वह अपरिचित मुद्रा में है
पहचान जो पाई थी तुमसे
माँ तुम्हारी मृत्यु
एक युग का अंत है
जुड़ी हुई कड़ियों को
टूटती हुए देखने हेतु
आँख तो थी
मगर दृष्टि नहीं थी माँ!
तुम्हारा घर
पति की आँख में बसता था
और वह जब चाहे फेर लेता था
अपना मुख
छीणों के नीचे कटी ज़िंदगी
उसको घर मत कह माँ
घर तो एक नाम है भरोसे का
जो मंडप में बैठते उपजा था
तुम्हें तो ले आए थे
अर्थी उठने तक के लिए।
माँ तुम जीवित कब थी?
इंतज़ार
मुँह से पेट तक पसरा मनुष्य का भूगोल
कौओं और हंस की अंताक्षरी में
उलझाए बैठा है अपने मार्ग के चिह्न
सड़क पर मज़दूरी के लिए ठेले का लगना
तुम्हारे शहर की सुंदरता पर कालिख लगाता है
और इसी कारण तुम्हारा हुक्म गूँजने लगता है—
पेट के पट्टा बाँधो!
तुम ही बताओ—
क्या तुम्हारी परिधि में
दो वक़्त की रोटी खाना अपराध है?
अपमानित मत कर न्याय को
तुम्हारे दरबार में न्याय मात्र
बिजली का एक लट्टू है
जिसका बटन तुम्हारी गद्दी के नीचे दबा हुआ है
तुम करवट बदलो तो वह जगे
और दूसरी ही करवट में
वह उसका गला दबा देता है।
हमारे होंठों को सिल दिया है
लोगों की नज़रों ने
टाँके नहीं लगेंगे
कितने दिन पालेगा भ्रम
अपने महाबली होने का।
पैर-दर-पैर पोस्टरों का भार
चौतरफ़ा तुम्हारी जय-जय
तुम भूल गए यह बात—
तेरी औक़ात फ़क़त एक काग़ज़ जितनी है
जिसके चिह्न आँधी की चेतावनी में
समूची फड़फड़ाहट के साथ लिर-थिर हो जाते हैं।
तुम्हारी नींव थोथी है
जो केवल आँकड़ों पर टिकी है
आँकड़े जो हर क्षण परिवर्तनशील हैं
अब तुम ही बताओ
तुममें और एक गिरगिट में कितना अवकाश रह गया?
ठहर! उत्तर दे इतिहास को
तुमने अपना महल बनाने के लिए
कितनों के घर उजाड़े?
अगर झोंपड़ी का
एक बंगले की पड़ोसी होना अपशकुन है
तो यह बता कि झोंपड़ी की छाती पर
बंगले का हमला
न्याय की पोथी में जायज़ होगा?
तुमसे स्नेह है
इसीलिए यह सब उलाहने दे रहा।
ज़ंग लगे नीम पर चढ़कर,
कौए की टींचे खाकर तू बताता फिरता है अपने घाव
इससे तेरी हार जीत में नहीं बदल जाएगी।
तुम्हारे मुँह से उछलता थूक
मेरी मौत का हुक्मनामा लिख रहा है
और हम हमारे पसीने से
इस धरा को सु-रंगी बना रहे हैं।
थूक और पसीने की यह जंग
अनादि काल से जारी है।
तुम्हारी मुस्कान और ट्रैफ़िक लाइट की झपक
पल-पल बदलती रहती है
दोनों में अंतर ढूँढ़ना दुष्कर है।
मेरा हँसना, मेरा उत्साह,
पीड़ा की गहरी घाटियाँ
जीवन को ढूँढ़ने की आशा लिए भटक रही हैं!
हथियार और तुम्हारी कोख
अंधी ईर्ष्या से उपजता है संदिग्ध भय
बख़्तर की कड़ियाँ कस खड़ा होता है गर्व
जय-पराजय की बारहखड़ी में फँसा मनुष्य
बनाता है नए-नए हथियार
अश्वत्थामा के ब्रह्मस्त्र से लेकर
नाइट्रोजन बम तक,
सबके अंत में लिखा होता है तुम्हारा नाम
हर क्षण वे तुम्हारी तफ़तीश में हैं।
माँ सभी हथियार तुम्हारी कोख के दुश्मन क्यों हैं?
अर्जुनदेव चारण (जन्म : 1954) समादृत कवि, आलोचक, नाटककार, रंगकर्मी और अनुवादक हैं। उनकी यहाँ प्रस्तुत कविताएँ राजस्थानी से हिंदी में अनुवाद के लिए उनके कविता-संग्रहों ‘आप कठी कांनी हौ’ और ‘घर तौ अेक नाम है भरोसै रौ’ से चयनित हैं। राजेंद्र देथा नई पीढ़ी से संबद्ध मेधामय कवि-लेखक और अनुवादक हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : किनारे दृश्य-सीमा से बाहर हैं │ कविता जमती है भुरभुरी ज़मीन पर │ रेशमा की याद