पारस अरोड़ा की कविताएँ ::
राजस्थानी से अनुवाद : राजेंद्र देथा
हमारी मुस्कुराहट : उनकी बैचैनी
पैरों में पड़ी है
श्रमण धर्म की ज़ंजीरें
और समझदार लोग
चाहते हैं कि हम दौड़ें और
ज़माने की दौड़ में आगे निकल जाएँ।
हमारी भुजाओं को काट कर
वे उम्मीद रखते हैं—
हम भविष्य मे सुंदर मंदिर की सर्जना करें
और वे अपनी टकसाली लक्ष्मी प्रतिमा की
स्थापना करें।
हमारी कनपटी पर वे हमेशा करते हैं
अपने अधिकारी हथौड़े की चोट
और हुक्म देते हैं—
हम उनकी मौज के लिए
मुनाफ़े की योजनाएँ बनाते हुए
पूरे होते रहें और मरते रहें।
कैसे हैं वे अयोग्य निर्बल किंतु धनबल वाले लोग
जो हमारी हत्याएँ कर हमारे मुर्दों से माँग करते हैं—
हम जीवित बलवान
अक्लमंद मनुष्य की भाँति
उनके काम साजें और साजते रहें।
सोने की डोरियों के सहारे
कठपुतलियों की भाँति
शवों को उछाल-उछाल कर
दर्शन करते हैं मदारी बने हुए
वे शवों को नृत्य करवाने वाले।
मौत मार खाकर भी
कठपुतलियाँ बनने के बाद भी
हमारे चेहरों पर पसरी मुस्कुराहट
लोप नहीं होगी, जिसको देखकर
उनके दिन तो क्या? रात भी नहीं कटेगी।
बेचैनी बेचारी बढ़ती है, पर घटती नहीं।
हिसाब
एक सेठ दुकान में बैठा
गिन रहा है रुपए
और हिसाब लगाता है
दिन भर की कमाई का।
एक निभागण गिनती है
बनायी हुई रोटियाँ
घुमाती है आटे के पीपे में हाथ
और हिसाब लगाती है
कुनबे की भूख का।
आदमी और मौत
दूर, बहुत दूर
नदी-नालों-पर्वतों के पार
किसी भाड़े के सिपाही ने
गोली चलाई देशभक्त पर
और घाव मेरे हृदय में पड़ा।
कई कोसों दूर मेरे मुल्क में
कहीं कोई भूख से मरा
मैं एक जीवन जीने के लिए
उस वक़्त मर गया
फिर मर गया
फिर
बारम्बार मर गया।
अचरज
अचरज है कि इस बस्ती के लोग
अब भी जी रहे रहे हैं।
जबकि इन सबकी मौत हो गई थी
कंधों में गोली लगने से
और इनके नाम शीत-युद्ध में
मरने वालों की सूची में छपे हुए हैं।
मैं हमेशा इस बस्ती में
सूखे, अँधेरे गहरे कुएँ में
रोशनी डाल कर देखता हूँ कि
रात को किसी ने इस बस्ती के
किसी मुर्दे को इसमें पटका या नहीं
जिससे मैं दूसरी बार कर सकूँ
उसकी मृत्यु की घोषणा।
अचरज है कि इतने दिनों में
इस शुभ काम की शुरुआत
किसी ने नहीं की।
लगता है अब मुझे ही
करनी होगी यह शुरुआत
बसना पड़ेगा इन मुर्दों के बीच
इस शुभकाम की शुरुआत बाबत,
इनकी अंतिम मृत्यू की घोषणा बाबत।
अलमारियों में बंद
इनकी पोथियों को खा गई है दीमक
कभी पढ़ा नहीं उन्हें।
उनके पन्नों से इन्होंने अपनी
सिगरेटें सिलगाई।
इनका पूरा समय बीत गया
आपस की इस बहस में कि
मरवण के घाघरे में कितनी सलवटें हैं?
कि फलाँ कब जन्मा?
कि वो कब,
कहाँ
किसका
क्या था?
ये लड़ मरे
मुर्दों की बातों बाबत
ज़िंदा लोगों का यश गटक कर।
क्या अब भी इनकी
अंतिम मृत्यु की घोषणा करनी पड़ेगी?
टूटना
तप-तप कर गर्म हुआ
फिर तपा
गर्म हुआ।
पानी की बूँद पड़ी
‘त ट ट’ करता टूट गया
काँच का गोला
मेरी चिमनी का।
हम अपमानित
बारम्बार अपमानित हुआ हूँ मैं
अपमानित हुए हो आप
मेरे साथियो!
हम में से जब कभी कोई
सड़क पर आकर गाता है
हम लोगों से गाने का
‘हुक्मनामा’ माँगा जाता है।
हमने जब कभी अँधेरे में
मंत्रणा करते हुए चेहरों पर
टॉर्च की रोशनी डाली,
छिपे हुए हाथों की निशानी बनी टॉर्चें।
हमने जब कभी किसी मंच से
अपनी वाणी को ताना
हम अपराधी घोषित हुए।
हमारे ऊपर फ़क़त शब्द ही नहीं
फेंकी गई पूरी किताबें
लगाए गए हमारे शब्दों पर शब्द
जिससे उनको कोई सुने नहीं
कोई उनको पढ़े नहीं, गुने नहीं।
जब कभी उनको किसी ने सुन लिया
पढ़ लिया या गुन लिया समझो तभी
बदल जाएँगे नियम सभी,
चेहरों पर चढ़े हुए सभी मुखावरण
टूट जाएँगे, दरार पड़ जाएगी,
अंदर का संसार धारण करता रूप
बाहर निकल आएगा।
सहारा
मेरे साथ इस अथाह समुद्र में
भुजबल के सहारे तैरने वाले मेरे मित्रो!
हमारे साथ कई लोग एक साथ तैर रहे हैं
तुम्बियों, ट्यूबों, डूंगियों और
कई अन्य चीज़ों के सहारे,
नहीं है इनको अपनी भुजाओं पर भरोसा।
इनको देखकर मत डुला देना अपने अंतस को
स्वयं की दशा पर मत दर्शाना दुख-चिंता,
मत करना थक कर समझौता।
ये निर्बल पराश्रित लोग
सहारे के नाम पर बाँध लेते हैं
नियमों और शर्तों की डोरियों से
और वे बँधे हुए बैल बने लोग
इनके काम आते हैं बोझा ढोने बाबत।
आपके साथ तैरने वाला मैं जानता हूँ कि
हमारी देह पर रिसते कई घाव और
समुद्र का लवणयुक्त पानी दाह उपजा रहा।
किनारे दृश्य-सीमा से बाहर हैं।
हो सकता है तैरते-तैरते
समंदर की लहरों को चीरते हुए भी
हम नहीं पहुँच सकें किनारे तक
और समुद्र की कोई एक लहर
तोड़ डाले अपना देह-बल
और हम डूब जाएँ, मारे जाएँ।
लेकिन उस मरने से यह
‘मारा जाना’ सुंदर है।
समुद्र की लहरें तोड़ सकती हैं देह-बल
लेकिन आत्मबल तोड़ने की शक्ति नहीं हैं उनमें,
पूरे समुद्र में भी नहीं।
यदि हम पहुँच गए किनारे तो
कई मर जाएँगे जीवित होते हुए भी
और यदि नहीं पहुँच सके तो पहुँचने वाले
शर्म से मर जाएँगे।
धारण कर लो,
धारण कर लो मेरे मित्रो!
कि—
‘मारे गए कहलाना क़बूल है
लेकिन ‘मर गए’ कहलाना क़बूल नहीं।’
अकाल
धूप मौन होकर चूस रही है
स्याहीचूस की तरह जल सरोवर का
मछलियाँ नाप रही हैं ऊपरी तल से निचले तल तक की गहराई।
सूरज की किरणें डॉक्टर की सुई की भाँति
खींच रही है रक्त हरे वृक्षों का
पक्षी अनमने मन से ढूँढ़ रहे हैं
सूखी-बिखरी हुई वृक्षों की छाँव,
कृषकों की आँखों में उग आया सूरज
अंततः डूब गया है अथाह नयन जल में।
तब किसी एक किसान ने
गर्दन उठा कर कहा—
‘‘नहीं है, नहीं है पानी आसमान में
आसमान के देवों में,
पानी है धरती में, धरती के लोगों में
अकाल यहाँ नहीं वहाँ पड़ा होगा।
कहाँ पड़ा अकाल और कहाँ कर रहे भोग लोग
कह रहे हैं संजोग
फ़क़त संजोग!
कवि की मौत
वह जब मर गया तब लोगों को लगा :
—हमारी फ़ौजों के पास ख़त्म हो गया बारूद
जिसके आसरे हम हमलावरों से युद्धरत थे
और हमारे सिपाहियों के क़दम
जीत की सीमा-रेखा पार करने वाले थे।
—फूट गई वह दवा की शीशी
जिससे हमारे देह पर रिसते घाव गिरने लगे थे।
—समाप्त हो गया उस ट्यूबवेल का पानी
जिससे बुझाते थे प्यास, धोते थे
शरीर और वस्त्रों का मैल
करते थे खेत की सिंचाई।
—ख़त्म हो गया वह अनाज का ढेर
जिससे हम भूख की मुर्ग़ी को चुग्गा चुगाते थे।
—खो गई वह दृष्टि जो
भले-बुरे की पहचान करती
जो मार्ग बताती जिस पर
चल कर हम वहाँ पहुँचते
जहाँ सुख बाँटे जाते।
लगा कि
—विश्वास का घर दरार खा गई
उम्मीद का छप्पर टूट गया,
जम गया रक्त देह की नलियों में
श्वास की थैली फट गई।
नहीं, पर नहीं
हुआ तो सिर्फ़ इतना
कि चारों तरफ़ फैला
एक सीनातान
गर्व और गुमेज-सा दिखता
भरे आकाश चढ़ा हुआ वह
सिमटकर काग़ज़ों की परतों में पहुँच गया।
पारस अरोड़ा (जन्म : 1937) सुपरिचित राजस्थानी कवि और संपादक हैं। उनकी यहाँ प्रस्तुत कविताएँ उनके ‘झळ’ और ‘जुड़ाव’ शीर्षक से प्रकाशित कविता-संग्रहों से चुनी और अनूदित की गई हैं। राजेंद्र देथा से परिचय के लिए यहाँ देखें : मैं कविता के क्षेत्र में बहुत देर से आया │ कविता जमती है भुरभुरी ज़मीन पर
बहुत सुंदर कविताएँ । सशक्त ,प्रासंगिक । बहुत बढ़िया अनुवाद। ‘अकाल’ कविता का अंतिम भाग तो लाजवाब है।
आभार सदानीरा।
बहुत सुंदर कविताएं सशक्त अनुवाद
बहुत ही सुन्दर रचना है