कविताएँ ::
राजेंद्र देथा

राजेंद्र देथा

मैं कविता के क्षेत्र में बहुत देर से आया

मैं कविता के क्षेत्र में बहुत देर से आया
और जब आया तब तक सब कुछ समाप्त हो चुका था
या कहूँ कि सब विषय ख़रीदे जा चुके थे
बिक चुके थे
और जब मैं यह सब देखते हुए कविता के
अधिकारियों के यहाँ गया तो देखता ही रह गया।

ख़ैर सबसे पहले मैं उनके यहाँ गया जिन्होंने पिछली बार पूँजीवाद के
ख़िलाफ़ शहर में साहित्यिक आयोजन किया था
उनकी स्त्रियों ने बताया कि वे सब कहीं न कहीं व्यस्त हैं
और मैंने जब पूछताछ की इस मार्फ़त तो मालूम हुआ कि
वे छोड़ने गए थे अपने नन्हे बच्चों को अल्बर्ट कॉन्वेंट स्कूल में।

फिर मुझे कॉमरेड दीपक के यहाँ जाना था
और संयोग से उसकी शादी भी थी
जबकि मुझे न्योता नहीं था
और मैं यह सोचकर गया था कि
दुल्हा बना हुआ बिन बुलाए का उलाहना नहीं देगा
और वहाँ जाते ही मैंने पाया कि कॉमरेड
अपनी शादी में ड्रोन से वीडियो शूटिंग के निर्देश दे रहा था।

फिर मैं सत्ता वाले कवि के यहाँ गया
मुझे उनके कनिष्ठ ने इस संबंध में भेजा था
कि वे तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे
वहाँ मैंने जो पाया बहुत अच्छा पाया
वह यह कि कुछ बड़े, कुछ ताज़ा और कुछ मोटे कवि
व्यस्त थे मद्य की मधु-मंडली में
लेकिन मैं यह जानते हुए उनके पास हथाई के लिए बैठा
कि दारू पीना किसी विमर्श में वर्जित नहीं है।

उनमें कुछ कवि अपनी कविताओं पर लिखने के लिए
फ़ोन पर बतिया रहे थे
कुछ निर्देश दे रहे थे
और इन सबके बीच एक बड़ा कथाकार
मुझ जैसे ही एक बालक को
बड़ा कथाकार बनने के नुस्ख़े बता रहा था
कि कैसे वह यहाँ तक पहुँचा।

बालक जो मुझ जैसा नया-सा था
संभव हो कि हम कभी समकालीन गिने जाएँ।

दरमियान उनकी गप्पों में मुझे अचानक
अपने गाँव के भामू बनिए की याद आई
कि कैसे गवार निकलते ही वह हर बार
तीरथ का गला पकड़कर गवार ले लेता है
और पश्चात इसके गला उसको सुपुर्द कर देता है
कि कैसे जगुड़ी पानी भरकर डेढ़ किलोमीटर आती है
कि कैसे गाँव के सहकारी बैंक का मैनेजर नरेगा को खा जाता है
और अचानक मैं वहाँ से चल दिया।

यह सोचते हुए कि मुझे यहाँ नहीं आना चाहिए था
मैं बिन बुलाए आया था
मैं उनकी संगत से बड़ा कवि बनने आया था
मैं किसी के कहने पर आया था
मैं मूर्ख था जो आया था
मैं कभी नहीं आया था
मुझे बड़ा कवि बनने के लिए मजबूर कर रही नसें लाई थीं!

गाँवों में स्त्रियाँ

जूने गाँव अभी भी थे हिंद में
नहीं जानतीं जूने गाँवों की औरतें
खेत, गुवाड़, गवारणी और जनन की प्रक्रिया
या कुछ और चीज़ों के अतिरिक्त किसी चीज़ को।

खेत में दिन भर सूड़ करने के बाद
पुरुषों को सहवास एक ज़रूरी प्रक्रम जान पड़ता था
और गाँव में आई नर्स द्वारा प्रदत्त
गर्भनिरोधों को उनके बच्चों ने
गुब्बारे बना उड़ा दिया था,
वे मासिक धर्म नहीं जानती थीं
उन्होंने इसका नाम अपनी देसभासा में कुछ अलग कर रखा था
और इन ग़लतियों और सुख के कारण
पुरुष ग़लती के मुताबिक़ कब कर गए
बच्चों की टोली
यह उन्हें ध्यान नहीं रहा।

जब भी कोई पढी-लिखी बहनजी आती
इधर शहर से गाँव की ओर एनजीओ के मार्फ़त
वे घेर लेती थीं और पूछती उनसे नसबंदी के बारे में
वे नहीं जानतीं तुम्हारे विमर्श को और न ही तुम्हारे घर को।

और इधर यह सब ध्यान में न रखकर
महानगरों में जब हमारे गाँव की
औरतों पर लिखी जा रही थीं
कविताएँ, कहानियाँ और लघुकथाएँ
ठीक उसी वक़्त ये तीनों विधाएँ
अबोली बैठी दुखी हो रो रही थीं
शब्दों को पकड़कर ठूँसा जा रहा था
मात्राएँ विलाप कर रही थीं
अनुस्वार माथा पकड़ बैठे थे
उधर कविता लिखने के ठीक बाद
कवि और कवयित्रियों ने खोल दिए थे सीट बेल्ट अपनी कारों के
मौसम के मुताबिक़ और पहुँचना था उन्हें
किसी रात्रि भोज में अपने वरिष्ठों के बताए पते पर
इधर सहसा सुगनी को बताया गया कुछ यूँ
कि तुमपे लिखी जा रही तुम्हारे लिए कविता
दिल्ली में सुगनी ओढ़नी का पल्ला उठाए
करती रहती है सूड़ बैरानी ज़मीं का
उसे लिखी गई ये तमाम विद्रोही कविताएँ
बड़ी संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत
आलोचकों द्वारा सराही गई तमाम कहानियाँ
न जानें क्यूँ अच्छी नहीं लगतीं?

मैं कविता सीख गया था

इधर जब से इस शहर में आया
सच कहूँ तो बहुत प्रभावित हुआ
इस शहर से और कुछ समय बाद
इस शहर के बड़े साहित्यकारों से
मसलन मैंने जाना शुरू किया
गोष्ठियों, कार्यक्रमों, सम्मेलनों में
मेरा जाने का कारण उन दिनों यही था
कि सीखना है अपने को कोई ढंग
कि कविता करनी है और बड़ी प्यारी कविता
यह बात और है कि मैं अपनी मर्ज़ी से
यह नुस्ख़ा नहीं अपना रहा था,
यह नुस्ख़ा मुझे मेरे अभिन्न साथी ने दिया था जो
कि स्वयं अब स्थापित होने के कगार पर है
मैं जाता बड़े लोगों से परिचित रूप से संबंध बनाता,
बातें करता, उनकी किताबों पर लिखने के लिए कहता
स्वाभाविक ही उनकी ख़ुशी देखने लायक़ होती,
कुछ अच्छे थे वे मुझे जान चुके थे।

इधर मैं हमेशा आलोचना की किताबें पढ़ता
भारतीय कविता संचयन की किताबें भी पढ़ीं
लेकिन कविता नहीं बनी तो नहीं ही बनी।

मैं थका-हारा यह शहर छोड़कर जा चुका था
अपने गाँव की सीमा में अपने खेत पर
मैं जाने लगा अब हमेशा
गाँव की उस दुकान पर
और बैठता इत्मिनान से
सुनता सरपंच की दबंगई
डरता मैं भी कुछ बदमाशों की बातें सुनकर
मैं उसी दिन अपने उक्त अभ्यास पर
रो-रोकर कहने लगा
भले मानुष कविता यहाँ थी
तूने वहाँ क्या ढूँढ़ा मात्र
बतकही के अलावा!

राजेंद्र देथा राजस्थानी तथा हिंदी साहित्य की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि-लेखक हैं। वह जयपुर में रहते हैं। उनसे rajendradan609@gmail.com पर बात की जा सकती है। इस प्रस्तुति से पूर्व उन्होंने ‘सदानीरा’ के लिए रामस्वरूप किसान की कुछ कविताएँ राजस्थानी से अनूदित की थीं : कविता जमती है भुरभुरी ज़मीन पर

2 Comments

  1. अनिल अबूझ मार्च 12, 2020 at 1:50 अपराह्न

    बेहद जरूरी कविताएं। राजेंद्र में बहुत संभावनाएं मौजूद हैं, यह बात फिर साबित हुई।

    Reply
  2. विजय राही मार्च 26, 2020 at 6:11 पूर्वाह्न

    अच्छी कविताएँ है ।
    राजेन्द्र देथा को बहुत बधाई और शुभकामनाएं ।

    Reply

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